Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मैं तुम्हें मरने न दूँगा

 



शीर्षक - मैं तुम्हें मरने न दूँगा



मैं तुम्हें मरने न दूँगा। 

कल कहा तुमने कि मेरी जिंदगी ज्यादा नहीं है ,
मैं हमेशा साथ दूँगी सत्य ये वादा नहीं है।
छोड़ कर तुमको किसी दिन मैं गगन में जा छिपूँगी, 
दृष्टि जब ऊपर करोगे मैं सितारों में दिखूँगी। 

और जाकर के वहाँ भी पथ निहारूँगी तुम्हारा, 
मैं तुम्हारे हित सजाऊँगी लगन से स्वर्ग सारा। 
फिर तुम्हारा आगमन होगा दुखों के दिन कटेंगे, 
फिर यही बातें चलेंगी, फिर यही चर्चे चलेंगे। 

फिर न लेंगी नाम बातें, खत्म होने का हमारी, 
फिर सिखाना यत्नपूर्वक संधियों के भेद सारी। 
कर्मधारय तत्पुरुष के अंतरों को फिर बताना, 
व्याकरण के शेष कुछ अध्याय ढँग से सीख आना। 

कुछ सिखाते वक्त मुझको फिर न जाना गड़बड़ा तुम, 
देख मेरी ओर मत जाना वहाँ भी हड़बड़ा तुम। 
जल्दियाँ घर लौटने की छोड़ आना कर कृपा तुम, 
काम आवश्यक सभी आना वहाँ पर ही भुला तुम। 

व्यस्तता अपनी समूची, भूमि पर ही त्याग आना, 
और, हाँ, मुझ पर लिखी प्रत्येक कविता साथ लाना। 
खूब फुर्सत में रहूँगी, खूब फुर्सत से सुनूँगी,
मैं वहाँ पर तो न कोई नौकरी करती फिरूँगी। 

तब वहाँ हर गीत का संदर्भ तुम विस्तृत बताना, 
टाल जाते हो यहाँ जैसे, वहाँ मत टाल जाना।
कौन सी घटना हुई थी, गीत जब तुमने रचा यह? 
क्या निकल मुँह से गया मेरे कि तुमने लिख दिया यह? 

कौन सी थी बात कहनी, जो कि कह पाते न थे तुम? 
और मुझसे बिन कहे वह बात रह पाते न थे तुम? 
तब बताना भाव वह, किस गीत में व्यंजित किया था? 
और उसको हाथ में मेरे कहाँ, किस दिन दिया था? 

 हाथ काँपे थे तुम्हारे उस समय किस भाँति, कहना? 
दिल धड़कता किस तरह था, बोलना, मत मौन रहना? 
कौन से उद्देश्य से किस गीत की रचना हुई कब? 
गुप्त रह जाये न कोई भेद, कह देना वहाँ सब। 

सत्य में आकर वहाँ भी घोलना संदेह मत तुम, 
प्यार से डरना वहाँ मत, फिर छिपाना स्नेह मत तुम। 
हर छिपावट, हर बनावट, कर वहीं आना विसर्जित, 
हर द्विधा, हर द्वंद्व, कर जाना इसी जग को समर्पित। 

ताकि असमंजस वहाँ पर, फिर नया तैयार मत हो, 
प्यार के इजहार में वह जिंदगी बेकार मत हो। 
सोच कर आना कि प्रायिकता पढ़ी किस 'क्लास' में थी, 
कब समुच्चय था सिखा, ज्यामिति रटी किस 'क्लास' में थी। 

फिर समीकरणों सरीखी यह जटिल बातें तुम्हारी, 
चौबिसों घंटे सुनूँगी, सोच लाना ढेर सारी। 
आयतन के प्रश्न सी गहरी निगाहों में डुबाना, 
तुम वहाँ हर लाज, हर संकोच मन से भूल जाना। 

कुछ गणित के प्रश्न मैं भी छाँट करके रख रखूँगी 
जिस तरह करती यहां चर्चा, वहाँ पर भी करूँगी। 
खुशनुमा माहौल में हम साथ में हर क्षण रहेंगे, 
फिर नहीं 'जय राम जी की'  हम विमन कहते फिरेंगे। 

काँप भीतर तक गया मैं, बात सहसा सुन तुम्हारी, 
 बोल पाया बस यही, मन में जुटा कर शक्ति सारी-
 जिंदगी अपनी दुखों से मैं तुम्हें भरने न दूँगा, 
जब तलक जीवित यहाँ हूँ मैं तुम्हें मरने न दूँगा। 

छोड़कर मुझको अकेले किस तरह तुम जा सकोगी? 
सर्वथा नव पंथ पर तुम, क्या न बिन मेरे, थकोगी? 
धर्म संकट सा हृदय में रंच आएगा नहीं क्या? 
 प्यार मेरा, सच कहो, तुमको सताएगा नहीं क्या? 

और उत्तर हाँ अगर, तो किस तरह तुम जा सकोगी? 
 सर्वथा नव पंथ पर पग क्या बिना मेरे धरोगी? 
 बीच पथ में छोड़ तुमको यों चले जाने न दूँगा, 
 मैं तुम्हारे पास तक यमराज को आने न दूँगा। 

 जिंदगी क्या है? मुझे जब तुम मिलीं, तो जान पाया, 
हर व्यथा उस दिन मिटी, जिस दिन तुम्हारे पास आया। 
साथ यह मेरा तुम्हारा क्या बिना उपयोग ही था? 
 एक घटना मात्र आकस्मिक, निरा संयोग ही था? 

 क्या मुझे तुम मिल गईं, भगवान की अनुमति बिना ही? 
 पुण्य मेरा कुछ न कुछ आखिर गया होगा गिना ही-
 रत्न यह अनमोल, मैंने, मुफ्त तो पाया न होगा? 
भाग यह हीरा हमारे व्यर्थ तो आया न होगा? 

चंद रोजों में हुआ अपकर्म क्या मुझसे अचानक? 
 हो गई त्रुटि कौन सी? क्या पाप कर बैठा भयानक? 
हो गया जो रिक्त मेरे पुण्य का ही कोष सारा, 
छीन लेगा जो विधाता साथ ही मुझसे तुम्हारा। 

 मैं कहूँगा, कर कृपा, मेरी बही फिर से उठाओ, 
 कर्मफल संपूर्ण मेरे, फिर ज़रा जोड़ो घटाओ, 
 और देखो, हो गई गड़बड़ हिसाबों में कहाँ पर? 
 छिप गए सत्कर्म मेरे, कौन पुस्तक में, कहाँ पर? 

 गड़बड़ी का दंड भुगतूँ मैं, हिसाबों की, भला क्यों? 
मौन रहकर के, सहूँ अन्याय, फिर जाऊँ छला क्यों? 
 है मुझे विश्वास, मेरी ही विजय, होकर रहेगी, 
देवता को, लेखनी अपनी, बदलनी ही पड़ेगी। 

किंतु, यदि निकला न कुछ, अपलाप का परिणाम मेरे,
जिद हुई झूठी, न आया तर्क कोई काम मेरे, 
 हार फिर भी मानकर सर्वस्व यों हरने न दूँगा, 
 जब तलक जीवित यहाँ हूँ, मैं तुम्हें मरने न दूँगा।। 

 तब दयानिधि से समय का दान माँगूँगा वहीं पर, 
 आचरण की हर अशुचिता, शेष, त्यागूँगा वहीं पर, 
धर्म ग्रंथों का सभी, फिर, गहन अनुशीलन करुँगा, 
और फिर अनुसार उनके आचरित जीवन करूँगा। 

 रुष्ट देवी देवता, सारे, मनाऊँगा अहर्निश, 
मेट कर ही शांति लूँगा, मूल से, हर एक किल्विष। 
 मंत्र मृत्युंजय जपूँगा, अर्घ्य दूँगा सूर्य को नित, 
 और सब बक्री ग्रहों की, शांति का, कर यत्न समुचित, 

 कामना लंबी उमर की, मैं तुम्हारे हित करूँगा, 
 मैं तुम्हारी, हर व्यथा, हर विघ्न, हर बाधा हरूँगा। 
मंदिरों में, मस्जिदों में, मिन्नतें लाखों मना कर, 
और गुरुद्वारों तथा गिरजाघरों में सिर झुका कर, 

पाप का प्रत्येक अपने, पूर्ण प्रायश्चित करूँगा, 
ढेर सारे पुण्य, जैसे भी बने, अर्जित करुँगा। 
और फिर भगवान के दरबार में फिर से पहुँचकर, 
 प्रेम का निज वास्ता देकर, बहस कर, लड़ झगड़ कर, 

 मैं न छोड़ूंँगा, प्रयत्नों में कसर, कोई अधूरी, 
माँग लाऊँगा, तुम्हारी जिंदगी सौ साल पूरी। 
फिर इसी जग में खुशी से साथ में हम तुम रहेंगे, 
और उसके बाद भी प्रेमी, कथा अपनी कहेंगे। 

तंग फिर तुमको, बहुत दिन तक, बहुत ढँग से करूँगा, 
तुम रखो विश्वास मुझ पर, मैं तुम्हें मरने न दूँगा ।। 
             - - - - - - - - - - - - - - - 
गौरव शुक्ल 
मन्योरा 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