Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सपनों में तो रोज-रोज तुम चली-चली आती हो

 

सपनों में तो रोज-रोज तुम चली-चली आती हो,
शांत-शांत मन में आ-आ, हलचलें उठा जाती हो।

भूल जगत् को जब निद्रा का आवाहन करता हूँ,
अलसाई-अलसाई पलकों में उसको  भरता हूँ।

तभी न जाने अंतर के किस निभृत स्थान से आकर,
आँखों में तेरी मुद्रा        बस     जाती है इठलाकर।

खनन-खनन-खन करता तेरा स्वर सुनने लगता हूँ,
जान        नहीं पाता मैं सोता हूँ अथवा   जगता हूँ।

तेरी सौम्य    सलोनी सूरत     मुझे   हिला देती है,
मेरे मन उपवन में लाखों फूल       खिला देती है।

तुम्हें बाँध लेने को   जब-जब बाहें     फैलाता हूँ,
दूर छिटककर तुम होतीं,मैं खीज-खीज जाता हूँ।

मेरी अकुलाहट निहार कर तुम हँसने लगती  हो,
ज्यों मेरे धीरज की ऊँचाई       कसने लगती हो।

आँखमिचौनी रात-रात भर यह चलती  रहती है,
मृगमरीचिका के समान मुझको  छलती रहती है।

पलकें उठा-गिरा कर, पल-पल आँखें चला-चला कर;
लम्बी-लम्बी साँस खींचकर, सिर को हिला-हिला कर-

पता न कौन देश की भाषा समझाती    रहती हो,
उल्टा-सीधा पाठ कौन सा सिखलाती रहती हो।

तेरे इन हावों-भावों    पर      ही तो न्यौछावर  हूँ,
लगता सब कुछ पा जाता केवल तुझको पाकर हूँ।

अकस्मात् सी किंतु निगोड़ी नींद टूट जाने    पर,
खुद को वैसा का वैसा ही एकाकी    पाने    पर-

व्याकुलता, वेदना, व्यथा का सागर     घहराता है,
तुझको पाने को मेरा मन तरस-तरस    जाता है।

बह चलती है आँखों से अविरल आँसू की  धारा,
तड़पा-तड़पा कर रख देता प्यारा रूप तुम्हारा ।

इच्छा करती है ,चलकर के तेरे     पास   रहूँ मैं,
तुझसे तेरी सुनूँ और कुछ अपनी कथा कहूँ  मैं।

कहूँ कि सपनों में यह आना-जाना नहीं    चलेगा,
वाहियात बातों से कोई अर्थ नहीं        निकलेगा।

यदि सचमुच ही तुमको मुझमें कुछ अच्छा लगता है,
अनचीन्हा-अनचीन्हा मुझको देख भाव  जगता  है।

तो फिर निस्संकोच देवि !     मेरे   आँगन में आओ,
किसी दिवस इस बंजर घर में स्नेह-सुधा बरसाओ।

सच कहता हूँ, तुमको अपनी पलकों   पर धर लूँगा,
दुनिया के समस्त सुख तेरे दामन में       भर  दूँगा।

                              -गौरव शुक्ल
                      मन्योरा

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