चौराहे के लोग.
(लेखक-श्री सूर्यदीन यादव.)
साहित्य जगत में अपनी ओजस्विता लिए डा.सूर्यदीन यादव किसी अतिरिक्त परिचय के मोहताज नहीं है. वे निरन्तर ही साहित्य के खजाने को अपनी अमूल्य कृतियों से मालामाल करते रहे है."साहित्य परिवार" पत्रिका वे एक लंबे अरसे से निकाल रहे हैं, जिसमें साहित्य की लगभग सभी विधाएं स्थान पाती रही हैं. "साहित्य परिवार" पत्रिका के अब तक 26 विशेषांक प्रकाशित हो चुके है. मूल रूप से वे उत्तरप्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन उन्होने अपना कर्मक्षेत्र गुजरात के जिला नड़ियाड को बनाया है.यहाँ आप अपने अनुभव और ज्ञान की ज्योति से बच्चों को दीक्षित कर रहे हैं, माने आप पेशे से शिक्षक हैं. आपका यह उपन्यास " चौराहे के लोग" पश्चिमांचल प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है.
उपन्यास में वर्णित एक ऐसा चौराहा जो गाँव में, शहर में, नगर में. महानगर में कहीं भी हो सकता है. चौराहा एक ऐसी जगह है, जिसमें चार दिशाओं का आपस में मिलन होता है. उत्तर से आने वाला व्यक्ति दक्षिण, पश्चिम, पूरब की तरफ़ मुड सकने के लिए स्वतंत्र है. यह निर्भर करता है उस व्यक्ति के ऊपर जो चौराहे पर आकर क्षण भर को रुकता है, फ़िर अपनी मंजिल की ओर मुड़ जाता है. चौराहे की एक और खास बात यह है कि यहाँ कोई रुकता नहीं है. बस इधर से आता है और उधर चला जाता है. कोई किसी से नहीं पूछताकि वह उस तरफ़ से क्यों जा रहा है और क्यों कर जा रहा है.
इस चौराहे से आगे मुडने वाली सड़क किसी गाँव-कस्बे में जाकर समाप्त हो जाती है, जहाँ जनजीवन धड़क रहा होता है. इसी चौराहे के एक ओर बसता है एक गाँव, जहाँ का एक व्यक्ति नौकरी करने के बाहर चला जाता है, लेकिन उसका ध्यान गाँव में रह रहे बूढ़े माँ-बाप, बीबी और एक अदद बच्चों की परवरिश करने या फ़िर. उनकी आवश्यक्ताऒ की पूर्ति के लिए वह बार-बार लौटता है. लौटता क्या है, वह लौट जाने के लिए अभिशाप्त है. वहाँ उसका अपना अकेला घर नहीं है, कई-कई घर और भी है. किसी में भाई-भाभी रह्ते हैं तो किसी में कोई पारिवारिक मित्र, सगे-संबंधी, और कई तो ऐसे भी हैं जिनसे अनाम रिश्ता जुड़ा रहता है. गाँव के लोग कभी एक परिवार की तरह रहा करते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय ने अपने पाँव ग्लोब्लाईजेशन की ओर बढ़ाए, एक ऐसी मूक आँधी चली कि अब गाँव, गाँव जैसे नहीं रहे. रिश्तों की डोर कच्चे धागे की तरह जगह -जगह से टूट कर बिखर गई. अब गाँव में रहती है भीड़, केवल भीड़ और भीड़ में खड़ा एक अकेला आदमी, लगातार बदहवास-सा भागता, फ़िरता. वह कहाँ जाकर रुकेगा, उसकी मंजिल क्या है, उसे नहीं मालुम. वह कहीं बहक-सा गया है, भटक-सा गया है.
यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है. बस दो-ढाई दशक ही बीते है. इस अल्पावस्था में सब कुछ बदल गया है .उसकी मनुष्योचित सादगी, निश्छलता, शालीनता, विनम्रता, आदि गुणॊं का तेजी से क्षरण हुआ है. टुच्चागिरी, कमीनगी जैसे उसके आचरण के अभिन्न अंग बन गए हैं. व्यक्तिगत लाभ-लोभ ने उसे लगभग अंधा ही बना दिया है. अब वह वही देखना- सुनना पसंद करता है, जिसमें उसका अपना नीजि स्वार्थ छिपा होता है. दया- ममता- करुणा जैसे अर्थवान शब्द, अब उसके लिए कोई माने नहीं रखते. अनीति से पैसा कमाने की अंधी दौड में उसके परिवार की दीवारों में दरारें पड़ने लगी है.
