'' तुम अक्सर '' भाग तीन
तुम अक्सर कहती हो मुझसे इतना मुझे चाहते क्यूँ हो .........
तुम अक्सर कहती हो मुझसे सपने व्यर्थ पालते क्यूँ हो..........
मैं अक्सर सोचा करता हूँ तुझको क्या, कैसे समझाऊँ?
तेरे सहज सरल प्रश्नों के उत्तर में क्या कुछ कह जाऊँ?
कैसे कहूँ कि इन सपनों पर मेरा खुद अधिकार नहीं है ;
इस स्वभावगत दुर्बलता का ज्ञात मुझे उपचार नहीं है।
स्वयं नहीं मेरे वश में है, तुझे चाहना या ना चाहना;
अनायास है मेरा इन सपनों के पीछे सतत भागना।
जाने इन्हें कौन मेरे मन में आकार दिया करता है;
मेरे भीतर कौन बैठकर मुझ को विवश किया करता है।
कहता है, तेरे बारे में सोचूँ और सोचता जाऊँ;
इन प्रहेलिकाओं में अपने मन को अधिक अधिक उलझाऊँ।
हल न तलाशूँ इन प्रश्नों के, इनको ज्यों का त्यों रहने दूँ,
यह धारा जिस ओर बहाती है उसमें खुद को बहने दूँ।
मत भविष्य की सोचूँ, इनके परिणामों पर करूँ न चिंतन;
मत सोचूँ किस भाँति करेगी, यह दुनिया मेरा मूल्यांकन।
किन कसौटियों पर जग द्वारा, आगे मुझे कसा जाएगा;
मेरे गीत कौन गाएगा या फिर कौन नहीं गाएगा।
अपनी इस स्वान्तः सुखाय गाथा को हो निर्द्वन्द्व कहूँ मैं,
बिना बनावट जैसा भीतर हूँ, बाहर भी वही रहूँ मैं।
सपनों के अरण्य में अपने मन को दूँ उन्मुक्त विचरने;
कभी कल्पना में उतराने और कभी करुणा में भरने।
अपना सीना चीर तुम्हें भीतर क्या है कैसे दिखलाऊँ?
मैं अक्सर सोचा करता हूँ तुझको कैसे, क्या समझाऊँ?
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY