Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तुम बिन जीवन कितना सूना-सूना था

 

तुम बिन जीवन कितना सूना-सूना था।

वह दिन कैसे दिन थे किस तरह बताएं?
गिन-गिन कैसे काटे, कैसे समझाएं ?
आकाश ताकते रात गुजर जाती थी ,
सपने में भी तो नींद नहीं आती थी।

हर घड़ी घुटन,पीड़ा ,संत्रास ,विकलता ,
था समय शिला सा सरकाए न सरकता।
विष-घूंट एक पल में ,हजार पीते थे ;
यादों का सूत्र थाम, ज्यों-त्यों जीते थे।

जैसे भी हो, वनवास विकट वह बीता ,
जीवन का हमने समर कठिनतम जीता।
हमने कुबेर का कोष आज पाया है ,
फिर मनोवांछित समय लौट आया है।

कर ली वैतरणी पार आज दुस्तर है,
हो गया स्यात् हम पर प्रसन्न ईश्वर है।
कट गयी रात काली,खिल उठी सुबह है;
थम गया भयंकर चक्रवात दु:सह है।

रिश्तों पर जमी बर्फ ,अनचाही ,पिघली ;
बरसों के बाद धूप कुछ ऐसी निकली।
आनंद अलौकिक व्याप्त हुआ त्रिभुवन में;
खुशियां आ गईं लौटकर फिर जीवन में।

हर एक प्रश्न का हुआ स्वयं निस्तारण,
हर शंका का हो गया समूल निवारण।
सारी शिकायतें बिसर गयीं पल भर में,
हो गई बात जाने क्या नजर-नजर में।

तुमने कुछ पूछा नहीं, न हम कुछ बोले,
जिह्वा भी हिली नहीं , न अधर ही डोले;
बिन कहे हुआ हर एक रहस्योद्घाटन,
यूं निष्ठुर विरह-कथा का हुआ समापन।

वृक्षों पर है मधुमास उतर फिर आया,
तुम मिलीं मुझे, मैंने नवजीवन पाया।

-गौरव शुक्ल
मन्योरा

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