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मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन

 

मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन



मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन, 
तुमने मेहमानों जैसा सत्कार किया।
(1)
मेरे विथकित प्राणों को अवलंब मिला, 
जीवन जीने की आकांक्षा पुनः जगी। 
मँझधारों में भटक रही मेरी नौका, 
सही घाट पर जाकर के अंततः लगी। 

मैं प्रतिमा पर अर्घ्य चढ़ाने आया था, 
तुमने प्रकट देवता सा व्यवहार किया। 
मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन, 
तुमने मेहमानों जैसा सत्कार किया। 
(2)
दो मीठे बोलों के लिए तरसते थे, 
उन कानों में; मधु का घट घोला तुमने। 
पाई-पाई को मोहताज रहा हो जो, 
उसे स्वर्ण मुद्राओं से तोला तुमने। 

कुशल-क्षेम तक नहीं पूछने वाला था, 
जिसका कोई;  उससे तुमने प्यार किया। 
मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन, 
तुमने मेहमानों जैसा सत्कार किया। 
(3)
जैसे कोसों फैले हुए मरुस्थल में, 
कल्प वृक्ष की छाया पा जाए कोई। 
जैसे किसी दरिद्र दीन की आँखों को, 
माया का भंडार दिखा जाए कोई। 

कुछ वैसे ही मेरे जीवन में आकर, 
तुमने सुरभित सपनों का संसार किया।
मैं आया था द्वार तुम्हारे याचक बन, 
तुमने मेहमानों जैसा सत्कार किया।
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-गौरव शुक्ल

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