याद मैं ही क्यों करूं सब.... भाग - 4
जश्न अपनी मृत्यु का मैं ही अकेले क्यों मनाऊं,
आज तुम भी आ यहाँ इस जश्न का आनंद लो कुछ।
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ।
यहां तक आपने पढ़ा होगा अब और आगे -
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ।
मैं नहीं जब भूल पाया भूल जाने दूं तुम्हें क्यों,
चैन से जब सांस लेने की मुझे फुर्सत नहीं है ;
तो तुम्हें क्यों हो, इसी से आज सब लिख दे रहा हूं;
वेदना चुपचाप एकाकी सहूं, आदत नहीं है।
और हो भी क्यों?उठाए सुख सभी जब साथ मिलकर,
वेदनाएं भी हमारे साथ मिलकर के उठाओ।
आज आओ वेदना का गान मेरे साथ गाओ,
स्वर मिला मेरे स्वरों में गीत यह तुम भी सुनाओ।
जी जहां चाहे, बसो, आकाश में, पाताल में जा;
याद मेरी किंतु पीछा छोड़ने वाली नहीं है।
तुम भले मुंह मोड़ लो तो मोड़ लो सब यत्न करके,
किंतु यह चाहत कभी मुंह मोड़ने वाली नहीं है।
आज भी यदि चुप रहा तो कौन जानेगा कि मेरे,
प्रति तुम्हारे भी हृदय में प्रेम के अंकुर उगे थे।
मैं नहीं यदि कह सका तो कौन आएगा बताने,
याद ने मेरी तुम्हें कितने कराये रतजगे थे।
कौन कारण जान पाएगा उदासी का हमारी?
कौन आकर जख्म की गहराइयों की नाप लेगा?
कौन मेरे मुस्कुराते गात के पीछे वृहत्तम,
है छिपा अवसाद का जो सिंधु, उसकी माप लेगा।
इसलिए लिख दे रहा हूं।
इसलिए लिख दे रहा हूं क्योंकि वाणी को दबाकर,
साथ अपने पार क्यों अन्याय की सीमा करूं मैं!
भावनाएँ शब्द में ढल कर उतरना चाहतीं जो,
क्यों लगा प्रतिबंध उनके वेग को धीमा करूँ मैं!
भावना के क्षिप्र इस आवेग को आओ संभालो,
भावधारा यह तुम्हें छू कर गुजरना चाहती है।
प्राण में निर्धूम जो बड़वाग्नि मेरे जल रही है,
वह तुम्हारे प्राण में भी साथ जलना चाहती है।
याद है वह दिन चढ़ाने बीरबाबा पर गए 'परसाद' थे हम तुम,
वहां का दृश्य था कैसा मनोरम,
पेड़ बरगद का, खड़े ज्यों बीरबाबा हो स्वयं ही।
भूमि को छूती लटें जैसे उन्हीं की हों भुजाएं।
और उनसे जुड़े कितने संस्मरण,
मैंने सुनाए थे तुम्हें।
कुछ याद है या भूल सारे ही गई हो।
खैर मैं फिर से दिला दूं याद सारे संस्मरण -
जब से हुआ मैं जानने वाला तभी से,
मानता आया इन्हें आराध्य अपना।
खेल में जब गेंद बह जाती कभी थी,
बीरबाबा को किया था याद करता।
और मिल जाती हमें थी गेंद,
इसका है हृदय साक्षी हमारा।
और यह विश्वास कायम है अभी तक।
और वह विश्वास था तुमने पढ़ा,
डाल आंखों में हमारी आंख मैं भूला नहीं हूं।
नोकिया का फोन सी टू और जीरो वन
अभी भी है हमारे पास।
जिससे चित्र खींचे थे कई हमने वहां पर।
शीश कंधे पर टिका मेरे खिंचाये चित्र थे जो,
वह धरोहर आज भी अनमोल है मेरे लिए।
ठौर वह पावन मुझे अब और पावन हो गया है ,
हैं सुरक्षित आज भी वह दृश्य सब के सब प्रिये।
देखता हूं आज भी वह चित्र तो महसूस होता,
तुम लता सी आज भी मुझसे लिपटकर के खड़ी हो।
वह विकलता जो हृदय में थी तुम्हारे उन क्षणों में,
आज भी उस ही विकलता से गले मेरे पड़ी हो।
आज भी महसूस होता है कि मेरे पास हो तुम,
देह धरकर के तुम्हारे चित्र मुझसे कह रहे हैं -
मैं यही हूं, मैं यही हूं, मैं यही हूं, मैं यही हूं ;
तुम जहां थे मैं वहीं थी, तुम जहां हो मैं वहीं हूं।
आह इस उन्मत्तता का क्या करूं उपचार साथी!
साथ अपने पागलों सा कर रहा व्यवहार हूं।
किस तरह झूठे दिलासों से रहा भटका स्वयं को,
प्राप्त कर पाता नहीं तुमसे कभी निस्तार हूँ।
चींटियां सी रेंगती महसूस होती देह पर हैं,
लोटने लगते हृदय पर साँप, यादें बन तुम्हारी।
अश्रु मुझको साधने का हैं निरर्थक यत्न करते,
त्याग मेरा साथ, जाती हो पराई बुद्धि सारी।
आग की दुर्दांत जो लपटें मुझे घेरे खड़ी हैं,
व्यूह से इनके मुझे आकर बचाओगी नहीं क्या?
यह हलाहल जो मुझे पीना अकेले पड़ रहा है,
भाग इसमें है तुम्हारा भी, बँटाओगी नहीं क्या?
इसलिए लिख दे रहा हूं, ताकि आकर साथ मेरे ;
आज इस घातक जहर का स्वाद तुम भी तो चखो कुछ!
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ!!
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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