तुम एक पहेली जैसी हो, कैसे सुलझाऊँ,
तुम एक पहेली जैसी हो, कैसे सुलझाऊँ,
जितना सुलझाता,उतनी और उलझ जाती हो।
(1)
है यक्षप्रश्न मेरे समक्ष निज मुँह फैलाये,
पर धर्मराज सा मेरे पास विवेक नहीं है।
इतना रहस्य, इतनी गूढ़ता, जटिलता इतनी
हल कर पाने की ज्ञात मुझे विधि एक नहीं है।
फिर भी इच्छा है, पढ़ूँ तुम्हारे नेत्रों की लिपि,
तुम घुमा फिरा कर इन्हें, मुझे क्या समझाती हो।
तुम एक पहेली जैसी हो, कैसे सुलझाऊँ,
जितना सुलझाता, उतनी और उलझ जाती हो।
(2)
आभास कभी होता है, मुझसे तुम्हें प्रेम है,
पर बुद्धि कल्पनाओं को टोक दिया करती है।
कुछ बात द्विअर्थी बीच-बीच यूँ कह देती हो,
वह आशय सोच, देह रोमांचित हो उठती है।
आखिर क्यों मेरे संयम की ले रहीं परीक्षा,
क्यों जानबुझ मेरे साहस को उकसाती हो।
तुम एक पहेली जैसी हो, कैसे सुलझाऊँ,
जितना सुलझाता,उतनी और उलझ जाती हो।
(3)
अब उत्सुकता का स्थान ले लिया आतुरता ने,
यह आतुरता दिन पर दिन और बढ़ी जाती है।
बढ़ता जा रहा तुम्हारे प्रति आकर्षण नित नित,
तुममें रुचि मेरी नित्य निरंतर गहराती है।
जैसा खिंचाव करता महसूस तुम्हारे प्रति मैं,
क्या तुम भी कुछ वैसा खिंचाव खुद में पाती हो?
तुम एक पहेली जैसी हो, कैसे सुलझाऊँ,
जितना सुलझाता,उतनी और उलझ जाती हो। ''
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY