बंधन राखी का.
( गोवर्धन यादव.) बंधन का शाब्दिक अर्थ तो बंध जाना, कैद हो जाना, जकडा जाना होता है, बंधना भला कोई चाहेगा भी क्यों कर.? लेकिन हर कोई बांधना चाहता है. यदि बंधने वाले के मन में कोई प्यारी सी ललक जगे और बांधने वाले के मन में कोई रस की निष्पत्ति हो तो कोई भी बंध जाना चाहेगा. मछली क्या जाल में बंधकर उलझना चाहेगी ? कदापि नहीं,लेकिन जाल के साथ बंधा चारा उसे अपने सम्मोहन में बांध देता है और वह बेचारी उसमें जा फ़ंसती है. चारा यहां उसके मन में एक लालित्य जगाता है. बस उसी लालच में वह बंध जाती है. यह तो रही मछली की बात. कोई रुपसी भी भला किसी के जाल में क्योंकर बंध जाना चाहेगी?.उत्तर होगा कदापि नहीं. लेकिन वह भी प्यार के महिन बंधनों में बंध जाती है. कृष्ण ने सभी जीव-जन्तुओं को,सभी नर-नारी सहित समूचे विश्व को अपने सम्मोहन में बांधकर रखा था. वे भला क्या मां यशोदा के बंधन मे आसानी से बांधे जा सकते थे.? यहां वह मां का प्यार था, दुलार था,और भी बहुत कुछ था कि कृष्ण ने उन्हें अपने आपको बांधे जाने के लिए प्रस्तुत कर दिया. दरअसल, दूसरों को बांधने में एक निर्वचनीय सुख मिलता है,वहीं बंध जाने में भी एक सुख की निष्पत्ति होती है एक रस बांधने में आता है,वहीं एक रस बंध जाने में भी आता है. बंधने की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है. स्त्री किसी पुरुष से, बच्चा अपनी मां से, बहन अपने भाई से,पुत्र अपने माता-पिता से एक अटूट बंधन में बंधे होते है लेकिन इसका पता न तो बंधने वाले को चल पाता है और न ही बांधने वाले को चल पाता है और इस तरह एक पडौसी दूसरे पडौसी से, पूरा एक गांव और संपूर्ण राष्ट्र एक सूत्र में बंधता चला जाता है. यह क्रम आज से नहीं, अनादिकाल से चला आ रहा है. एक बहन अपने प्रिय भाई की कलाई में राखी बांधती है . राखी क्या है?. वह भी तो एक धागा ही है न ! जिससे वह उसे बांधती है. बहन के मन में अपने भाई के प्रति अनन्य प्रेम होता है,एक अटूट विश्वास होता है, एक ऐसा विश्वास कि वह आडॆ दिनों में उसकी रक्षा करेगा. कोई संकट यदि आ उपस्थित हुआ तो वह अपने प्राणी, की बाजी तक लगा देगा और अपनी बहन की रक्षा करेगा, उसके कठिन दिनों में एक संबल बन कर खडा हो जाएगा. भाई जब इस कच्चे सूत्र से बंधता है तो उसके मन में भी एक हिलोर पैदा होती है, एक गर्व का भाव पैदा होता है, एक आत्मविश्वास पैदा होता है,एक अपरिमेय शक्ति उसके मन में जागती है कि वह ऎसा कर सकेगा. राखी का शुद्ध शाब्दिक अर्थ भी तो यहां रक्षा भाव का जाग्रत होना होता है.
पूजन के समय किसी पात्र में पानी भर दिए जाने के बाद उसका भाव ही बदल जाता है. उस पात्र को कच्चे सूत से लपेटा जाता है. ऐसी मान्यता है कि उसमे वरुण देवता का समावेश हो गया है.जो कि हमें समृद्धि और ऎश्वर्य प्रदान कराते हैं. वस्तुतः यह जुडाव ,प्रकृति के जुडाव से भी अपने आप जुड जाता है. वटसावित्री के दिन भी सुहागन स्त्रियां, पेड के तने में कच्चा सूत लपेटतीं हैं. सभी जानते हैं कि वट वृक्ष में देवताओं का वास होता है और आयुर्वेद के अनुसार उसका कितना महत्व है. भगवत्गीता में वट वृक्ष को लेकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय १०.श्लोक २६ मे कहा है”अश्वत्थःसर्ववृक्षाणां.....मुनिः! .वासुदेव कृष्ण अश्वस्थ यानि वट वृक्ष हैं, जाहिर है कि कृष्ण को कच्चे सूत्र में बांधकर वे अपने लिए अखंड सौभाग्य का वरदान मांगतीं हैं.
