Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हर जगह तुम हो समाहित

 

मैं तुम्हें महसूस करता हूँ किताबों में, कलम में,
गीत,गज़लों में, रुबाई, मुक्तकों में।
छंद में भी, वाक्य में भी, शब्द में भी,
हर जगह तुम हो समाहित। 

 तुम प्रवाहित हो हमारी धमनियों में रक्त बनकर,
चेतना बनकर हमारे प्राण में तुम डोलती हो।
इंद्रियाँ पाँचों तुम्हें महसूस करती हैं निरंतर,
औ' तुम्हीं मेरी गिरा में सज सँवर कर बोलती हो। 

देह हूँ मैं और तुम उस देह की आत्मा सरीखी,
नित्य प्रति के कर्म में मेरे तुम्हारा वास है कुछ इस तरह,
ज्यों इक्षु में रस,अग्नि में उत्ताप, सरिता में लहर हो।
मैं पुरुष हूँ, तुम प्रकृति हो,
हो रही है सृष्टि संचालित इसी अनुबंध से।
तुम अनेकानेक नारी, मैं अनेकानेक नर हूँ,
है समूचा विश्व अनुप्राणित इसी संबंध से। 

यह जगत विस्तार है मेरे तुम्हारे रूप गुण का,
तुम नहीं सीमित वहाँ तक हो जहाँ तक दीखती हो।
मैं नहीं सीमित वहाँ तक हूँ जहाँ तक दीखता हूँ।
मृत्यु के उपरांत भी जीवित रहेंगे हम सहस्रों वर्ष,
जब तक यह धरा जीवित रहेगी,
यह गगन जीवित रहेगा।
भाव यह जीवित रहेंगे,
प्रेम यह जीवित रहेगा।
जब तलक जीवित रहेगा स्त्री पुरुष के मध्य आकर्षण,
तथा जीवित रहेगा वह समर्पण,
जो कि नारी भूल निज अस्तित्व को,
सर्वस्व अपना वार देती है पुरुष पर।
वह समर्पण, है नहीं जिसमें अहं का बोध रत्ती भर कहीं भी,
है नहीं निज बोध का अवरोध रत्ती भर कहीं भी।
जानता है जो लुटाना और लुट जाना। 

यह सनातन है, प्रकृत है,
गूढ़तम से गूढ़ है यह, है सरलतम से सरल,
सृष्टि के कुल अवयवों में व्याप्त होकर भी विरल। 

प्रेम नारी का समर्पण की पराकाष्ठा अनूठी,
और अद्भुत, और अनुपम। 

तोल पाये जो तुला इसको नहीं अब तक बनी वह,
माप पाए जो इकाई, वह नहीं अब तक बनी है।
मात्र कल्पित, मात्र अनुभवगम्य है आकार इसका,
स्रोत है पीयूष का यह, शक्ति है, संजीवनी है। 

तुम वहाँ हो, भावना कोमल जहाँ,
तुम वहाँ हो स्नेह है निश्छल जहाँ। 

है वहाँ नारी जहाँ तप त्याग है,
है वहाँ नारी जहाँ अनुराग है।
है वहाँ नारी जहाँ बलिदान है,
है वहाँ नारी जहाँ उत्थान है।
हैं जहाँ पर सभ्यता के उच्चतम आदर्श, नारी है वहाँ।
विकृत मूल्यों से जहाँ पर चल रहा संघर्ष, नारी है वहाँ। 

इसलिए ही मैं तुम्हें महसूस करता उन प्रयत्नों में सकल हूँ,
जो मनुजता को नया आयाम देने हेतु होते।
जो धरा पर स्वर्ग सा सौन्दर्य लाने हेतु होते।
और चेष्टाएँ समूची,
जो कि जीवन को बनाने के लिए खुशहाल की जाती रही हैं
या कि की जाती रहेंगी,
मैं तुम्हें महसूस करता हूँ वहाँ। 

हैं जहां संभावनाएं तुम वहाँ हो।
हैं जहां पर प्रेरणाएं तुम वहाँ हो।

 मैं तुम्हें महसूस करता हूँ उषा की अरुणिमा में,
उदित होते सूर्य में, उसकी कनकमय रश्मियों में
और उसके शुभ्र दिव्यालोक में।
कांत कोमल किसलयों में, दूब पर पसरी तुहिन में,
पक्षियों के कलरवों, मृगशावकों की ओक में। 

चाँद तारों में मुझे होता तुम्हारा भास है,
हर सुगंधित पुष्प पर लगता तुम्हारा वास है। 

रीझ उठता हूँ तुम्हारे इस वृहत्तम रूप पर,
कर बढ़ाकर दृश्य को इस, भेंट लेना चाहता।
और छितराई चतुर्दिक इस सुधा का पान कर,
जन्म-जन्मों की तृषा को मेट लेना चाहता। 

