क्या जानो मैं क्यों हँसता हूँ।
(१)
भेद न भीतर का खुल जाये,
मन की बात न बाहर आये,
कोई मेरी थाह न पाये ;
अपना असली रूप छिपाने को नित नये स्वाँग रचता हूँ।
क्या जानो मैं क्यों हँसता हूँ।
(२)
इस भागती हुई दुनिया में,
ऐसा कौन मनुष्य जहाँ में,
जो रुचि ले आपकी व्यथा में ;
इसीलिए दुख अपना अपने ही दिल तक सीमित रखता हूँ।
क्या जानो मैं क्यों हँसता हूँ।
(३)
इतना दर्द मिला जीवन में,
हर कामना रह गयी मन में,
कोई फूल न खिला चमन में ;
सूख गये आँसू ही अब तो मजबूरी में खुश लगता हूँ।
क्या जानो मैं क्यों हँसता हूँ।
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गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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