भारत की असीम मेधा के प्रतीक आदिशंकराचार्यजी
केरल के मालाबार में कालड़ी नामक स्थान पर साधारण ब्राह्मण परिवार मेंं वैशाख माह की शुक्ल पंचमी के दिन जन्मे अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्य जी संस्कृत के उद्भट प्रस्तोता, उपनिषदों की व्याख्या करने वाले, महान दार्शनिक व सनातन धर्म सुधारक थे। बहुत मुश्किल से उनको अपनी माताजी से सन्यास धारण करने की अनुमति मिली ।और अनुमति प्राप्त करने के पश्चात बिना विलम्ब किये आदि गुरु शंकराचार्य जी ने केरल से ही पैदल यात्रा करके नर्मदा नदी के किनारे पर स्थित ओंकरनाथ गये ।जहाँ पर इन्होंने गुरु गोबिंदपाद जी से योग शिक्षा तथा ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। शिक्षा पूर्ण होने पर वे गुरु से आज्ञा ले भारत के तीर्थ स्थानों के दर्शन हेतु निकल पड़े और सभी जगह साधु-संतों और विद्वानों से शास्त्रार्थ भी करते जा रहे थे तथा सब जगह वे विजय पताका फहराते रहे ।
आप के ध्यान्नार्थ उस समय भी हमारे समाज में स्त्रियां परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए ज्ञान अर्जित कर शास्त्रार्थ में भी पारंगत हो जाती थीं । इन्ही सब तथ्यों को लेकर इनके जीवन से सम्बन्धित एक रोचक घटना के बारे में संक्षेप में बताना चाहूँगा जिसके अनुसार भारत के तीर्थ स्थानों के भ्रमण के दौरान उन्हें गृहस्थ आश्रम में रहने वाले मिथिला के महापंडित मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी उभय भारती के नाम और ज्ञान की ख्याति सुनने मिली तब वे सुधीश्वर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ की सोच से उनके गांव तक पहूँचे और वहाँ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। सब कुछ तय हो जाने के बाद निर्णायक की भूमिका के प्रश्न पर शंकराचार्यजी ने महापंडित मंडन मिश्र की पत्नी भारती को निर्णायक की भूमिका निभाने को कहा क्योंकि शंकराचार्यजी को पता था कि मंडन मिश्र की पत्नी भारती विद्वान हैं। अब 21 दिनों तक लगातार हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्यजी के एक सवाल का जवाब पंडित मंडन मिश्र नहीं दे पाए तब उस निर्णायक क्षणों में अपनी न्यायशील बुद्धि व निष्पक्ष भूमिका अनुसार उसने अपने पति की पराजय घोषित करने में देर नहीं की, लेकिन इसके साथ ही भारती ने अपने पति के प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण दर्शाते हुए शंकराचार्यजी को यह कह कर कि अभी तो पंडितजी की आधी ही हार हुई है, क्योंकि ये विवाहित हैं इसलिये हम दोनों अर्धनारेश्वर की तरह मिलकर एक इकाई बनाते हैं, इसलिये मेरी पराजय के पश्चात ही उनकी पूर्ण पराजय मानी जाएगी । अतः अब आप मेरे से शास्त्रार्थ करें। इस तरह भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया । इस तरह फिर उन दोनों के बीच भी कई दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा लेकिन 21वें दिन भारती ने अपनी हार को भाँप उनसे जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान से जुड़ा एक सवाल का जबाब जानना चाहा जिसका शंकराचार्यजी पढ़ी-सुनी बातों के आधार पर जवाब तो दे सकते थे लेकिन व्यावहारिक ज्ञान के बिना दिया गया जबाब अधूरा समझा जाता, इसलिये उस वक्त हार मान भारती से जवाब के लिए छह माह का समय माँग वहां से चले गए।
इसके बाद शंकराचार्यजी ने योग के जरिए दूसरे शरीर में प्रवेश कर स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान हासिल कर जब दोबारा शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो उभय भारती को अपने जवाबों से चकित ही नहीं बल्कि विश्मित भी कर दिया और इसके बाद विद्वान उभय भारती ने शास्त्रार्थ में अपनी हार स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकी ।
उपरोक्त प्रसंग से यह तो स्पष्ट होता ही है कि ज्ञान जगत में भी पति-पत्नी मिलकर इकाई बनते हैं। आज निजी जीवन जीने के आग्रही पति-पत्नियों के लिए भी यह उदाहरण वंदनीय है। नारीयाँ घर परिवार की जिम्मेदारियां निभाते हुए ज्ञान अर्जित कर शास्त्रार्थ भी करती थी। पति-पत्नी के बीच पूरकता का भाव होता था। स्त्री-पुरुष के गुणों में कोई भेद रेखा नहीं थी।इस प्रकार इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि हमारे सनातन धर्म में अनादिकाल से नारीयाँ जीवन के हर क्षेत्र में बराबर की भागीदारी निभाती आ रही हैं ।
आदि शंकराचार्य ने देश के विभिन्न भागों में चार मठ स्थापित किये । उन्होंने ये मठ पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिका, उत्तर में बद्रीनाथ और दक्षिण में श्रृंगेरी नामक स्थानों पर बनवाये । स्वामी शंकराचार्य हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक थे । उन्होंने वेदान्त सूत्र की व्याख्या कर जनसाधारण में अद्वैतवाद के दार्शनिक मत की स्थापना की और उसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन ज्ञान बताया। यद्दपि अद्वैतवाद सर्वत्र ब्रह्मा की सत्ता को ही देखता है इसीलिए जाति पांति ऊँच नींच, अमीर गरीब का उसके लिए कोई भेद व महत्व नहीं था । इस दृष्टि से शंकराचार्य सर्वाधिक क्रन्तिकारी समाज सुधारक व मानवतावादी थे।उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का जो सूत्र दिया वह इस प्रकार है -
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।
अपना प्रयोजन पूरा होने के बाद आदि गुरु शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष की अल्पायु में ही 820 ई0 में पाल साम्राज्य के केदारनाथ, जो कि वर्तमान में भारत के उत्तराखंड राज्य में स्थित है, में संजीवन समाधि ले इस नश्वर देह को छोड़ दिया। अपने जीवन काल के इस छोटे से खंड में प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को जीवंत करने का जो काम आदि गुरु शंकराचार्य जी ने किया है वह अद्भुत एवं अविस्मरणीय है। प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को नूतन जीवन देने तथा इसको देश के प्रत्येक कोने में प्रसारित करने के लिए हिंदू पँचांग के अनुसार आदि गुरु शंकराचार्य जी की जयंती, प्रत्येक वर्ष के वैशाख माह की शुक्ल पंचमी के दिन देश के सभी मठों में विशेष हवन पूजन तथा शोभा यात्रा निकाल कर मनाई जाती है। लेकिन इस बार भी बीते साल की तरह, कोरोना संक्रमण के चलते सरकार द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों की पालना करते हुये शोभा यात्रा मठों के भीतर ही आयोजित की जायेगी।
गोवर्धन दास बिन्नानी "राजा बाबू"
बीकानेर
9829129011 / 7976870397
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