Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एक पत्र मुंहबोली बहन के विवाह पर

 
एक पत्र मुंहबोली बहन के विवाह पर

प्रिय बहन ऋतु, 
      असीम स्नेह! 
आज तुम्हारे विवाह का तुम्हारे ही द्वारा लिखा गया आमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। 
अत्यंत प्रसन्नता हुई। 
इस पवित्र और शुभ समाचार के श्रवण की अतीव प्रतीक्षा थी। 

मनुष्य के सोलह संस्कारों में कदाचित् सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार तुम्हारे नए जीवन का सूत्रपात करने जा रहा है।
प्रसन्नता सहज और स्वाभाविक है। 

किंतु तुम्हारे इस परम सौभाग्य के अवसर पर उपस्थित न हो सकूँगा। इसके लिए अपार खेद का अनुभव करता हूँ तथा विनयपूर्वक क्षमा प्रार्थना भी करता हूँ। 

उन्हीं दिनों यहाँ भी कुछ विवाहों के  निमंत्रण पत्र हैं। जहाँ मेरी उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है। 

क्या करूँ?? 
संयोग एक बार फिर भावनाओं के ऊपर मानो अपनी विजय की घोषणा कर रहा है। 

इच्छा होते हुए भी गृहस्थ जीवन में तुम्हारे इस आह्लादकारी प्रवेश को अपनी इन आँखों से देख न सकूँगा। अपने दुर्भाग्य और अपनी विवशता का मुझे स्वयं पश्चाताप है। 

मेरी परिस्थितियों की कल्पना और  समझ तुम्हारी मानसिकता को मेरे प्रति उदारता बरतने में सहयोग करेगी, ऐसी कामना करता हूँ। 

जीवन के इस क्रांतिकारी मोड़ पर तुम्हें मेरी हजार हजार बधाई!! लाख-लाख बधाई!!!   कोटि-कोटि बधाई!!!!
अपने हृदय की संपूर्ण गहराई के साथ तुम्हें असंख्य अशेष शुभकामनाएं!!

तुम्हारे दाम्पत्य जीवन के उज्ज्वल, अभिराम, कांतियुक्त, देदीप्यमान, तथा मधुर भविष्य की ईश्वर से मेरी अनवरत, अविराम प्रार्थना!! 

तुम्हारा पारस्परिक प्रेम लोगों के लिए प्रेरणा एवं उदाहरण की वस्तु बन जाये। तुम्हारे अनुराग की धवल पताका खूब ऊँचाई तक फहराये। 

तुम्हारा आदर और स्नेह का यथायोग्य व्यवहार  सभी से अपनापन खुद ही जोड़ लेगा ऐसा मेरा विश्वास है... 
 तुम्हारा आचरण मेरे विश्वास का संबल बने, यह मेरी लालसा भी है और तुमसे अपेक्षा भी। 

असीम भावुकता के इन क्षणों में समझ नहीं पा रहा कि किन शब्दों में अपनी भावना को व्यक्त करूँ?? 

मेरी शब्द सामर्थ्य पर से मेरा भरोसा स्वयं ही टूटता सा जा रहा है। कलम भी मानो सहमी सी है। मेरे वाक् कौशल को पसीना सा छुट रहा है। 

अपनी इस समूची भाव राशि को तुम तक पहुँचा सकने का मेरे पास यदि कोई अन्य विकल्प होता तो मैं कदापि यह कृत्रिम उपक्रम न करता। 

मैं अपनी इस अकिंचनता के विचार से भारी लघुता का अनुभव करता हूँ। 

क्या लिखूँ?? कहाँ से प्रारंभ करूँ??? हर्षातिरेक मेरी मन:स्थिति को विमूढ़ बना रहा है।।

तुम्हारा यह संबंध अजर, अमर और सनातन हो! ! 
यह चिर नवीन हो!! 
मैं इसमें सागर सी गहराई की कामना करता हूँ!! 
मैं इसमें हिमालय सी उच्चता के दर्शन करना चाहता हूँ!! 

इसका माधुर्य कभी फीका न हो, 
इस की गरिमा कभी धूमिल न हो!! 

इन्हीं सब कामनाओं के साथ, 
तुम्हारी इस सौभाग्य यात्रा में तुम्हें साहस और धीरज बँधाता हुआ.. तुम्हारी समस्त बलाएँ लेता हुआ..... मैं प्रतिपल और प्रतिपग तुम्हारे साथ हूँ।। 
          एतदर्थ - 
       तुम्हारा भाई - 
      गौरव शुक्ल 
      मन्योरा

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