मैं कवि नहीं हूँ
क्योंकि आजके कवियों की पीढ़ी मुझे कवि नहीं मानती!
यह पीड़ा है आजकल के तमाम अच्छे कवियों की।
समस्या है सोशल मीडिया,
उन्हें लाइक और कमेंट्स नहीं मिलते और बेहद दुर्भाग्य से वह ऐसा फील कर बैठते हैं।
पर यह क्यों हो
क्या आप कवि कहलाने के लिए कवि बने थे?
क्या आप चंद आत्ममुग्धों से सराहना न पाने की इच्छा से दुखी हैं?
क्या आपको यह भी पता नहीं है कि यहाँ कविता नहीं फोटो देखकर लाइक आते हैं(एक और वजह जेंडर भी हो तो माफ करें)
और यदि आप इन क्षुद्र वजहों से दुखी हैं तो पहले यह जान लीजिए कि आज की पीढ़ी कविता पढ़कर नहीं कविता सुनकर कवि हुई है.
वह मंचीय कवि पात्रों की नकल करके कवि हुई है.
वह भावना के स्तर पर सतही है.
उसकी समझ में साहित्य मंच तक सीमित है.
वह तालियाँ पीटना जानती है प्रायः पिटवाना भी.
अच्छी वक्तृता शैली को उसने अच्छी कविता शैली समझ लिया है।
पर गहरे मामलों की व्याख्या करते वक्त हमें उनके उदाहरण याद नहीं आते बल्कि तुलसी सूर और कबीर ही याद आते हैं.
क्यों?
क्योंकि वह सुनी सुनाई बातें करते हैं.
उनके भीतर से जहाँ से कुछ नया आना चाहिए आ ही नहीं पा रहा।
उसने न शिशुपाल सिंह शिशु को पढ़ा है न नेपाली को.
महादेवी और प्रसाद को उसने कोर्स में मजबूरी में पढ़ लिया है पर समझ नहीं सका।
पढ़ीस, बंशीधर शुक्ल और रमई काका के उसने नाम भर सुने हैं.
सनेही, मधुप और सारस्वत से उसकी स्मृति का दूर दूर तक कोई नाता ही नहीं हैं।
पुनश्च यह पीढ़ी कविता पढ़कर नहीं कविता सुनकर कवि बनी है।
इसलिए इस पर विचार किये बगैर आप लिखते रहिये
आगे आने वाली पीढ़ी निस्संदेह ज्यादा होशियार होगी।
इसलिए कविता पढ़ना चाहते हैं तो कवि सम्मेलनों की ओर नहीं किताबों की तरफ मुड़ जाइये.
कवि (सचमुच के) बनना चाहते हैं तो भी किताबों की ओर आंखें कीजिए.
आज भी मेरी नजर में ढेर सारे कवि ऐसे हैं जो सोशल मीडिया में कहीं exist नहीं करते पर मैं उन्हें पूरे आत्मगौरव के साथ कवि कह सकता हूँ।
वह मौलिक हैं
वह भावुक हैं
वह चिंतक भी हैं
उनके पास दर्शन भी है
वह मनुष्य के मन का विज्ञान भी जानते हैं
वह गहरी बातों को सरल शब्दावली में उतार भी सकते हैं,
उनकी दृश्टि संवेदना के ज्यादा गहरे स्तर को स्पर्श करती है.
खैर....
आज यहीं तक
शब्द कम हैं पर कहना ज्यादा चाहता था.
सही लगे तो सही न लगे तो अपने घर खुश रहें
सविनय.-
गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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