यह किसने कह दिया कि बिकती कलम नहीं बाजारों में,
यह किसने कह दिया कि चारण अब न रहे दरबारों में।
राजाओं के गुण गाने वाली परंपरा अब न रही,
अब तो राजा जो बोले कवि साबित करता वही सही।
अब न उठाती प्रश्न कलम नेताओं पर, राजाओं पर;
अब न प्रश्न उठते हैं जनता की आवश्यकताओं पर।
अब सवाल चुभने वाले दागे ही यहाँ नहीं जाते,
अब साहित्यकार जनता के मुद्दे नहीं उठा पाते।
'प्राकृत जन गुन' गाने से वाणी सिर धुन पछताती है,
कविताओं से चाटुकारिता की बू अब भी आती है।
रोजी-रोटी के मसलों पर चर्चा यहाँ न होती है,
नित्य फूट के बीज नये कविता समाज में बोती है।
कवि का सरोकार अब कोई नहीं रहा महंगाई से,
मुँह ही मोड़ लिया है अब प्रतिभाओं ने सच्चाई से।
भ्रष्टाचार देख पाने का अवसर कवि के पास कहाँ,
अन्यायों पर कलम चलाने का कवि को अवकाश कहाँ।
आज विसंगतियाँ समाज की देख कहाँ कवि पाता है,
कौन कलम का धनी किसानों की आवाज उठाता है?
कहाँ दुर्दशा पर गरीब की गये बात करने वाले?
किसे दीखते मजदूरों के हाथों पाँवों के छाले?
राजनीति को धर्म सिखाने वाले हुए विलुप्त कहाँ?
राजनीति को दिशा दिखाने वाले हुए प्रसुप्त कहाँ?
नेताओं की खुशामदी में कलमकार खो गया कहाँ?
जी हुजूर करते-करते आत्माभिमान सो गया कहाँ?
नफरत फैलाने वालों से प्रिय कवियों निपटोगे कब?
भंग एकता करने वालों पर कविता लिक्खोगे कब?
बूँदों से यदि चूके उसके बाद घड़ों ढरकाओगे ;
फिर भी अपने देश काल की नजरों में गिर जाओगे।
-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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