रक्षाबंधन को मनाए जाने के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है. देवताऒं और राक्षसों के बीच युद्ध हो रहा था. यह युद्ध बारह वर्षॊं तक चलता रहा. इसमें देवताऒं की पराजय हुई. और असुरों ने देवलोक पर आधिपत्य जमा लिया. दुखी,पराजित और चिन्तित इन्द्र देवगुरु बृहस्पति के पास गए और कहने लगे कि इस समय न तो मैं यहां सुरक्षित हूँ और न ही यहां से कहीं निकल सकता हूँ. ऎसी दशा में मेरा युद्ध करना ही अनिवार्य है,जबकि अबतक के युद्ध में हमारा पराभव ही हुआ है. इस वार्तालाप को इन्द्राणी भी सुन रही थी. उन्होंने कहा कि कल श्रावण शुक्ल पूर्णिमा है, मैं विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार करुंगी, उसे आप स्वस्ति-वाचनपूर्वक ब्राह्मणॊं से बंधवा लीजिएगा. इससे आप अवश्य ही विजयी होंगे.
दूसरे दिन इन्द्र ने रक्षाविधान और स्वस्तिवाचनपूर्वक रक्षा बन्धन कराया. पहले रक्षासूत्र का विधि विधान से पूजन किया गया. फ़िर ब्राह्मणॊं ने रक्षासूत्र बांधते समय इस दिव्य मन्त्र को पढा-“ येन बद्धौ बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः//तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल//. रक्षासूत्र के प्रभाव से उनकी विजय हुई. तब से यह पर्व श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को रक्षाबन्धन पर्व के रुप में मनाया जाने लगा. भारतीय पर्व-परम्परा में भाई-बहन के मिलन का अनोखा त्योहार है रक्षाबंधन. इस दिन बहन अपने भाई की कलाई में राखी बांधतीं हैं और मंगलकामना करतीं हैं कि उसकी आयु लम्बी हो. प्राचीन समय अथवा वर्तमान में भी ऎसा देखा जाता है कि भाई को साहस देने, हिम्मत देने का कार्य बहन ही करती है. बहन का आशीर्वाद पाकर भाई वीरता का प्रदर्शन करता है. राष्ट्र पर जब भी आपत्ति आती है तो बहनों ने ही भाइयों को स्नेहरुपी आशीर्वाद देकर राष्ट्र की सुरक्षा परम कर्तव्य है,ऐसा उपदेश देते हुए धीरता,वीरता का परिचय दिया है. ऎसे एक नहीं अनेको उदाहरण है जिनको पढकर यह जाना जा सकता है कि एक कच्चा धागा जब स्नेह से किसी की कलाई से बंधता है तो उसके कितने सुखद परिणाम निकले, देखने को मिलते हैं. सभी जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन द्रौपदी से कितना स्नेह रखते थे और उन्होंने एक नहीं अनेकों बार अपनी बहन के कष्टॊं का निवारण किया था. भरी सभा में जब दुर्योधन ने अपने भाई दुशासन को आदेश दिया था कि वह उसे घसीट लाए और उसका चीर हरण करे.यह तब का दृष्य है जब पांडवॊं ने जुए में अपना सर्वस्व लुटा दिया था. द्रौपदी ने चीख-चीख कर सभी रथी-महारथियों को,यहां तक धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह तक से अनुरोध किया था कि एक नारी की रक्षा की जानी चाहिए. जब कोई उसकी सहायता को आगे नहीं बढा तो उसने अपने भाई श्रीकृष्ण को याद किया. पल भी नहीं बीता था कि उन्होंने प्रकट होकर अपनी बहन की लाज की रक्षा की थी.
एक दूसरा उदाहरण भी यहां देखने को मिलता है कि पांडवों के बनवास के समय सूर्य ने द्रोपदी को एक अक्षय पात्र दिया था. उसकी यह विशेषता थी कि वह दिन में एक बार में इतना भोजन उपलब्ध करवा देता था कि हजारों का पेट भरा जा सकता था. दुर्योधन ने ऋषि दुर्वासा को प्रसन्न करते हुए अनुरोध किया था कि वे एक बार जाकर वहां भोजन करें,जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो और वह दिव्य पात्र धो दिया गया हो.जिन्होंने इस कथा को पढा है वे जानते है कि कृष्ण को जब इस बात की भनक लगी तो वे वहां गए और थाली से चिपके अन्न के दाने को स्वयं खाकर ऋषियों को तृप्त कर दिया था.
