मेरे इन नीरस गीतों में
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(1)
बड़ी साधना द्वारा मैंने, कुछ गीतों की रचना की थी ;
अपनी वह प्यारी सी पुस्तक, ज्यों की त्यों तुमको सौंपी थी।
तुमने उसके भाव न जाने,
उसकी खूबी बिन पहचाने;
बस आवरण निहारा सादा,
भूल गईं अपना हर वादा।
मेरी उस पवित्र मेहनत को, तुमने झटक दिया आगे से,
मुझको यों अपमानित करके, तुमने कौन प्रसिद्धि कमा ली।
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते ;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(2)
पोर पोर मेरी काया का, बस पीड़ा से जूझ रहा है;
तुमसे ही मेरा अंतरतम, आकुल हो कर पूछ रहा है -
किस में तुमने वह सब पाया,
जो मुझ में न नजर था आया?
अब क्या लिखूँ और क्या गाऊँ,
क्या अपनाऊँ क्या ठुकराऊँ?
क्या रोऊँ क्या हँस दिखलाऊँ, हँसना रोना हुआ बराबर,
यह स्वर हीन बीन अब मुझसे,और नहीं जा रही सँभाली।
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(3)
जो तेरा स्वागत करने को, घड़ी-घड़ी आतुर रहता था ;
बैठा सब सामान सजाकर, तेरी राह तका करता था।
आशा में गिनता था दिन-दिन,
तुम हो सकीं न उसकी लेकिन ;
गुजरीं उसी द्वार से होकर,
किंतु और का साथ सँजोकर।
तेरा आराधक तेरे ही, सम्मुख दीन - निहीन हो गया;
तुम्हें न आयी दया रंच भी, यह कैसी शत्रुता निकाली।
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(4)
तेरे द्वार रह गया बैठा, मैं अपना आँचल फैलाए;
लेकिन कहीं दूसरे की तुम, चुपके से झोली भर आए।
इतनी निष्ठुरता दिखला कर,
मुझको इस ढँग से ठुकरा कर ;
क्या तुमने पा लिया बताओ,
यह रहस्य अब नहीं छिपाओ।
उस उपवन की क्या सुंदरता, क्या महिमा, क्या ख्याति बढ़ेगी,
जिस उपवन को छोड़ गया हो, उसका ही चिर परिचित माली।
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते ;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(5)
जब जब मेरे द्वार किसी ने, आकर के कुंडी खटकाई;
कसम तुम्हारी हर आहट पर, मैंने समझा तू ही आई।
हर आशा बन गई निराशा,
बदल गईं सारी परिभाषा।
हा! इतना भारी परिवर्तन,
आवर्तन फिर प्रत्यावर्तन।
आखिर तुम को इस सीमा तक, था किस ने मजबूर कर दिया; जिससे अपने बीच अचानक, तुमने यह दीवार उठा ली?
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
(6)
मैंने इस दुनिया में जिस पर, सर्वाधिक विश्वास किया था;
मेरे गीतों के अर्थों को, जिसने लगभग समझ लिया था।
ओ कविता के चतुर चितेरे!
ओ पारखी कला के मेरे!
अब किस पर विश्वास धरूँ मैं?
किस से इसकी आस करूँ मैं?
मेरे दुर्भागी गीतों का, अब तो ईश्वर ही मालिक है ;
इन्हें कौन पूछेगा जग में, जब तुम ने ही दीठि फिरा ली।
मेरे इन नीरस गीतों में, यदि तुम अपना स्वर भर देते ;
सचमुच होती धन्य उसी दिन, मेरी कविता कला निराली।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
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