Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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याद मैं ही क्यों करूं सब..... भाग - 3

 
याद मैं ही क्यों करूं सब..... भाग - 3


सिर्फ मैं ही क्यों करूं इस प्रेमगाथा की विचर्चा,
पक्ष अपना, आप अपने ,आज तुम भी तो रखो कुछ!
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ!

यहां तक आप पढ़ चुके हैं अब आगे

तुम सदा लेती रही मेरी परीक्षा पर परीक्षा,
हर परीक्षा स्यात् मैं उत्तीर्ण कर पाया नहीं;
तुम सदा लेती रहीं मेरे सुसाहस की परीक्षा,
हर परीक्षा स्यात् मैं उत्तीर्ण कर पाया नहीं।

यह परीक्षा आज अपने आप खुद मैं दे रहा हूं,

आज जो मैं लिख रहा हूं काम साहस का बड़े वह,
तुम नहीं दोगी परीक्षा तो नहीं दो, ना सही!

किंतु घटनाएं कभी वह साथ जो मेरे घटी थी,
साथ वैसे ही तुम्हारे भी घटी थीं या नहीं ?
रात मैंने थी बिताई जाग संग जैसे तुम्हारे,
रात वैसे ही तुम्हारी भी कटी थी या नहीं ?

पर न तुम यह कह सकोगी इसलिए लिख दे रहा हूं,
वज्र धारण कर हृदय पर काव्य यह सुनती रहो।
प्राण पर शायद तुम्हारे बोझ कुछ होगा नहीं पर,
प्राण पर जो बोझ मेरे है उसे गुनती रहो।

ध्यान वह मेरा कि तुमसे जो कभी बंटता नहीं था,
रात हो,दिन हो ,सुबह हो, शाम हो या दोपहर।
'मैसेजों' का सिलसिला वह जो कभी थमता नहीं था,
रात हो ,दिन हो ,सुबह हो, शाम हो या दोपहर ।

माह भर के लिए थे रीचार्ज जो हम तुम कराते ,
सात दिन में ही खतम हमने किए थे या नहीं?
क्या पता यह आज तुमको याद हो, ना याद हो!

तुम नहीं दोगी गवाही तो नहीं दो ना सही।

एक दिन तुमने कहा था,
तुम मुझे लाकर जहर दे दो,बड़ा एहसान होगा;
बिन तुम्हारे जिंदगी की कल्पना मुझसे कठिन है।
तुम अगर अपना नहीं सकते मुझे तो छोड़ ही दो,
नित्य प्रति के इस मरण की जल्पना मुझसे कठिन है।

रोज ही तकना तुम्हारी राह,तुम आओ न आओ;
चौंकना हर एक आहट पर बहुत ही सालता है।
जानती हो तुम न मेरे हो सकोगे किंतु फिर भी ,
स्वप्न ऐसा मन अभागा क्यों न जाने पालता है।

जो मिला तुमसे मुझे वह भी कहीं कुछ कम नहीं,
आंख मेरी सोच कर यह ही हुई तो नम नहीं।

शुष्क आंसू हो गए हैं देख पाओ देख लो,
इस विरह पर अश्रुओं से मन नहीं बहला सकूंगी।
तुम नहीं मेरे हुए तो सोच लो बाकायदा,
मैं नहीं जीवित रहूंगी, प्राण निश्चित त्याग दूंगी।

आज इस वैकल्यता को भूल यदि बिल्कुल चुकी हो,
तो भुला दो है उचित ही ।
जिंदगी अपनी बताओ दूसरे के संग खुशी से ,
तो बिताओ है उचित ही ।

किंतु मैं आश्चर्य से होकर चकित जो देखता हूं,
मूल्य उसका भी कदाचित है कहीं से कम नहीं।
चाहता हूं मैं बहुत विश्वास कर लूं सत्य पर इस,
किंतु अंतर कह रहा है शेष अब भी भ्रम कहीं।

काश मैंने दे दिया होता तुम्हें लाकर जहर,
और मर जातीं उसी दिन तो मुझे संतोष रहता।
दोष जो लगता मुझे लगता तुम्हें तो कुछ न लगता,
दृष्टि में मेरी तुम्हारा चरित् तो निर्दोष रहता।

चांद में जो लग गया है दाग उसका हेतु मैं हूं, 
तुम नहीं;  सेतु जो मेरे तुम्हारे मध्य टूटा आज जैसे ,
तोड़ने वाला अभागा वह अनाविल सेतु मैं हूं तुम नहीं।

किंतु कोई कुछ कहे पर चंद्रमा तो चंद्रमा है,
दोष उसमें हो भले ही,
प्रेयसी से किंतु तुलना चंद्रमा की सर्वदा होती रही है
सर्वदा होती रहेगी।
तुम सही अपनी जगह कल भी रही थीं ,आज भी हो!
जिंदगी जैसे बितानी चाहिए,
 वह मंत्र है कंठस्थ तुमको।

तुम निरा व्यवहारवादी सत्य हो,
मैं निरा सिद्धांतवादी मिथक हूं ।
ढाल ली जिस भांति तुमने जिंदगी,
मैं न पाया ढाल, कर श्रम अथक हूं।

तुम न मानोगी कभी यह तो न मानो ना सही;
किंतु जो है सत्य मेरी दृष्टि में वह लिख रहा हूं ।

एक दिन मैंने लिखा था,
'' प्यार में तेरे मुझे बदनाम होना भी गंवारा",
 रीझ कर तुमने पचासों बार वह मुझसे सुनी थी।
पर न तुम यह लिख सकोगी तो लिखो ना, ना सही।
क्योंकि तुम बदनामियों से सर्वथा डरती रही हो।
 
किंतु मुझको नाम या बदनाम में अंतर नहीं कुछ, 
यश कमाने के लिए मैं भूमि पर उतरा नहीं हूं। 
खोजने को स्वर्ग मैं आया नहीं हूं इस जगत में, 
पुण्य अर्जन के लिए इस लोक में ठहरा नहीं हूं। 

भय दिखा अपकीर्तियों का कौन रोकेगा मुझे! 
राह जो मैंने चुनी सब सोचकर मैंने चुनी है, 
चल रहा उस पर अभय हूं कौन टोकेगा मुझे!

किंतु यह जोखिम न तुमसे उठ सकेगा जानता हूं,
इसलिए अब छोड़ दो हमको हमारे हाल पर। 
अश्रुओं की आपगा में डूब जाने दो मुझे,
दो उठाने वेदना का मेरु अपने भाल पर।

लो परीक्षा और जितनी हो सके अब लो परीक्षा, 
और मेरी दुर्दशा को देख लो निज आंख भर। 
देख लो जी भर मुझे बर्बाद होते नित्य प्रति तुम, 
मृत्यु का जलसा हमारी देख लो क्षणभर ठहर। 

जश्न अपनी मृत्यु का मैं ही अकेले क्यों मनाऊं, 
आज तुम भी आ यहां इस जश्न का आनंद लो कुछ।

याद मैं ही क्यों करूं सब याद तुम भी तो करो कुछ।।

-गौरव शुक्ल
मन्योरा

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