Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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याद मैं ही क्यों करूं सब याद तुम भी तो करो कुछ

 
याद मैं ही क्यों करूं सब याद तुम भी तो करो कुछ
भाग -1
याद मैं ही क्यों करूं सब याद तुम भी तो करो कुछ

एक गाथा बन चुका है प्रेम अपना,
 बात यह बीते दिनों की हो चुकी है।
वेगपूर्वक काल आगे बढ़ गया है,
जिंदगी अब अर्थ अपना खो चुकी है।

वह गली जो आहटें मेरी पकड़ती दूर से थी,
आज वह आवाज भी मेरी नहीं पहचानती है।
खटखटाए बिन कभी कुंडी खटक जाती रही जो,
थाप वह मेरे करों की भी कहां अब मानती है।

 बंद दरवाजा हमेशा के लिए जो हो गया है,
रात्रि के अंतिम प्रहर तक राह तकता था सदा वह,
सांझ ढलने जा रही हो सूर्य उगने जा रहा हो,
मग्न निद्रा जग भले हो,किंतु जगता था सदा वह।

तुम नहीं दोगी गवाही तो नहीं दो, ना सही!
काम यह मेरी अकेली एक कविता कर सकेगी।
कान अपने, आंख अपनी मूंद लो तो मूंद लो,
रोम छिद्रों से तुम्हारे यह पहुंच तुम तक रहेगी।

शब्द जो मैं लिख रहा हूं वह मरण धर्मा नहीं है,
ध्वनि नहीं मरती कभी।
और अक्षर आज के दिन हेतु ही अक्षर हुए हैं,
यह नहीं मिटते कभी।

ब्रह्म हैं परब्रह्म हैं यह।
अब यही देंगे गवाही।
प्रेम को मेरे प्रमाणित अब करेगी,
पृष्ठ पर बिखरी सियाही।

मैं कहूंगा तुम वही हो जो कि मेरा नाम लेकर,
थीं दिवस प्रारंभ करती।
मैं कहूंगा तुम वही हो जो प्रतीक्षा में निपुण थीं।
तुम वही हो जो हमारी कल्पनाओं में सगुण थीं।
मैं वही हूं जो तुम्हारी कल्पनाओं में  सगुण था।

रेत पर लिखकर हमारा नाम तुमने कब मिटाया,
पर हृदय पर जो लिखा था,
स्यात् वह अब मिट चुका है।

एक दिन कविता लिखी थी 'मैं तुम्हें मरने न दूंगा',
 रीझकर तुमने पचासों बार वह मुझसे सुनी थी।
देख लो जिस बात कायम था वचन पर कल तलक मैं,
आज भी हूं ।
वाकई मैंने तुम्हें अब तक नहीं मरने दिया है।
भोग कर पीड़ा ,घुटन ,संत्रास सारा, वज्र कर मन,
आज तक तुम को निगाहों से नहीं गिरने दिया है।
मात्र अपनी ही नहीं प्रत्युत् समूचे इस जगत की।

क्योंकि मैंने प्रेम जो तुममें निहारा था कभी वह, कल्पनाओं से परे था।
मांग में सिंदूर जो तुमने भराया था कभी वह,
अपेक्षाओं से परे था।

 हाथ में सिंदूर की डिब्बी थमा,
 प्रेम के अतिरेक में निज लोचनों को मूंदकर;
मांग भरवाई कभी थी याद है?
या कि बैठी हो उसे भी सर्वदा को भूल कर।

 'सेल्फ' वह देगी गवाही, तुम नहीं दो, ना सही;
 मांग वह देगी गवाही,तुम नहीं दो, ना सही;
भावविह्वल उस दशा में पांव जिन हाथों छुए थे,
हाथ वह देंगे गवाही, तुम नहीं दो, ना सही ।

उस दशा से कुछ उबरकर बात जो तुमने कही थी,
क्या पता है आज तुम को याद हो,ना याद हो!
एक मंगलसूत्र लाकर और पहना दो गले में,
क्या पता है भूल तुम वह सब चुकी संवाद हो!

पर मुझे भुला नहीं कुछ,
क्योंकि मैं कुछ भूलने के हित नहीं जन्मा जगत में।

याद है अब भी मुझे वह पेड़ पीपल का जहां पर,
गोद में रखकर तुम्हारी शीश जो मैंने कहा था;
दुख रही होगी तुम्हारी जांघ।
तब तुमने कहा था;
चाहती हूं मैं ठहर जाए यहीं पर वक्त,मेरी,
गोद में रख सिर हमेशा के लिए लेटे रहो।
फूल से इस भार से मुझको भला क्या कष्ट होगा,
मैं समझ पाती नहीं हूं, तुम समझ पाओ, कहो!

