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' तुम अक्सर '' (भाग दो)

 
तुम अक्सर (भाग दो) 


तुम अक्सर कहती हो मुझसे सपने व्यर्थ पालते क्यूँ हो ?

सपने वह, साकार कभी जो इस जीवन में हो न सकेंगे,
नदिया के दो पाट सदृश हम तुम सदैव दूर ही रहेंगे।

जैसे धरती और गगन का संभव नहीं एक हो पाना,
ठीक उसी की भांति असंभव है तुमको मेरा अपनाना।

हां! मेरे मन में जब चाहो, जैसे चाहो, आओ जाओ;
मन ही मन में जितना चाहो, मुझ पर उतना प्यार लुटाओ। 

कविताओं में गाते जाओ मुझे कल्पना में भर-भर कर,
स्नेह सुधा बरसाते जाओ, गीतों को, छंदों को रच कर। 

 लेकिन कड़वा सच है मुझको नहीं किसी विधि पा सकते तुम! 
नहीं लोक सम्मत परंपरा से मुझको अपना सकते तुम। 

 हम दोनों की अपनी-अपनी लगभग सीमाएँ निश्चित हैं,
घुटने, तपने, तिल-तिल मरने में ही हम दोनों के हित हैं! 

जाने कितनी कठिन घड़ी में तुमने यह सपने पाले थे,
मुझे साथ लेकर जाने किस यात्रा पर जाने वाले थे? 

छिन्न-भिन्न हो चुके सभी, फिर, दिल से उन्हें लगाए क्यूँ हो? 
नाहक इतना बोझ हृदय पर फिरते नित्य उठाए क्यूँ हो? 

वह सपने, जो तुमको जीने देते नहीं, न मरने देते! 
वह सपने, जो तुमको कुछ भी नहीं सही से करने देते! 

वह सपने, जिनको दुनिया की नजरों में देखना गलत है! 
वह सपने, जिनका समाप्त हो जाना ही जिनकी किस्मत है! 

वह सपने, जो विचलित करते रहते आठों याम तुम्हें हैं!
वह सपने, बेचैन किया करते जो सुब्हो-शाम तुम्हें हैं! 

ऐसे सपनों के पीछे मतवाले बने भागते क्यूँ हो? 
तुम अक्सर कहती हो मुझसे सपने व्यर्थ पालते क्यूँ हो?

तुम अक्सर कहती हो मुझसे इतना मुझे चाहते क्यूँ हो?

-गौरव शुक्ल
मन्योरा

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