प्यार में तेरे मुझे बदनाम होना भी गँवारा
प्यार में तेरे मुझे बदनाम होना भी गँवारा।
डर मुझे लोकापवादों से बहुत लगता नहीं है,
और कुछ सम्मान का अपने मुझे खतरा नहीं है।
सोचता हूँ एक जीवन है मिला, जी खोल, जी लूँ,
जहर या अमृत मिले जो भी उसे दिल खोल पी लूँ।
बाद मरने के यहाँ, है कौन किसको याद करता?
बाद मरने के यहाँ, है कौन किसका ध्यान धरता?
और कहना भी अगर चाहे जमाना, तो कहे फिर,
गुण गिनाये या कि अवगुण ही बखाने पीटकर सिर।
कौन आवाजें यहाँ की कान तक किसके पहुँचतीं,
कौन निंदायें यहाँ की, हैं वहाँ किसको खटकतीं।
हर समादर हर निरादर, है यही सीमित यहाँ का,
ज्ञात है किसको नियम सच-सच बताये तो वहाँ का।
पाप है क्या? पुण्य है क्या? यह यहीं की सोच केवल,
रोज घुटना, रोज मरना, है यहीं की नीति का फल।
जंगली थे हम कदाचित, तब कहीं इससे बड़े थे,
स्यात् पहरे तब नहीं हम पर अधिक इतने कड़े थे।
सोचता हूँ, आदमी ने सभ्य होकर क्या कमाया?
हाथ केवल दाह, कुंठा, वेदना, अवसाद आया।
आत्महत्याएँ बढ़ी हैं, कुछ घुटन गहरी हुई है,
द्वेष, नफरत में लिपटकर जिंदगी ठहरी हुई है।
चाहता है मन, कथित इस सभ्यता का सिर कुचल दूँ,
जाति धर्मों में बँटी इंसानियत का रुख बदल दूँ।
धर्म क्या है, बस वही, जो रात दिन हम को लड़ाये?
जाति क्या है, बस वही, जो शत्रुता केवल सिखाये?
इन असभ्यों, बर्बरों से है नहीं आशा हमें कुछ,
फैसला लेना पड़ेगा आप ही अपना हमें कुछ।
उँगलियाँ हम पर उठेंगी, इसलिए, डर डर जियें हम?
क्या हमें दुनिया कहेगी, इसलिए यह विष पियें हम?
सोचना, अवसर मिले तो, बात पर मेरी दुबारा।
है मुझे तेरे लिए, बदनाम होना भी गँवारा।
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-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
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