याद मैं ही क्यों करूं सब याद तुम भी तो करो कुछ, भाग - 2
............सिर्फ मैं ही क्यों उठाऊं भार भारी वेदना का, अंश पीड़ा का हमारी आज तुम भी तो गहो कुछ।
याद में ही क्यों करूं सब,याद तुम भी तो करो कुछ।
यहां तक आप पढ़ चुके हैं अब आगे-
भूल तुम भी तो नहीं होगी गई यह ज्ञात है,
बात ऐसी इस जगत में भूल सकता कौन है?
सांस जब तक चल रही है,दिल धड़क जब तक रहा है,
डाल सारे तथ्य पर इस धूल सकता कौन है?
आज भी विश्वास यह जाता नहीं अंतः करण से,
किंतु आत्मा कह रही है सत्य कुछ विपरीत इससे।
है भुला तुमने दिया मुझको हमेशा के लिए।
है बुझा तुमने दिए निज प्रीति के सारे दिए।
किंतु मैं भूला नहीं कुछ।
तुम वही हो एक दिन जिसने कहा था इस जगत से,
दूर बेहद दूर मुझको ले चलो ऐसी जगह।
सिर्फ हम तुम हो जहां पर, प्यार ही हो प्यार केवल,
हो न दुनिया से जहां भयभीत होने की वजह।
तुम वही हो एक दिन जिस ने कहा मुझसे अनाड़ी,
ठौर मेरे हेतु ऐसा ढूंढ तक सकते नहीं;
जिस जगह एकांत में मुझको लिए कुछ देर बैठो,
तुम हमारे साथ क्या इस भीड़ से थकते नहीं?
वाकई मैं था अनाड़ी,कुछ नहीं सूझा मुझे जब,
मैं तुम्हें लेकर वहां पहुंचा जहां थी नर्सरी।
बागवानी का तुम्हें था शौक तो मुझको लगा यह,
इस जगह पर पहुंच होगा कुछ तुम्हें आनंद ही।
पेड़ उस दिन स्यात् कोई भी तुम्हें भाया नहीं,
रास यह निर्णय हमारा कुछ तुम्हें आया नहीं।
देख कर मेरा अनाड़ीपन रहीं तुम मुस्कुराती,
जिस तरह वह मुस्कुराहट आज भी है याद मुझको।
और इस मेरी अनाड़ी गिरी पर तुमने कसा था,
तंज जो,वह दिख रहा है आज भी साक्षात मुझको।
धन्य हो मेरे प्रभू!तुम से लगाना आस कोई,
ठीक वैसा है कि जैसे बांस से कोई करे उम्मीद,
इसमें बौर आएगा किसी दिन ,
और उसमें आम के फिर फल लगेंगे।
धन्य हो महाराज ! कुछ आशय समझ पाते नहीं।
काम तुमको काम वाले एक भी आते नहीं।
यह अनाड़ी नाम तुम पर एकदम फिट बैठता है।
और अब थी मुस्कुराने की नई बारी हमारी,
और मुझको मुस्कुराते देख ज्यों जल भुन गईं तुम।
वह जलन वह भुनन अब भी ठीक मुझको याद वैसी।
और मैं बोला कि इसमें दोष कुछ मेरा नहीं जब,
तुम स्वयं लाईं विधाता से लिखा कर
प्यार बरसेगा तुम्हारा एक ऐसे व्यक्ति पर जो
वाकई होगा अनाड़ी।
ज्ञात उसको खुद नहीं होगा कहां ले जाय तुमको,
हो जहां से दूर दुनिया।
वह कहां लेकर तुम्हें बैठे जहां कोई नहीं हो,
हो जहां ना क्रूर दुनिया।
और ब्रह्मा के लिखे को मैं भला कैसे मिटा दूं ?
भाग्य में जो है तुम्हारे दोष वह कैसे हटा दूं ?
इसलिए यह विसंगतियां झेलने को,
तुम करो तैयार मन को,
और मैं अपने करूंगा।
तुम पुनः बोलीं कृपा कर छोड़ दो हमको हमारे घर
बड़ा एहसान होगा।
सोचता मैं रह गया मुझसे गलत कुछ हो गया,
अंततः पहुंचा दिया मैंने तुम्हारे घर तुम्हें।
आज भी समझा नहीं क्या भाव थे मन के तुम्हारे,
थी दया आई कि आया क्रोध था मुझ पर तुम्हें।
या कि दोनों भाव थे मिश्रित तुम्हारी रुक्षता में,
प्रश्न मुंह बाए खड़ा यह आज भी सम्मुख हमारे।
सोचने को आज भी होता विवश है मन हमारा,
आज भी हम को लुभाते हैं वही सुख-दुख हमारे।
याद ना हो तो इसे फिर याद कर लो आज तुम,
इसलिए लिख दे रहा हूं।
दोष मेरा सही पर कुछ तो चुकाओ ब्याज तुम,
इसलिए लिख दे रहा हूं।
अब न दुनिया से छुपा पाओ सहज यह राज तुम,
इसलिए लिख दे रहा हूं।
इसलिए लिख दे रहा हूं ताकि हो आभास तुमको,
प्रेम की वह डोर अब भी पूर्णतः टूटी नहीं है।
इसलिए लिख दे रहा हूं ताकि हो विश्वास तुमको,
जो बंधी थी गांठ वह संपूर्णतः छूटी नहीं है।
बुदबुदा उट्ठें तुम्हारे होंठ भी यह गीत पढ़कर,
रीझ वह,वह खीझ, तुमको भी बराबर याद आए।
गुनगुनाता है तुम्हें जिस भांति मेरा मन निरंतर,
ठीक वैसे ही तुम्हारा मन मुझे भी गुनगुनाए।
सिर्फ मैं ही क्यों करूं इस प्रेमगाथा की विचर्चा,
पक्ष अपना, आप अपने ,आज तुम भी तो रखो कुछ!
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ!
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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