Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं मरघट में बैठे-बैठे सोच रहा हूँ

 
मैं मरघट में बैठे-बैठे सोच रहा हूँ।

अभी चार कंधों पर चढ़कर जो आया है, 
कुछ क्षण पहले तक इसका भी अपना घर था। 
 कुछ क्षण पहले इसकी भी अपनी दुनिया थी, 
 कुछ क्षण पहले इसका अपना यही नगर था। 

कुछ क्षण पहले तक यह भी बीवी बच्चों पर, 
अपनी जान छिड़कता था अपना कह-कह कर। 
उनकी प्यारी भाव भंगिमा देख- देख कर, 
होता था दिन में सैकड़ों बार न्योछावर। 

इसको भी लगता था मेरे बिन यह दुनिया,
अपनी स्वाभाविक गति से किस तरह चलेगी? 
उसके बीवी बच्चे कैसे जी पाएँगे ? 
बिन उसके कैसे उनकी जिंदगी कटेगी? 

घर की सब्जी से लेकर कपड़ों-लत्तों तक- 
की संपूर्ण व्यवस्था कैसे हो पाएगी? 
उनके पढ़ने लिखने से लेकर शादी तक- 
का जिम्मा लेने को कौन शक्ति आएगी? 

जाने ऐसे कितने ही प्रश्नों के उत्तर, 
इसमें जीवन की लालसा जगाए होंगे। 
डरता होगा मरने की कल्पना मात्र से, 
नयनों में कितने ही स्वप्न सजाए होंगे। 

किंतु काल की गति को कौन जान पाया है? 
जीवन कितने दिन का है यह किसने देखा? 
कब यमराज उठाकर चल देंगे धरती से, 
किसे ज्ञात है इस जगती में इसका लेखा? 

मृत्यु! किसे कब समय बता कर के आई है? 
नियति- नटी ने कब अवसर उपयुक्त निहारा? 
जब आई वह आई है अपनी मर्जी से, 
मौका बेमौका इसने कब कहाँ विचारा? 

यह भी रोते और बिलखते अपने परिजन, 
आज छोड़ आया है सदा- सदा की खातिर। 
अब उनका जीवन आगे किस तरह चलेगा, 
इसमें इसका हस्तक्षेप न अब कोई फिर। 

अभी लाश पर रख इसकी लकड़ी के गट्ठर, 
अग्नि चिता को कुछ पल में दे दी जाएगी। 
जिस शरीर से इतना अधिक मोह था इसको 
उसकी राख मात्र ही यहाँ नजर आएगी। 

फिर दुनिया चल देगी अपनी उसी चाल से, 
जिस गति से वह युग - युग से चलती आई है। 
शीघ्र सीख लेंगे जीना इसके घर वाले-
इसके बिना, यही इस जग की सच्चाई है। 

फिर उत्सव होंगे, फिर बारातें आएँगी, 
फिर पुरजन परिजन समस्त उत्साहित होंगे। 
फिर परंपराएँ सारी पूर्ववत निभेंगी, 
फिर सब विधि, व्यवहार, नियम आधारित होंगे। 

 मिला जुला कर कुल कुछ भी तो नहीं रुकेगा, 
होनी होगी पत्थर पर उभरे अक्षर सी। 
लक्ष्य किए थे इसने जो निश्चित निर्धारित, 
उनकी सत्ता होगी मात्र रेत के घर सी । 

तब इसके उन मिथ्या भावों का क्या होगा, 
जो कि पीठ पर यह अपनी लादे चलता था? 
फिर इसका दायित्व बोध वह कहाँ टिकेगा? 
जिसके भार तले इसका कंधा दबता था? 

पैदा होने से लेकर के मरते दम तक, 
इसने जो सपने देखे उनकी क्या कीमत? 
साज सजाने की इसने जो इच्छाएँ कीं, 
उनका ढह जाना ही है उनकी न असलियत? 

निज महत्व का इसने जो आकलन किया था, 
अपने जीवित रहते, क्या वह समीचीन था? 
उपयोगिता स्वयं की यह जो आँक रहा था, 
 वह इसका अनुमान नहीं आधारहीन था? 

मैं मरघट में बैठे-बैठे सोच रहा हूँ, 
यह मनुष्य आखिर इतना भोला क्यों कर है? 
इतना मोह विराट, अपरिमित ममता इतनी, 
क्यों इसको अपनी क्षणभंगुर काया पर है? 

क्यों विशेष अपने को इस ने मान लिया है, 
क्यों सोचा यह जग इस पर कुछ आधारित है? 
क्यों सोचा इस की छाया में पलता कोई, 
क्यों सोचा कि व्यक्ति कोई इस पर आश्रित है? 

मैं मरघट में बैठे-बैठे सोच रहा हूँ, 
इस मनुष्य का कितना अधिक संकुचित मन है? 
सात पीढ़ियों का जीवन सुखमय करने को, 
रखता कितना जोड़-तोड़ कर ज्यों-त्यों धन है। 

अपने बच्चों के भविष्य की सोच सोच कर, 
सारा जीवन कैसे खपा दिया करता है। 
वास्तव में जीना चाहिए इसे जो जीवन, 
वह कोई लाखों में एक जिया करता है। 

बात सत्य है उतनी ही, जितनी कड़वी है 
कोई लिखे, लिखे, न लिखे मैं लिख देता हूँ । 
ऐसा जीवन जीने वालों का अमर्ष कुल, 
अपने सिर माथे प्रसन्नता से लेता हूँ । 

पशु - प्रवृत्ति के जैसे आप-आप ही चरना, 
प्रकृति हुई जा रही आज के इंसानों की। 
लज्जा आती कभी, कभी हैरानी होती, 
देख देख कर लोलुपता इन नादानों की। 

सीमित है परिवार हुआ बीवी बच्चों तक, 
पिता, पिता न रह गया, रही न माता, माता। 
 भाई ही भाई का सबसे बड़ा शत्रु है, 
देश जगत से रहा न शेष हृदय का नाता। 

 जबकि ज्ञात है सब को अंतिम सत्य जगत का, 
 सारा जीवन चलकर मरघट तक आना है। 
अंतिम एक ठिकाना सबका मात्र चिता है, 
और देह का उस पर धू-धू जल जाना है। 

 कफन कमाने तक सीमित है शक्ति हमारी, 
 नहीं अधिक चींटी से कुछ अस्तित्व हमारा। 
 अपने मन में बड़े बनें हम चाहे जितने, 
व्यर्थ, न अनुकरणीय अगर व्यक्तित्व हमारा। 

जाओ! मित्र अभागे जाओ इस दुनिया से! 
पुनर्जन्म कर ग्रहण पुनः धरती पर आओ। 
 इस जीवन में कर न सके जो कार्य अपेक्षित, 
उन्हें लौटकर अगले जीवन में निपटाओ।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा 

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