तुम कौन चेतना पर मेरी छाई हो
तुम कौन चेतना पर मेरी छाई हो ?
बेरोक टोक मन बीच चली आई हो।
पल भर को भी तुमसे न ध्यान हटता है,
चातक सा मन दिन रात तुम्हें रटता है।
तुम बीच धार में मुझको छोड़ न देना,
मुँह किसी मोड़ पर मुझसे मोड़ न लेना।
जब से तुमको साथी-स्वरूप पाया है,
जीवन का असली अर्थ समझ आया है।
तुमसे कितनी आशायें बाँध चुका मैं,
तुम पर कितने सपनों को साध चुका मैं।
मेरे सपनों की लाज बचा लेना तुम,
आशा का दीपक बुझा नहीं देना तुम।
यदि कहीं मधुर कुछ है मेरे जीवन में,
तो यही कि तुम बसती हो हर पल मन में।
जीवन पथ पर अब सदा हँसूँ, मुस्काऊँ,
फिर डूब नहीं दुख के सागर में जाऊँ-
इसलिये तुम्हें यह भार उठाना होगा,
मेरा जीवन भर साथ निभाना होगा।
तेरी बातें ! मन जिससे नहीं अघाता,
तेरा दर्शन !कविता के भाव जगाता।
तेरी आँखें !सौ स्वर्ग भुला देती हैं,
खुशियों के अगणित कोष लुटा देती हैं।
इच्छा करती है,तुझको पकड़ बिठाऊँ,
देवता बना लूँ और पूजता जाऊँ।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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