समय की आवश्यकता है संयुक्त परिवार
हमारे कृषि प्रधान देश में संयुक्त परिवार रामायण व महाभारत काल से चली आ रही प्राचीन परम्पराओं व स्थापित आदर्शों के हिसाब से चल रहे हैं । लेकिन पिछले कुछ सालों में संयुक्त परिवार से निकल लोग एकल परिवार की तरफ आकृष्ट हो रहे हैं।
आज कोरोना के इस संक्रमण काल में यह सभी को समझ में आ गया है कि घर सबसे ज्यादा सुरक्षित स्थान है हालाँकि हमारे पूर्वज तो हमेशा से ही न केवल इसे यानि घर बल्कि संयुक्त परिवार के बारे में समझाते रहे हैं।लेकिन इन बीते चालीस वर्षों में यह देखने में आ रहा है कि कई लोग अपने स्वार्थ और धनलोलुपता की वजह से कहिये या पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हो अपना संयुक्त परिवार छोड़ एकल परिवार वाला सिद्धांत को अपना लेते हैं । वे यह कदम बिना दूर की सोचे उठा तो लेते हैं लेकिन अब जब इस संक्रमण काल में एकल परिवार का एक भी सदस्य रोग ग्रसित होता है तब उन्हें पुनः अपने दादा ,दादी, नाना, नानी वगैरह द्वारा समझाई गयी बात को याद कर सोचते हैं कि उन लोगों ने हमेंं ठीक ही संयुक्त परिवार के बारे में समझाया था कि मिल जुलकर रहेंगे तो न केवल हर दुःख हो या ख़ुशी मिल बाँटगे यानि आवश्याकता पड़ने पर हमें किसी भी प्रकार के बाहरी मदद पर निर्भर रहना नहीं पड़ेगा ।
अब मैं इस कॉलम के प्रबुद्ध पाठकों को अपनी उम्र के इस पड़ाव पर एकल परिवार व संयुक्त परिवार से सम्बन्धित जो अनुभव मेेेरे ध्यान मेेंं हैंं वह सांझा करना चाहूँगा ताकि वे समय रहते स्वयं सही निर्णय ले सकें।
सबसे पहले अपने परिवार का ही उदाहरण देकर मैं यह बताना चाहता हूँ कि हम सभी भाई संयुक्त होते हुए भी अलग अलग शहरों में रहते हैं जिसका एक मात्र कारण व्यवसाय है। जबकि किसी भी तरह की नयी जगह में प्रवेश का मामला हो या किसी भी सदस्य की मृत्यु या फिर शादी विवाह हो या मायरा, जिसे भात भरना भी कहते हैं , के अलावा भी हर तरह का बड़ा सामूहिक पारिवारिक आयोजन, पर हम सभी भी सपत्निक इकठ्ठे ही नहीं होते हैं बल्कि निर्णय भी सर्वसम्मति से ले, क्रियान्वयन कर अपनी सहभागिता निभाते हैं यानि सुख और दु:ख के समय आराम से सारे काम आसानी से निपट जाते हैं जिससे किसी को कोई भी काम भारी नहीं लगता।
अब एक दूसरा उदाहरण जो इस बार संक्रमण काल में आप सभी ने भी अनुभव किया होगा कि सब जगहों से श्रमिक बिना समय गवायें, कार्यस्थल छोड़, आनन फानन में अपने अपने गावों की तरफ सारी तकलीफें झेलते हुए भी पहूचें और उनके संयुक्त परिवार के सदस्यों ने न केवल राहत की साँस ली बल्कि उनका तहेदिल से स्वागत ही नहीं किया बल्कि जब तक वे घर में रहे उनसभी की पूरी पूरी देखभाल भी की । और ये लोग भी गांव पहूँच परिवार के काम में बिना समय गँवाये अपना हाथ बंटाना शुरू कर दिया। इसी तरह श्रमिकों के अलावा कुछ ऐसे भी थे जो संयुक्त परिवार से कट कर रह रहे थे जिसके चलते मजबूरन उन्हें वहीं कार्यस्थल वाली जगह पर ही रुकना पड़ा और इसी बीच यदि कोई एक सदस्य भी संक्रमित या बीमार हुआ तो उस पर तो दु:खों का पहाड़ ही टूट पड़ा क्योंकि सब कुछ यानि दवा हो या भोजन सब व्यवस्था एक पर ही आ पड़ती है ।