Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

तुम अक्सर (भाग एक)

 

तुम अक्सर (भाग एक)


तुम अक्सर कहती हो मुझसे इतना मुझे चाहते क्यूं हो। 

ऐसा मुझ में है ही क्या जो तुम इस कदर हुए दीवाने,
बैर मोल ले लिया समूची दुनिया से जाने अनजाने।

सिवा वेदनाओं के मैंने अब तक तुम्हें दिया ही क्या है? 
तुम्हें सिवा पीड़ित करने के मैंने और किया ही क्या है?

तुमने मुझे पुकारा जब-जब दुनिया ने आपत्ति उठाई, 
तुमने मुझे पुकारा जब-जब, तब मैं दौड़ नहीं आ पाई।

मुझे नयन भर जभी देखना चाहा तब लोगों ने रोका, 
मेरा हाथ थामने जब भी बढ़े तुम्हें दुनिया ने टोका।

समझ नहीं पाती यह मुझमें, तुम्हें चाहने वाला क्या है? 
सब जैसे हैं वैसे ही हूं, मुझमें नया निराला क्या है? 

मुझको लेकर तुमने जो भोगा है उसे कौन भोगेगा? 
मेरी खातिर जितना रोए हो, इस तरह कौन रोएगा? 

समझ नहीं आता यह चातक के जैसा हठ क्यूं पाले हो, 
अपने हाथ जलाने को अब कौन यज्ञ करने वाले हो? 

दुनिया में मोटे शब्दों में जिसको 'पाप' कहा जाता है,
मेरे साथ तुम्हारा नाता कुछ-कुछ वैसा ही नाता है। 

यह दुनिया सपनों पर भी प्रतिबंध लगाती रहती प्रायः, 
और भावनाओं को भी बेड़ी पहनाती रहती प्रायः। 

यह दुनिया वह दुनिया है जो मीरा को विष देती आई, 
यह दुनिया है वही राम पर जिसमें उंगली गई उठाई.।

यह दुनिया है वही कटघरा जहां सभी के लिए बना है,
सबसे कठिन चुनौती जग में आकर निष्कलंक रहना है।

 मुझे पता है तुम जवाब देना चाहो तो दे सकते हो, 
और हमारे लिए उपेक्षा दुनिया भर की ले सकते हो;

लेकिन इतनी नफरत मेरी खातिर ढोकर क्या पाओगे, 
खुद को सही सिद्ध करने को तुम किस-किस को समझाओगे? 

कितनी विषम परिस्थितियां हैं आखिर नहीं भाँपते क्यूं हो?
तुम अक्सर कहती हो मुझसे इतना मुझे चाहते क्यों हो?

-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