कामनाओं का महोदधि है पुरुष का प्रेम,
जिसको ज्ञात है पाना तथा पाते चले जाना। 

चिरतृषित ऐसा कि जिसकी प्यास मिटती ही नहीं है,
थामने से भी न जिसकी लालसा का अश्व थमता।
केहरी जैसा भरा चापल्य है जिसके चरण में,
शस्य-श्यामल काननों में मत्त कुंजर सा भटकता। 

यह गगन जो देखती हो रहा झुकता धरा पर,
बाँधता चारों दिशाओं से मही को बाहुओं के पाश में।
दीखता है घोर लालायित विवश हो निज प्रकृति से,
मैं वही हूँ ।
तत्वतः वह ही पुरुष है। 

कामनाओं पर हमारा जोर चलता ही नहीं है।
लोभ सौरभ लूट लेने का सँभलता ही नहीं है।
भिन्न हूँ मैं किस तरह तुमसे, विषय यह भी रुचिर है। 

मैं पथिक हूँ और तुम गंतव्य हो।
यत्न हूँ मैं, और तुम प्राप्तव्य हो। 

प्राप्त करना चाहता हूँ मैं तुम्हें हर मूल्य पर,
मन तथा मस्तिष्क पर अधिकार पाना चाहता।
है भरा मुझ में अहं नख से शिखा के छोर तक,
एक पल को भी न तुमसे दूर जाना चाहता। 

चाहता हूँ इस धरा का कुल विभव वैभव तुम्हारे हाथ पर रख दूँ। चाहता हूँ जीतकर तीनों भुवन कर दूँ तुम्हारे नाम। 

चाहता हूँ मैं हवाओं पर तुम्हारा नाम लिख दूँ।
तुंग पर्वत श्रृंखलाओं पर तुम्हारा नाम लिख दूँ।
चाहता हूँ मैं घटाओं पर तुम्हारा नाम लिख दूँ।
चाहता हूँ मैं समय की ताल पर लिख दूँ तुम्हारा नाम।
चाहता हूँ मैं नियति के भाल पर लिख दूँ तुम्हारा नाम। 

स्वप्न पलते हैं हमारे लोचनों में अनगिनत लेकर तुम्हें।
कल्पना में लीन हूँ लेकर तुम्हें आठों पहर आपादमस्तक।

है जहाँ उन्माद मैं हूँ, सिंधु का हूँ ज्वार मैं।
है जहाँ तूफान मैं हूँ, हूँ ज्वलित अंगार मैं। 

दृष्टि भी तुम पर किसी की जाय पड़ तो
रक्त मेरा खौल उठता है।
छू न ले कोई तुम्हें अतिरिक्त मेरे,
सोच कर भी वक्ष फटता है। 

इस विषय में है बड़ी संकीर्ण मेरी मानसिकता,
है नहीं इस क्षेत्र में स्वीकार हस्तक्षेप तिल भर।
है बड़ा निष्ठुर पुरुष का प्रेम।

है जहाँ पर क्रूरता यह, मैं वहाँ।
है जहाँ संकीर्णता यह, मैं वहाँ।
है न किंचित ग्लानि अपने इन विचारों पर मुझे।
बल्कि है अभिमान अपने इन विचारों पर मुझे। 

सींचती हो तुम नियम से,
स्नेह का अविभाज्य अपने नीर देकर,
नित्य मेरे इस अहं के वृक्ष को।
तुम दिया करतीं इसे पोषण स्वयं के आचरण से और निष्ठा से हमेशा।
इस तरह वह और पुष्पित और होता पल्लवित है। 

है नहीं होता कभी पतझार इसमें,
दामिनी नभ से तड़प कर क्यों न टूटे।
है सजा रहता सदा मधुमास इस पर,
हों कुपित देवेन्द्र या गोविंद रूठें। 

और मैं महसूस करता हूँ कि मेरा शीश गर्वोन्नत सदा है इसलिये ही क्योंकि तुम हो।
गौरवान्वित हूँ तुम्हें पाकर। 

सोचता हूँ है तुम्हारे बिन नहीं अस्तित्व मेरा,
शून्य रहता शेष खुद से यदि घटा दूं मैं तुम्हें।
व्योम सा विस्तीर्ण होता किंतु हूँ पाकर तुम्हें मैं,
चाहता हूँ मौर सा सिर पर सजा लूँ मैं तुम्हें। 

धारणा कर यह मदिर अभिभूत होता जा रहा हूँ।
भावना निस्सीम से निज बोध खोता जा रहा हूँ। 

चाहता हूँ मैं तुम्हें महसूस करता रहूँ यूँ ही,
चाहता हूँ तुम मुझे महसूस करती रहो यूँ ही।
हाथ थामे एक दूजे का सदा चलते रहें।
एक दूजे के नयन में स्वप्न बन पलते रहें। 

छँट तिमिर जाये समूचा और आये नव विहान।
प्रेम यह मेरा तुम्हारा हो जगत् के हित प्रमाण।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा

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