ऐसे लोगों को इसके अलावा भी अनेकों तरह की अन्य तकलिफों से भी रूबरू होना पड़ा है । अब एक खास तथ्य यह है कि इस बार, विशेषकर कोरोना पीड़ितों वाले एकल परिवारों को तो यह भी आभास हो गया कि पैसा के आगे संयुक्त परिवार बहुत मायने रखता है।
इस तरह लिखने को तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है और आपको इस विषय पर पढ़ने को भी बहुत कुछ मिल ही जायेगा लेकिन मैंने उपरोक्त वर्णित सशक्त उदाहरणों से आप सभी के सामने एकल परिवार व संयुक्त परिवार की एक ऐसी तश्वीर पेश करने की पूरी पूरी चेष्टा की है जिससे वर्णित लाभ-नुकसान वाले तथ्य भी अपने आप ही आपके दिमाग में आने लगेंगे। फिर भी आज के समय यानि आर्थिक युग को ध्यान में रख, पाठकों की सुविधा के लिये कुछ ब्यापक मुख्य बिन्दु जैसे अनुभव, आत्मनिर्भरता, मदद, एकता, साँझा, सामाजिक सुरक्षा, मनोवाज्ञानिक मजबूती, काम प्रतिबंध, जल्द निर्णय, कम खर्च, अधिक गोपनीयता, संचय, विनिवेश, त्यौहार वगैरह पर लाभ - नुकसान अवश्य सोच लें तो निर्णय लेने में सुविधा होगी।
अन्त में मेरा निष्कर्ष तो यही है कि संयुक्त परिवार की नींव में सहिष्णुता और निस्वार्थ भाव से आपसी सहयोग मुख्य बिन्दु हैं जिसका तात्पर्य यही है कि अगर मिलजुल कर रहेंगे तो आसानी से हर एक समस्या पर आपसी रजामंदी से समय रहते ही निजात पा सकते हैं। उपरोक्त वर्णित सारे तथ्यों को कवि लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ने अपनी इन दो पंक्तियों "एकाकी जीवन सदा, बैठा दुख की छाँव । पड़ जाते परिवार में, बरबस सुख के पाँव।।" के माध्यम से हम सभी को स्पष्ट सन्देश दे सचेत किया है।
इसके अलावा मेरे अनुभव अनुसार संयुक्त परिवार में समय समय पर अनेक स्थापित मापदंडों में भी रजामंदी से सर्वमान्य बदलाव अपनाये गए हैं । इस तथ्य को आप सभी के ध्यान में लाने यानि बतलाने का एकमात्र तात्पर्य यही है कि अभी भी, आज के परिवेश को ध्यान में रख रजामंदी से सर्वमान्य बदलाव की पूरी पूरी गुंजाईश है ।अत: हमें हमेशा ही परिवार में मिलजुल कर रहने की कोशिश करना चाहिए ताकि हम आपस में खुशी-खुशी जीवन जी सकें। इसलिये संयुक्त परिवार का हिस्सा बनें क्योंकि जब परिवार में एकजुटता रहेगी तभी एक मजबूत समाज निर्माण हो पायेगा जो आज के समय की आवश्यकता है ।
गोवर्धन दास बिन्नाणी "राजा बाबू"
बीकानेर
9829129011 / 7976870397
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नोट : आपसे सहृदय सादर विनम्र अनुरोध है कि, आपके प्रकाशन में स्थान के उपरांत लिंक/ पीडीएफ प्रेषित कराने का विनम्र कष्ट अवश्य करें,ताकि मूल प्रति संग्रहित की जा सके।
सादर धन्यवाद।
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