इस रक्षाबंधन सूत्र के प्रभाव से केवल हिन्दु ही परिचित होंगे, ऎसी बात नहीं है. इसका प्रभाव अन्य समुदाय के लोगों पर भी पडा और उन्होंने समय आने पर इस सूत्र की प्रतिष्ठा को आगे बढाया है. रक्षा का यह सूत्र बरसों पुरानी शत्रुता को भी खत्म कर देता है. इतिहास में ऐसे एक नहीं कई उदाहरण पढने को मिल जाएंगे. केवल एक प्रसंग पर हम यहां चर्चा करना चाहेंगे. राजा मानसिंह ने अपने युवा पुत्र को अपनी सेना का प्रमुख बनाकर सम्राट अकबर की सहायता करने के लिए दक्षिण भेज दिया था. इसी बीच गुजरात के सुल्तान फ़िरोजशाह ने मौका देखकर नागौर पर चढाई कर दी. किले को शत्रु सेना ने घेर रखा था. इस् स्थिति ने राजा मानसिंह को बहुत चिन्ता और परेशानी में डाल दिया था. वे जानते थे कि कुछ सैनिकों के भरोसे वे उसे हरा नहीं पाएंगे. अपने पिता के माथे पर घिर आए चिन्ताओं की लकीरों को पुत्री पन्ना ने पढ लिया था. उसने अपने पिता को सलाह दी कि पास की बनी अरिकन्द पहाडी पर उम्मेदसिंह नामक राजपूत राज्य करता है. उससे मदद मांगी जा सकती है. चुंकि दोनो परिवारों के बीच किसी मामले को लेकर विवाद हुआ था और तभी से शत्रुता चली आ रही थी. मानसिंह ने अपनी पुत्री से कहा कि शत्रुता के चलते वह मदद को आगे नहीं आएगा. तभी पन्ना ने एक उपाय खोज निकाला. उसने अपने विश्वस्त और वफ़ादार युवक बेनीसिंह को बुलाया और सोने के तारों से सुन्दर मोहक राखियां, जो उसने तैयार कर रखी थी,भिजवाया. राखी के साथ एक पत्र भी था. उसने पत्र में लिखा;-“ तुम्हारी धर्म-बहिन पन्ना तुम्हें राखी भेज रही है. बहिन की राखी भाई के लिए उत्सव भी है और आमंत्रण भी. बहिन के द्वारा भेजा गया राखी का घागा भाई के लिए शौर्य और साहस की परीक्षा की कसौटी होने के साथ ही आदर्शों के लिए, सनतन धर्म की मर्यादा के लिए समर्पित होने हेतु व्रतबंध भी है. यह पवित्र धागा तुम्हारी बहिन , वीरता और पराक्रम का आव्हान कर रही है. तुम्हें बर्बर और नृशंस आतताइयों के विरुद्ध जूझने के लिए रण निमंत्रण भेज रही है. नारी का अस्तित्व एवं अस्मिता आज खतरे में है.धर्म की सनातन मर्यादाएं आज रौंदी जा रही है. अपनी संस्कृति को विदेशी और विधर्मी कुचलने के लिए तत्पत हैं. तुम्हें अपनी संस्कृति, अपने धर्म एवं बहिन की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे बढना है. मुझे अपने भैया पर पूरा यकीन है. विश्वास है तुम्हारे कदम आगे बढे बिना न रहेंगे.”-तुम्हारी बहिन पन्ना.
पत्र को पढकर युवा उम्मेदसिंह के चेहरे पर वीरता का ओज चमकने लगा और उसने उस पत्र को अपने माथे से लगाया. राखी को अपनी कलाई में बांधा और अपनी सेना लेकर वहां जा पहुंचा और देखते ही देखते उसने शत्रु सेना के लोगों को गाजर-मूली की तरह काट फ़ेंका. शत्रु सेना को पराजित कर वह अपनी बहिन पन्ना से मिलने महल के भीतर प्रवेश किया. बाहर पन्ना आरती का थाल सजाए खडी थी. उसने आगे बढकर अपने भाई के माथे पर कुमकुम तिलक किया,आरती उतारी और कहने लगी:-“ भैय्या ! हिन्दुस्थान की हर बहिन को तुम्हारे जैसा भाई मिले”. राखी का यह विशिष्ठ त्योहार अपने आपमें कितनी ही पवित्रता का भाव, ओज का भाव लिए हमारे सामने आ उपस्थित होता है. अतएव हर भाई का यह परम कर्तव्य हो जाता है कि वे अपनी बहनों का समुचित ध्यान रखे. उसकी अस्मिता की रक्षा करे. बहनॊं का भी यह परम कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने भाइयों के मन में देशप्रेम के बीजॊं का अंकुरण करवाए और उन्हें अपने कर्तव्यों का जब-तब बोध करवाते जाए. इस तरह जब समूचा देश एकता की डोर में बंध जाएगा तो क्या मजाल है कि शत्रु देश आपकी ओर आंख उठाकर देख सके.
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