उम्मीदें भी कितनी भयावह होती हैं!
कितनी तकलीफदेह!
पर ऐसा तब महसूस नहीं होता जब वह उत्पन्न होती हैं या जब वे मन में आकार ले रही होती हैं!
अपने उत्पन्न होने के क्षण में तो वह मधुर ही लगती हैं, बड़ी मनमोहक और बड़ी संतोषप्रदायक भी!
एक शब्द और कहूँ तो निरापद भी!
पर यह सब समय के साथ कैसे कैसे चकनाचूर होती हैं और फिर कैसे कैसे घाव छोड़ जाती हैं समझा पाना कठिन है!
उम्मीदों का मोटे तौर पर वर्गीकरण करूं तो यह दो प्रकार की हो सकती हैं सकारात्मक उम्मीदें और नकारात्मक उम्मीदें!
सकारात्मक उम्मीदें उनसे जो हमें प्रिय हैं!
जो हमारे अपने हैं!
जो हमारे ज्यादा करीब हैं!
जिनपर हमें भारी भरकम विश्वास है!
और नकारात्मक उम्मीदें उनसे जो हमारे शत्रु हैं!
जो हमें नापसंद करते हैं!
जिनके लिए हम नाकाबिले-बर्दाश्त हैं!
तो नकारात्मक तो नकारात्मक हैं ही खतरा उनसे नहीं है तकलीफ भी उनसे एक हद तक ही है!
परंतु सकारात्मक उम्मीदें.... खतरनाक हैं!
यह झकझोर डालती हैं, इनमें निर्दयता की कोई सीमा नहीं रह जाती!
निस्सीम वेदना और प्रचंड पीड़ा देने वाली होती हैं।
आँखों के आगे धुंध ही धुंध!
अपना पसारा हाथ भी नही दीखता.
जीवन निरुद्देश्य जान पड़ता है!
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सोचता हूँ उम्मीदों के मामले में सकारात्मकता कितनी नकारात्मक है!
बात कुछ विरोधाभासी लग सकती है!
पर मुझे अपने अनुभव में यही सत्य प्रतीत हुआ है।
दैवयोग से आपके अनुभव मुझसे भिन्न हो सकते हैं।
पर दुर्दैवयोग से मेरी उम्मीदें हर बार यही शिक्षा देती रही हैं!
वह सिलसिला जारी है न थमा है न थमता दीखता है।
आपको चाहने वाले या आपको चाहने का दम भरने वाले आपके प्रति इतने कठोर इतने निर्दयी कैसे हो जाते हैं?
मन का वह कौन सा विज्ञान है जो उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है!
वह आपको चिढ़ाकर खुश होते हैं या खुश होकर चिढ़ाते हैं।
कुल मिलाकर उम्मीदें निर्मम होती हैं!
विश्वास निष्ठुर होते हैं!
अपेक्षाएँ रेत के महल सरीखी हैं!
यह क्रूर हैं! अपाल्य हैं! त्याज्य हैं!
पर सारा मामला इतना आसान है नहीं.
बहुत बार तो हम खुश होकर भी पाप कमाते है!
ठीक वैसे ही जैसे बहुत बार हम दुखी होकर भी आनंद का अनुभव करते हैं.
बात फिर विरोधाभासी दिखती है पर जो हम देखते हैं सच हमेशा वही नहीं होता।
सोचकर देखियेगा........
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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