 और वार्तालाप लंबा जो कभी थमता नहीं था,
क्या पता है आज तुम को याद हो,ना याद हो!
किंतु मुझको याद है तो याद है।

एक दिन यूं ही हुआ मन आज फिर वह पेड़ देखूं,
बिन तुम्हारे वह अकेले में मुझे कैसा लगेगा।
एक दिन यूं ही हुआ मन आज फिर ठौर देखूं,
हम जहां बैठे रहे थे ठौर वह कैसा दिखेगा?

और फिर भ्रमते भटकते ढूंढ ही मैंने लिया स्थान वह,
पेड़ भी वह है वहां पर, घास भी वैसी वहीं।
घूरता सा वह लगा फिर पेड़ पीपल का मुझे,
घास वह जीवंत होकर पूछने मुझसे लगी;
तुम अकेले आज क्या करने चले आए यहां,
 है कहां वह जो जगत में थी तुम्हें सबसे सगी।

मैं निरुत्तर था नहीं थे पास मेरे शब्द
जो मैं कह सकूं ,
अब वह नहीं मेरी रही।
घर बसा उसने लिया अपना अलग है ,
दूसरे की वह हमेशा के लिए है हो गई ।
किंतु मेरे अश्रुओं ने मौन तोड़ा,
और उसने अश्रुओं की बांच ली भाषा कदाचित्।
 कंठ के अवरोध को मेरे पकड़ कहने लगी।
अब कि जब आ ही गए हो तो यहां कुछ देर बैठो,
और जी भरकर बहा लो अश्रु ,
तुमको रोकने वाला यहां कोई नहीं है।
है हृदय पर जो तुम्हारे वेदना का भार,
उसको टोकने वाला यहां कोई नहीं है।
मैं न पूछूंगी कि तुमने पाप ऐसा क्या किया था,
जो सजा तुम को मिली यह।
क्योंकि ऐसी भी सजाओं को मनुज जीता रहा है,
जो बिना अपराध के उसको मिली हैं।
भोगियों ने भोग भोगा, योगियों ने दंश झेला,
 रीति है जग की यही, तू ही नहीं ऐसा अकेला।

पास आओ औ' फिराओ हाथ मुझ पर,
वह तुम्हें महसूस होगी।
पास आओ देर कुछ लेटो यहीं पर,
वह तुम्हें महसूस होगी।
और तुम महसूस करने ही उसे आए यहां हो;
बात यह भी जानती हूं।
त्याग ही तो प्रेम की परिणति चरम है ,
और आंसू ? हैं यही उपहार उसके।

मान उसकी बात मैं कुछ देर तक उस घास पर लेटा रहा।
वाकई मैंने किया महसूस,मेरे शीश के नीचे तुम्हारी
जानु चिर परिचित वही है,
फिर हुआ आभास मुझको बाल में जो फिर रहा है,
हाथ मेरे, हाथ चिर परिचित वही है।

हूक सी मन में उठी फिर भाव विह्वल हो गया।
कुछ पलों को फिर पुरानी मधुर स्मृति में खो गया।

क्या पता यह बात तुमको ज्ञात हो ,ना ज्ञात हो।
है बहुत संभव कि तुमको सत्य यह अज्ञात हो ।
इसलिए लिख दे रहा हूं ।
इसलिए लिख दे रहा हूं ताकि तुम भी जान पाओ,
बिन तुम्हारे बीतते हैं किस तरह दिन-रात मेरे।
किस तरह अब भी तुम्हें हर वस्तु में अवलोकता हूं,
किस तरह से घूमती हो तुम सर्वदा हो साथ मेरे।

इसलिए लिख दे रहा हूं ताकि दे पाएं गवाही,
शब्द यह जब भूलने का तुम मुझे उपक्रम करो।
इसलिए लिख दे रहा हूं ताकि चुभ जाए तुम्हें यह
बात जब तुम दूसरे से प्रेम का निज दम भरो।

सिर्फ मैं ही क्यों उठाऊं भार भारी वेदना का,
अंश पीड़ा का हमारी आज तुम भी तो गहो कुछ।
याद मैं ही क्यों करूं सब, याद तुम भी तो करो कुछ।



-गौरव शुक्ल

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