रही सही कसर बाजारवाद ने पूरी कर दी है. बाजार मानव का महत्वपूर्ण हिस्सा है. बाजार में शामिल व्यक्ति खरीदारी अथवा बिक्री, दोनों ही सूरत में मुनाफ़े की सोचता है.वर्तमानकाल में भूमंडलीकरण के दौर में बाजार अल्पसंख्यक धनिकों के आधार पर शान से चल रहा है. चारों तरफ़ हाहाकार के शोर सुनाई दे रहे हैं ,लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है.
साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता हेराल्ड पिटर ने अपने भाषण मे इस संकट की ओर इशारा करते हुए कहा था-“राजनीतिकों की रुचि, उपलब्ध प्रमाणॊं के अनुसार सत्य में नहीं होती, बल्कि सत्ता में और उस सत्ता के बरकरार रखने में होती है. उस सत्ता को बनाए रखने के लिए यह जरुरी है कि लोग अज्ञान में पडॆ रहें, कि वे सचाई के अज्ञान में ही जिएं,जहाँ तक की अपने जीवन की सचाई तक के.”
संकट के इस भयावह दौर में उपन्यासकार सूर्यदीन यादव का उपन्यास " चौराहे के लोग" का आना इस बात का गवाह है कि वे अपने आसपास के माहौल से बेखबर नहीं है. उन्हें बराबर इस बात की चिंता सताती रहती है. उसी का सुपरिणाम है इस उपन्यास का आना. यह इस बात का शुभ-संकेत तो है ही, साथ ही यह आशा भी बंधती है कि वे विलुप्त होती जा रही मानवता को बचाने के लिए जद्दोजहद करते हुए देखे जा सकते हैं. उनको पढकर राहत मिलती है कि वे एक नयी चेतना और ऊर्जा के साथ उन तमाम तरह के प्रपंचों के मकडजाल को काट फ़ेकने में समर्थ दिखाई देते हैं. उनकी लेखनी में एक विकल बेचैनी और छटपटाहट स्पष्टरूप से दिखाई पडती है.
उपन्यास आपको एक ऎसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है और सोचने पर विवश कर देता हैं कि “अच्छा ऎसा भी हो सकता है”. यदि ऎसा विचार स्वंमेव आता है तो समझिए कि उपन्यासकार की लेखनी सार्थक हुई. सभी जानते हैं उपन्यास लेखन एक सघन संशिलष्ट प्रक्रिया है. एक हल्की सी चूक भी उसे ध्वस्त कर सकती है. कहन के लिए खतरा तब बढ़ जाता है, जब उपन्यासकार विचारों के अनुभव के आलोक में जाँचें-परखे बगैर केवल ओढ़ लेता है, तब उस पर न तो विवेक की मुहर लग पाती है और न ही संवेदना की या फ़िर कहानी के भीतर जो जीवन बोल रहा है, वही कच्चा होता है, अप्रामाणिक होता है या उपन्यासकार के पास अभिव्यक्ति का सामर्थ्य कम होता है, ऐसा प्रतीत होता है.
श्री सूर्यदीन यादव की अभिव्यक्ति का लहजा बहुत गंभीर, संयत और प्रशान्त है. उनमें संवेदना को प्रदर्शन की वस्तु बनाने की अधीरता नहीं, बल्कि उसके आत्मसातीकरण की कोशिश है. संवेदना उनकी कहानी की सतह पर नहीं मिलती, उसके आभ्यंतरिक प्रकाश- वृत्त में दिखती है. जिस गरिमा, निश्छलता, सौम्यता से वे अपनी बात रखती हैं, उसकी पृष्ठभूमि में उनका मंत्व्य होता है- “सादगी अभाव की नहीं / एक संस्कृति की परिभाषा है. मनुष्यता के प्रति निष्ठा और विचारशीलता से समन्वित यह उदात्त सादगी ही उनके उपन्यास की संस्कृति है.
असंभव की संभावना पर इस दौर में कई उपन्यास और ढेर सारी कहानियाँ लिखीं गईं हैं. सपनों के टूटने की दर्दीली व्यथा-कथा भी इसी दौर में शायद सबसे अधिक और विविध आयामों में कही गई है. श्री सूर्यदीन यादव इस नयी संवेदनाधर्मी प्रयोगशीलता से अनभिज्ञ नहीं हैं. हाँ, यह जरुर है कि इनके यहाँ उस दर्द का तथोक्त दुहराव नहीं है. उनकी प्रयोगशीलता समवर्ती उपन्यासकारों से भिन्न कोण पर आकार अपना नया मकाम खोजती है.
प्रकृति का अंग मनुष्य तो है ही, जिसे मिलाकर ही प्रकृति बनती है. प्रकृति में तो वह खुद शामिल है ही, किन्तु वह प्रकृति का एक ऎसा अंग है जो चेतना संपन्न है, आत्म सजग है. इसी आत्म चेतना और सजगता के बल पर सूर्यदीन यादव ने दो विभिन्न दिशाओ के मध्य एक सेतु का निर्माण किया. एक ऎसे पुल की निर्मिति, जो एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच परस्पर संप्रेषण और सौहार्द का माध्यम बनता है. अपने छोटे-छोटॆ निजी दुःखों के बीच रहते हुए उपन्यास का सफ़रनामा लिखने को उत्सुक यादव जी के उपन्यास में उनका आत्मगत संसार बार-बार व्यक्त होता है. असंभव की संभावनाओं पर इस दौर में उन्होंने काफ़ी कुछ लिखा है जो एक नयी समझ देता है.
अपने उप्न्यास को रसमय बनाने के लिए उन्होंने अपने प्रांत की भाषा को महत्व दिया है. महत्व दिया है, वहाँ की आम प्रचलित बोली को, प्रचलित मुहावरों को. इनके प्रयोग से पाठक जहाँ उपन्यास में खोता चला जाता है, वहीं वह नए-नए शब्दो से भी परिचित होते चलता है. " खेत में कटिया से छूट्टी मिल गई है","आमों के टिकोरे बड़े हो रहे हैं न ! उनकी देखभाल करनी पड़ती है. नहीं तो लड़के लौंची समेत टिकोरे तोड़ ले जाते हैं.", अब तो महुआ में कूँच आये हैं. दो-चार दिन में उसमे भी महुआ भरदरा जायेगा". " हाँ, बड़कऊ की ससुरारी भीर पड़ी है. वहीं गए-लौटे नहीं. आनय जाना पड़ेगा. बाल-बच्चन को ससुरारी में छोड़ आए हैं",कच्चा घर और लोनियाती दीवालें,, लकड़ी का गोल ठीहा, गँडासा, कोयर (चारा.),चौपार, सरपताई, ऊँखपताई, गझिन, छाजन,, छूल के पत्ते,, छवइया, मड़ई, अढ़वा-टढ़वा, मुँहार, रँहट, आदि देशज शब्दों को प्रयोग में लाना बहुत कम ही देखा गया है. उपन्यासकार ने इन देशज शब्दों को प्रयोग में लाकर उन्हे कालजयी बनाने का पुरजोर प्रयास किया है.
शहर तो शहर, गाँव तक की बोली इस तथाकथित ग्लोबल की आँधी में, जैसे कहीं बिला गई हैं. अब बहुत कम लोग इन शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं, यह मुख्य चिंता का विषय है. साधुवाद- धन्यवाद सूर्यदीन जी को उन्होंने शहर की संस्कृति के बीच रहते हुए अपने गाँव की संस्कृति को बचाए रखने का पुरजोर और उत्तम प्रयास किया है. वे पुनः साधुवाद के पात्र है.
समीक्षा में कहीं भी उस कलेवर का जिक्र समीक्षक ने नहीं किया है, जिसको आधार बनाकर इस ऐतिहासिक उपन्यास को रचा गया है. यह सब इसलिये भी कि पाठकों को इस उपन्यास का रसास्वादन करने के लिए इसमें अपने को झोंकना पड़ेगा, तब जाकर उसे वह आनन्द प्राप्त हो पाएगा, जिसके लिए उपन्यासकार ने इसे लिखने में कई महिने और साल बीता दिए हैं.
उपन्यास " चौराहे के लोग" उपन्यासकार के आत्म का पारदर्शी प्रतिरुप है. छल-छद्म और दिखावटीपन के बुनावटॊं से दूर, लाभ-लोभ वाली आज की खुदगर्ज दुनियाँ में एक सरल-सहज- निर्मल प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ-बधाइयाँ, इस आशा के साथ कि आने वाले समय में उनके नए उपन्यासों से परिचित होने का सुअवसर प्राप्त होगा.
श्री दूर्यदीन यादव जी को अनेकानेक आत्मीय बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
-------------------------------------------------------------------------------------------------------
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (मध्यप्रदेश.) गोवर्धन यादव 09424356400 अध्यक्ष/संयोजक म,प्र.राष्ट्र भाषाअ प्रचार समिति जिला इकाई,छिन्दवाड़ा.म.प्र. 480001.
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY