तुम मिली न होतीं मुझे,न मुझको छोड़ा होता।
सोचा करता हूं अक्सर तो मुझ में क्या होता ?
(1)
मेरे मन में जो कूट-कूट कर भाव भरे हैं ;
काफी वज्नी हैं,कुछ उनमें काफी गहरे हैं।
उनको जब पृष्ठों पर आकार दिया करता हूं ;
शब्दों में भर-भर कर साकार किया करता हूं ;
तब मेरी ऊंचाई आकाश लांघ जाती है ;
मेरा आश्रय पा कला स्वयं पर इतराती है।
बन गया तुम्हारा देय हमारे हित अनन्य है ;
तुम धन्य ,तुम्हारा मेरे प्रति यह वैर धन्य है।
अस्वीकृति धन्य तुम्हारी, जिसने मुझे तपाया;
वरना मैं जैसा हूं , न कदाचित् वैसा होता।
(2)
तुमने ठुकरा कर मुझे और यशवान बनाया;
कर मेरी घोर उपेक्षा , मुझे महान बनाया ।
निष्ठुरता दी तुमने , संवेदनशील हुआ मैं;
कांटे सहेज कर तुमसे सहज करील हुआ मैं।
आंसू क्या तुमने दिये,मुझे वरदान मिल गया ;
मुंह फेरा तुमने , जीवन का सामान मिल गया।
तुमने चाहा मुंह खोलूं न मैं किसी के सम्मुख ;
तुम सुख भोगो मैं रहूं उठाता एकाकी दुख ।
आत्माभिव्यक्ति में मैंने खोज लिया चिर सुख है ;
मर जाता यदि यह पथ न बुद्धि ने खोजा होता ।
(3)
कविता ने मेरे जीवन को आसान बनाया ;
कविता ने हर पीड़ा का समाधान बतलाया।
कविता ने मुझ को गोद ले लिया है कुछ ऐसे ;
मिल जाय बुभुक्षा-पीड़ित बालक को मां जैसे।
मत डरो,अभी तो अनुष्ठान आरंभ हुआ है ;
समिधा साकल्य अभी पड़ना प्रारंभ हुआ है।
ऊंची इसकी लौ अभी और उठने वाली है ;
यह लपट तुम्हें कुछ और दग्ध करने वाली है।
इस पाप-पुण्य ,अपकीर्ति-कीर्ति से भरी कथा को;
कह देने से ही है मेरा मन हल्का होता।
-----------------
- गौरव शुक्ल
मन्योरा
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY