देर तक इसी अवस्था में बैठे रहने के बाद, राम ने उन्हें अपने आलिंगन से मुक्त करते हुए देखा और कहने लगे- "हे जनकनंदिनी! मेरा मन इन पारिवारिक बंधनों में बंध कर रहना नहीं चाहता| नदी यदि अपने उद्गम से चलकर आगे प्रवाहित न हो, तो वह मात्र पोखर बन कर रह जाती है| मैं पोखर नहीं बनना चाहता| तुम तो भली-भांति जानती ही हो कि राजा के क्या कर्तव्य होते हैं? उन कर्तव्यों को पूरा करते-करते वह सिंहासन से बंधा रह जाता है| मुझे न जाने क्यों रह-रह कर गुरु विश्वामित्र जी की याद हो आती है| सुबाहू और ताड़का जैसे क्रूर राक्षसों के वध के लिए वे मुझे और भ्राता लक्ष्मण को अपने आश्रम में ले गए थे| वहाँ रहते हुए हमने न सिर्फ़ उनका वध किया बल्कि अनेक राक्षसों को मार गिराया था"
"गुरुदेव ने प्रसन्न होकर दिव्यास्त्र देते हुए मुझसे कहा था-“ राम! अयोध्यापति दशरथ के रहते ये राक्षस उधर नहीं फ़टकते, लेकिन दक्षिण में उन्होंने अपना साम्राज्य फ़ैला लिया है| वे निस दिन मुझ जैसे तपस्वियों की तपस्या ही भंग नहीं करते, बल्कि उन्हें मार कर भक्षण तक कर जाते हैं| जब ऋषि-मुनि यज्ञादि करते हैं तो वे आकाश मार्ग से आकर हवनकुंड में अपवित्र चीजों को डालकर, उनका अनुष्ठान्न पूरा नहीं होने देते| उनके आतंक के कारण ऋषि-मुनियों को भयानक दिन देखने पड़ रहे हैं| कल को तुम राजा बनोगे, तो राज्य की सीमा से बाहर नहीं निकल पाओगे| तुम्हारा जन्म तो इनके सर्वनाश के लिए ही हुआ है| इन राक्षसों के कारण सनातन धर्म संकट में पड़ गया है| यदि समय रहते धर्म को नहीं बचा सके तो धरती रसातल में चली जाएगी| धर्म की रक्षा के लिए तुम्हें शस्त्र उठाने ही पड़ेंगे| तुम्हारे अलावा इस धरती पर और कोई शूरवीर नहीं है जो इनका नाश कर सके| राम! निर्णय तुम्हें लेना होगा| जितनी शीघ्रता से तुम निर्णय लोगे, उतनी जल्दी ही इस धरती पर बढ़ता पापाचार समाप्त होगा"|
"सीते! दानवों के संहार के लिए महर्षि विश्ववामित्र जी द्वारा दिए गए वे सभी दिव्यास्त्र मुझ में समाहित हो चुके हैं| वे जब-तब मेरे समक्ष उपस्थित होकर मुझसे निवेदन करते हैं कि प्रभु हमारा उपयोग आप कब करेंगे?"| कहते हुए राम अचानक उठ खड़े हुए और चलते हुए छत की चाहरदीवारी से सटकर खड़े हो गए थे|
उन्होंने सीता जी को इंगित करते हुए कहा:- "सीते| यहाँ से पूरी अयोध्यापुरी दिखाई देती है| इतनी रात बीत जाने के बाद भी लोग पुरी को सजाने-संवारने में लगे हैं| जगह-जगह तोरण-द्वार बनाए जा रहे हैं| सभी राजमार्गों के दोनों ओर कदली-वृक्ष लगाए जा रहे हैं| पताकाएँ फ़हराई जा रही हैं| राजमार्ग पर सुगन्धित जल के छिड़काव के बाद सुन्दर-सुन्दर अल्पनाएं बनाई जा रही है| नागरिकों की चहल-पहल भी यहाँ से देखी जा सकती है| लोग अपनी निद्रा का त्याग कर इस पुरी को सजाने-संवारने में जुटे हुए है कि समय रहते जितनी भी भव्यता बनाई जा सकती है, बनाने के उपक्रम करने में लगे हुए हैं| कल जैसे ही सुबह होगी, पुरी में पैर रखने की जगह भी नहीं बचेगी| सारे आर्यावृत्त से जनसामान्य से लेकर राजे-महाराजे अपने दल-बल के साथ यहाँ पहुँचेगे| सभी के मन में एक ही आस है कि वे मेरा राज्याभिषेक होता हुआ देखें|”
"हे सीते! तुमने और मैंने अवतार रूप में जन्म इसीलिए नहीं लिया है कि हमें धरती पर शासन करना है, बल्कि हमारा उद्देश्य तो दानवराज रावण को मारकर, उसके अत्याचारों से इस पावन धरा को मुक्त कराना है| तुम देख ही रही हो कि मेरी इच्छा के विरुद्ध कितना कुछ किया जा रहा है|”
"हे जनकनन्दिनी! मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है| तुम्हें मेरा साथ देना होगा ताकि राम अपने अभियान में सफ़ल हो सके| लेकिन वर्तमान में जो चल रहा है, सब उलटा-पुलटा चल रहा है| पिताश्री मुझे राज-प्रभार संभालने के लिए आज्ञा दे चुके हैं| पिता की आज्ञा मानता हूँ तो मैं यहीं अयोध्या का होकर रह जाऊँगा और आज्ञा नहीं मानता हूँ तो रघुकुल का गौरव कलंकित हो जाएगा| मुझे इस चक्र से निकलना ही होगा| किसी भी तरह निकलना होगा| (हाथ जोडकर प्रार्थना की मुद्रा में) हे| रंगनाथ जी! आप मेरी सहायता करें| कुछ तो ऐसा उपाय कीजिए कि मैं पिता की आज्ञा मानने का दोषी न कहलाऊँ और राज्य के बंधन से भी मुक्ति पा सकूँ"
"इस दुविधा से निकलने का कोई तो मार्ग सोचा होगा आपने?" सीता जी ने कहा|
"हर समस्या का हल उसी समस्या में छिपा होता है, बस उसे ढूँढ निकालना होता है|”
"इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि समस्या का हल खोज लिया गया है|” सीता ने कहा|
"हाँ सीते| हाँ| अब एक ही रास्ता शेष है| हमें माता कैकेई से मिलकर प्रार्थना करनी होगी कि वे हमें इस मायाजाल के चक्र से निकलने का कोई उपाय बतलाएं| केवल और केवल अब उनकी शरण में जाकर ही हम इस बंधन से मुक्त हो सकते हैं"|
"लेकिन|”
"लेकिन क्या|”
"माता कैकेई इस समय निद्रावस्था में होगी| क्या उन्हें जगाना उचित होगा?
"यह तुम्हारा भ्रम है सीते! कि वे सो चुकी होंगीं| निश्चित ही वे जाग रही होगीं और इस बदलते घटना क्रम पर वे गहराई से सोच-विचार भी कर रही होंगी| भले ही पिताश्री ने उन्हें मेरे राज्याभिषेक का समाचार नहीं भी दिया होगा, लेकिन उन्हें इस घटना की जानकारी मिल चुकी होगी| राजमहल में कहाँ क्या हो रहा है, उन्हें समय रहते पल-पल की जानकारी मिल जाती है| हमें उनकी शरण में जाना होगा| प्रार्थना करती होगी| उनके समक्ष एक आभासी संसार (माया) की रचना करनी होगी| अब केवल और केवल माता कैकेई ही हमारी सहायक हो सकती हैं|
माता कैकेई जी से मंत्रणा
एक आभासी संसार का निर्माण करते हुए श्रीराम और सीताजी माता कैकेई के अन्तःपुर में पहुँचे|
माता कैकेई इस समय अपने आसन पर विराजमान होकर आसमान की ओर ताक रही थी| दीपक का हल्का-हल्का प्रकाश पूरे कक्ष में फ़ैला हुआ था| संभवतः वे किसी गूढ़ विषय को लेकर मन ही मन चिंतन कर रही थीं| राम और सीता के पदचापों को सुनकर उन्होंने पलट कर देखा| सीता और राम उनकी ओर बढ़ते चले आ रहे हैं|
देखते ही उन्होंने कहा- "आओ राम! आओ सीते! आओ| तुम दोनों का इतनी रात गए मेरे कक्ष में आने का भला क्या प्रयोजन हो सकता है? जरुर कोई न कोई ऐसी बात अवश्य है, जिसने तुम्हें परेशान कर रखा है| मैं तुम्हारा मनोरथ किस तरह सिद्ध कर सकती हूँ, निःसंकोच मुझसे कहो|”
माता के चरणो में दोनों ने प्रणाम निवेदित किया| तदन्तर राम ने कहना शुरु किया|”माते! आपसे भला मेरी कोई बात छिपी रही है? संभवतः आपको विदित ही हो चुका होगा कि पिताश्री कल प्रातः मेरा राज्याभिषेक करने जा रहे हैं| अयोध्यापुरीको पूरी भव्यता के साथ सजाया-संवारा जा रहा है| संपूर्ण अयोध्या में जैसे खुशियों का सागर उमड़ पड़ा है| सारी प्रजा भी मुझे युवराज के पद पर बैठा देखना चाहती हैं|”
"आप भली-भांति जानती ही हैं कि मेरा मन इन सब चीजों में नहीं रमता| मैं पिता की आज्ञा का उल्लंघन भी नहीं कर सकता| मन मार कर मुझे उनका प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ रहा है| यदि मैं उनकी आज्ञा नहीं मानता हूँ, तो उनकी प्रतिष्ठा और कीर्ति धूमिल हो जाएगी”|
"माते! मैं आपकी शरण में आया हूँ| कृपा कर आप मुझे इस चक्रयूव्ह से बाहर निकालें| केवल और केवल आप ही यह उपक्रम कर सकती हैं, दूसरा और कोई नहीं"|
"वह कैसे? मां कैकेई जी ने जानना चाहा|
"संभवतः आप भूली नहीं होंगी? सम्ब्रासुर नामक राक्षस से युद्ध में सहायक होने के लिए देवराज इन्द्र ने महाराज से मदद करने की गुहार लगाई थी| इस विनाशकारी युद्ध में आप पिताश्री की सारथी बनकर युद्ध के मैदान में गई थीं| एक बार रथ के पहिए की कील निकल गई थी, कील की जगह आपने अपनी ऊँगली डालकर अनर्थ होने से बचाया था और दूसरी बार युद्ध में शत्रु ने पिताश्री पर युधास्त्र चलाकर उन्हें मरणासन्न अवस्था में पहुँचा दिया था| तब तत्काल आपने रणभूमि से रथ को दूर ले जाकर उनका उपचार करते हुए, उनके प्राणों की रक्षा की थी| इन दोनों घटनाओं से प्रसन्न होकर महाराज ने आपसे दो वर मांगने का आग्रह किया था| आज उन दो वरदानों को मांगने का समय आ चुका है| माते! आप महाराज से मेरे लिए चौदह साल का बनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक का वर मांग लीजिए| बस यही एकमेव रास्ता बचता है मेरे लिए," रामजी ने कैकेई से कहा|
"राम! ये क्या कह रहे हो तुम| तुमने ये कैसे सोच लिया कि कैकेई ऐसा कर सकती है? क्या वह सत्ता की लालच में इतना गिर सकती है?| जिस राम को उसने अपने बेटे से ज्यादा स्नेह दिया| लाड़-प्यार| दुलार दिया| जिसे उसने इन हाथों से खिलाया-पिलाया और| अपनी ममतामयी गोद में सुलाया| वह कैसे कह सकेगी कि राम को चौदह बरस का बनवास दिया जाए? अरे| जिसने कालीन के नीचे कभी अपने पाँव नहीं रखे| क्या वह बीहड़ जंगलों में| पथरीले-कंटीले रास्तों में दर-दर भटकाने के लिए कैसे भेज सकेगी? जिस राम ने अब तक चाँदी की शैया पर बिछे, मखमली गद्दों में सुखपूर्वक शयन करते हुए रात्रि बिताई हो| उसे अपने स्वार्थ के लिए घास-फ़ूस और सूखे पत्तों से बने बिछौने पर सोता हुआ कैसे देख पाएगी?"
"राम! जिन जंगलों की बात तुम कर रहे हो, शायद जंगलों के बारे में मुझसे ज्यादा तुम नहीं जानते| वे दिन में जितने सुहावने दिखते हैं, रात होते ही डरावने हो उठते हैं| फ़िर जंगलों में बड़े-बड़े खूंखार जानवर विचरते रहते है| अपने सुकोमल बदन राम को भला एक माँ, जंगली जानवरों से लड़ने-भिड़ने के लिए कैसे भेज सकती है? इतना ही नहीं, जंगलों में भयानक राक्षसों ने अपने ठिकाने बना लिए हैं, वे तो तुम्हें देखते ही चट कर जाएंगे| एक माँ भला इतनी निर्दयी कैसे हो सकती है कि वह अपने प्राणों से भी प्रिय बेटे को राक्षसों के हवाले छोड़ सकती है? क्या तुमने कभी इस पर कभी गंभीरता से सोचा-विचारा भी है? राम! तुम मुझसे मेरे प्राण मांग लेते तो मैं हँसते-हँसते दे देती| लेकिन कैकेई इतना बड़ा जघन्य अपराध कभी नहीं कर सकती| नहीं कर सकती| नहीं कर सकती”| कहते-कहते फ़बक कर रो पड़ी थी कैकेई|
राम ने अपने उत्तरीय से विलाप कर रही कैकेई के आँसू पोंछॆ, फ़िर विनित भाव से कहा:- “माते! आप जैसी क्षत्राणी को विलाप करता देख मेरा कलेजा फ़टा जा रहा है| मैं आपको इस तरह विवश और लाचार नहीं देख सकता| इस तरह अधीर होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है| मैं पुनः आपके श्रीचरणो में विनम्रता से निवेदित कर रहा हूँ कि आप महाराज श्री से इन दो वरदानो को मांगे| इसमें जगत का कल्याण होना छिपा हुआ है"| राम ने कहा|
"कल्याण| कैसा कल्याण| राम! जानते हो राम! इन दो वरदानों को मांगकर मुझे क्या मिलेगा? मेरा बेटा मुझसे छिन जाएगा| पुत्र भरत फ़िर कभी मुझे माँ कहकर नहीं पुकारेगा| वह मुझे घृणा की दृष्टि से देखेगा| फ़िर तुम भली-भांति जानते ही हो कि महाराज तुम्हें अपने प्राणॊं से भी ज्यादा चाहते हैं| उनके प्राण तुममें समाए हुए है| तुम्हारे नहीं रहने से वे अपने प्राण त्याग देंगे| मुझ सहित महारानी कौसल्या और सुमित्रा को भी वैधव्य की मर्मांतक पीड़ा से होकर गुजरना पड़ेगा| कोई स्त्री क्योंकर विधवा होना चाहेगी? जानते-बूझते कोई स्त्री, क्यों अपना सुहाग उजाड़ने का उपक्रम करेगी? इतना ही नही, संसार मुझे दुष्टा कह कर पुकारेगा कि अपने बेटे की खुशी के लिए उसने पूरा परिवार उजाड़ डाला| संसार का कोई भी प्राणी अपने बच्चियों का नाम कैकेई रखने से परहेज करेगा| सारा संसार मेरे नाम पर थू-थू करेगा? क्या तुम यही चाहते हो? मुझसे ऐसा करवाते हुए तुम्हें क्या मिलेगा| बोलो राम! बोलो?” कैकेई ने राम से कहा|
"माते! एक सामान्य मनुष्य भी यही सोचेगा| , जैसा-कि आप सोच रही हैं| राम की माता होने के नाते आपको इतना छोटा नहीं सोचना चाहिए| आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं? हम जो इस चलते-फ़िरते संसार को देख रहे हैं यह मात्र एक सपने के सदृष्य है| समय बदलते ही दृष्य भी बदल जाते हैं| कल को न मैं रर्हूंगा, न आप रहेगीं, और न ही पिता श्री| हम सब इतिहास का हिस्सा बन जाएंगे| हम आज हैं,| कल और कोई रहेगा| यदि कोई बच रहेगा तो केवल देश और हमारा सनातन धर्म बच रहेगा| इसी धर्म की संस्थापना के लिए ही तो मैंने रघुकुल में जन्म लिया है माते"|
"रावण के बढ़ते अत्याचार से धरती कांप रही है,, सारे देवगण उसके आतंक से भयभीत होकर यहाँ-वहाँ छिपकर रहने के लिए विवश है| सनातन धर्म का नाश हो चला है| यदि उस दुष्ट का संहार नहीं हो सका तो इस धरती पर दानव ही दानव होंगे| मानवता समूल नष्ट हो जाएगी| आपके इन दो वरदानों में संसार का कल्याण छिपा है| अतः माते! अपने मन-मस्तिष्क से क्षुद्र विचारों को बाहर निकाल फ़ेंके और जनकल्याण की भावना से आगे आएँ"|
"आप भले ही वरदान न मांगना चाहें| लेकिन राम| आपसे ऐसा वरदान मांगने के लिए प्रार्थना कर रहा है| आप जब भी कहलाएंगी, राम की माता ही कहलाएंगी| दुनियां आपको राम की माता के रुप में पहचानेगी| आपके इस त्याग और बलिदान को दुनिया युगों-युगों तक याद रखेगी| आपको कोई पाप नहीं लगेगा क्योंकि आपने ये सब राम के कहने से किया है| अतः मन में आयी मलीनता को मिटा दें और जनकल्याण के लिए खुशी-खुशी आगे आएँ"|
"हूँ| तो राम! तुमने वन जाने का निश्चय कर ही लिया है? फ़िर भला मैं कौन होती हूँ तुम्हें रोकने वाली| सच भी है| तुमने जिस उद्देश्य को लेकर जन्म लिया है, उसे तो हर हाल में पूरा करना ही चाहिए| मैं अपनी ओर से तुम्हारे मनोरथ को यथाशीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करुँगी| अब तुम निश्चिंत होकर अपने अभियान की ओर अग्रसर होने की तैयारी में लग जाओ| मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है| शीघ्र ही तुम इसमें सफ़ल होकर लौटो| मैं तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा करती रहूँगी"|
(स्नेह से सीता की ओर निहारते हुए)|”सीते! राम के साथ तुम्हारा आना इस बात का संकेत है कि तुमने भी राम के साथ वन जाने का मन बना लिया है| ठीक भी है| तुम्हें तो राम के साथ होना ही चाहिए| तुम सदा राम की परछाई बन कर रहना| एक स्त्री का पति, चाहे वह राजमहल में रहे चाहे वन में रहे, सुख में रहे या फ़िर दुःख में, उसे सदैव अपने पति का अनुसरण करते हुए सदा उसके साथ ही रहना चाहिए| तुम साथ रहोगी, तो मेरे राम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा| आशा है, तुम मेरे विश्वास पर खरा उतरोगी|
"अच्छा माते! अब हमें आज्ञा दीजिए| राम और सीता जी ने कैकेई के चरणॊं में प्रणाम करते हुए जाने की आज्ञा मांगी|
भारी मन लिए हुए कैकेई राम और पुत्रवधु सीता को जाता हुआ देखती रही थी| तभी उन्हें याद आया कि राम से एक जरुरी बात तो बतलाना ही भूल गई| भावावेश के चलते स्मरण में ही नहीं रहा| उन्होंने राम को आवाज देते हुए कहा- "रुक जाओ राम! रुक जाओ| तुमसे कुछ जरुरी बातें करना बाकी रह गया है"|
माता कैकेई की करूण पुकार रामजी के कानों तक पहुँची| उन्होंने सुना| सुना कि माता कैकेई उन्हें वापिस लौट आने को कह रही हैं| उठते कदम वहीं रुक गए थे| बिना समय गवाएं वे पुनः शीघ्रता से लौटने लगे थे| पास आकर उन्हें अत्यंत ही विनीत शब्दों में हाथ जोड़कर कहा -"माते! आपने मुझे बुलाया?| कहिए| अब आपकी क्या आज्ञा है? मुझे कह सुनाइए| राम उसे हर हाल में पूरा करने का वचन देता है"|
"आज्ञा नहीं राम! आज्ञा नहीं| बस एक छोटी सी विनती है" कैकेई ने कहा|
"माँते! आप ये क्या कह रही हैं? माताएँ अपने पुत्रों से विनती नहीं करती, बल्कि उन्हें आज्ञा देती हैं| आप आज्ञा दीजिए, राम उसे पूरा करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ है|”| कहते हुए रामजी टकटकी लगाए माता कैकेई की ओर देखने लगे थे|
बाली के हाथों मिली करारी हार की याद आते ही उनके मन में अपार पीड़ा होने लगी थी| मन कसैसा हो उठा था| वाणी अवरुद्ध हो गई थी| आँखें डबडबा आईं थीं और अब आँसू गालों पर लुढ़ककर बहने लगे थे| असमंजस में पड़ गईं थीं कैकेई| उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपनी पराजय की कारुणिक व्यथा-कथा राम को कैसे और किस मुँह से सुना पाएगीं? पुराना जख्म हरा ही नहीं हुआ है, बल्कि अब फ़ूटकर शिराओं में भी बहने लगा था|
"माँ| ये क्या? आपके आँखों में आँसू? राम के रहते हुए माँ के आँखों में आँसू? कितने ही दारूण दुःख झेल सकता है राम| लेकिन अपनी माँ को इस तरह आँसू बहाते हुए नहीं देख सकता| कदापि नहीं देख सकता| मुझे बतलाइए तो सही कि वह कौन-सी बात है जो आपके मन को पीड़ा पहुँचा रही है? मैं राम| शपथपूर्वक कह रहा हूँ कि मैं उस पीड़ा को अवश्य दूर कर दूँगा| ’मैं वह सब कुछ करने को तैयार हूँ जिसमें आपकी प्रसन्नता बनी रहे| यदि किसी ने भी जाने-अनजाने में आपका अहित किया है या आपका अपमान किया है, चाहे हो देवता हो या फ़िर कोई और| राम उसे जीवित नहीं छोड़ेगा| उसे मार गिराएगा| अब आप कृपया कर इस तरह विलाप करना बंद कर दीजिए और मुझे बतलाइए कि वह कौन-सी ऐसी पीड़ा है, जो आपके दिल और दिमाक को मथ रही है?" राम ने अनुनय करते हुए माता कैकेई से जानना चाहा|
"राम! एक क्षत्राणी होने के कारण मैंने कभी हार नहीं मानी| मैं सदा से ही विजयी होती आई हूँ, लेकिन एक बार मुझे रणक्षेत्र में अपमानजनक हार मिली है| इस अपमानजनक हार का बदला लेने की कसक, अब तक मेरे दिल में ज्वाला बनकर धधक रही है| राम! तुम्हें हमारी हार और अपमान का बदला लेना है| मुझे विश्वास है कि तुम ऐसा कर सकोगे| जिस दिन तुम इसका बदला ले लोगो, तब जाकर मेरे कलेजे को ठंडक मिलेगी”|
"मैं तुम्हारे पिताजी के साथ, एक बार नहीं अपितु कई बार युद्ध के मैदान में जाती रही हूँ| मैंने भी अपने पराक्रम से अनेक दानवों को मार गिराया था| दुर्योग से एक दिन हमारा सामना बाली से हो गया| बाली को उसके पिता इंद्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था, जिसको स्वयं ब्रह्मा जी ने अभिमंत्रित कर उसे पहिनाते हुए वरदान दिया था कि रणभूमि में जो भी दुश्मन उसका सामना करेगा, उसकी आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और उसे प्राप्त हो जाएगी| इस वरदान के कारण युद्धरत तुम्हारे पिता की आधी शक्ति उसे प्राप्त हो गई थी| भीषण युद्ध करने के बाद भी तुम्हारे पिता की हार हुई| महाराज बाली से युद्ध हार चुके थे| वे बाली के अपराधी बन चुके थे|”
"बाली ने तुम्हारे हारे हुए पिता के सामने एक चिचित्र शर्त रखी कि या तो वे मुझे बाली के पास छोड़ जाएं या फ़िर रघुकुल का गौरव अपना मुकुट छोड़ जाएं| बड़े असमंजस में पड़ गए थे तुम्हारे पिता| यदि वे मुझे बाली के अधीन कर देते तो उनके पुरुषार्थ पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता| उन पर तरह-तरह के लांछन लगाए जाते| फ़िर कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति, अपनी पत्नि को कैसे किसी दुश्मन के अधीन छोड़ सकता है? अतः तुम्हारे पिता ने अपना गौरव, अपना मुकुट| बाली को देना स्वीकार कर लिया था"|
"बरसों-बरस तक हम पति-पत्नि, बाली से मिली हार को भूल नहीं पाए थे| रह-रह कर वह क्षण हमें याद आता| तब-तब अपनी करारी हार का स्मरण हो आता| हम सदा ही इस चिंता में घिरे रहते थे कि रघुकुल के उस गौरवशाली मुकुट को किस तरह से वापिस पाया जा सकता है?"
"विधि का विधान भी देखो राम! दृष्टि-विहीन ऋषि का श्राप फ़लीभूत हुआ और हम निःसंतान रानियों का सौभाग्य उदित हुआ| पुत्रहीन दंपत्ति को पुत्रवान होने का गौरव प्राप्त हुआ| हमें एक नहीं बल्कि चार-चार पुत्रों की माता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ| तुम चार भाईयों को पाकर हम निहाल हो उठे थे| तुम्हारे जैसे पुत्रों को पाकर हम उस अपमान को लगभग भुला ही बैठे थे”|
“लेकिन जब तुम्हारे पिता ने तुम्हें युवराज पद देने का निश्चय कर लिया था, तब जाकर मुझे वो पुरानी घटना फ़िर याद हो आयी| बरसों पुराना जख्म फ़िर हरा हो गया| मैं कदापि नहीं चाहती थी कि तुम्हारा राज्याभिषेक उस मुकुट से हो, जिसे बाद में बनवाया गया था| हमारा असली मुकुट| हमारे रघुकुल का गौरव, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करती आयी थी, अब वह दुष्ट बाली का गौरव बढ़ा रहा है| रघुकुल के गौरवशाली मुकुट को पाकर दुष्ट बाली अट्टहास करता फ़िरता होगा| वह जब-तक तुम्हारे पिता की निंदा करता होगा| राम! उसका अट्टहास अब भी मेरे कानों में गूंजता रहता है|
“| हे राम! मुझे तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम हमारे अपमान का बदला बाली से अवश्य लोगे| तुम बाली को या तो रणक्षेत्र में हरा कर या फ़िर उसे मारकर, हमारे रघुकुल का गौरव,| हमारा सम्मान लौटा लाओगे| जब तुम चौदह वर्ष का वनवास काट कर वापिस लौटोगे, तब तुम्हारा राज्याभिषेक हम उसी मुकुट से करेंगे"|
"राम! निश्चित ही मैं अब तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए चौदह बरस का वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक हठपूर्वक मांगूगी| मैं जान गई हूँ कि तुमने हमारे यहाँ पुत्ररूप में जन्म इसीलिए लिया है कि तुम अत्याचारी-दुष्ट रावण को मारकर, इस धरा को उसके आतंक से मुक्ति दिलाओगे| मैं तुम्हारे लिए वनवास नहीं भी मांगती, तब भी तुम्हारा वन जाना सुनिश्चित था|”
"जाओ राम| जाओ| बहन कौसल्या से भी तो तुम्हें वन जाने की अनुमति प्राप्त करनी होगी| तुम्हारा वनवास शुभ हो| तुम अपने अभियान में सफ़ल होकर लौटो| मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है,"
कैकेई ने अपने दोनों हाथ बढ़ाते हुए राम को अपनी भुजाओं में भर लेना चाहा| देखती क्या हैं कि| वहाँ तो कोई भी नहीं है| न राम हैं और न ही सीता| हे देव! तो क्या मैं सपना देख रही थी? या भ्रम के भंवर में पड़ गई थी? लेकिन मैं तो अभी-अभी राम से ही बातें कर रही थी| वह तो मुझसे महाराजश्री से दो वरदान मांगने के लिए निवेदन कर रहा था| कह रहा था कि इन दो वरदानों से देश का कल्याण होगा| देवताओं का कल्याण होगा| दानवों का नाश होगा| सनातन धर्म बचेगा आदि-आदि|
कैकेई गंभीरता के साथ इस घटना पर गहराई से सोचने लगी थीं|”भले ही राम अपने महल से चलकर मेरे पास नहीं आया होगा| लेकिन उसने जो कुछ कहा, सच ही कहा था| राम कोई साधारण मानव नहीं है| वह तो इस पावन धरा पर बढ़ते जा रहे पापाचार को समूल नष्ट करने के लिए अवतारी पुरुष होकर हमारे कुल में जन्मा है"|
’दानवों के नाश के लिए कितनी ही बार मैंने महाराज दशरथ जी के साथ युद्ध किया है, लेकिन जितने मारे जाते हैं, उससे कहीं अधिक पैदा हो जाते है| दानवों का हमने बड़ी संख्या में विनाश तो किया, लेकिन कभी रावण तक नहीं पहुँच पाए| सच कह रहा था राम| यदि इनका समूल नाश नहीं लिया गया तो रावण और उसके सहयोगी दानवों का ही इस पावन धरा पर साम्राज्य रहेगा| इनके रहते न तो मानव बच पाएंगे और न ही हमारा सनातन धर्म ही बच पाएगा”
“अब जो भी हो, मुझे राम के साथ खड़ा होना चाहिए| भले ही संसार मुझे दुष्टा कहे| पापी कहे| और भी जो कहना चाहे, कहते फ़िरे| लेकिन मुझे इस अभियान में अपनी हिस्सेदारी का निर्वहन करना ही होगा"| कैकेई जी ने मन बना लिया था कि वे महाराजश्री से दो वरदान मांग कर रहेगी| वे मन ही मन कह उठी|”धन्य हो राम! धन्य हो हरि! आपके दिव्य दर्शन को पाकर मैं धन्य हुई| तुमने मेरी आँखे खोल दीं| , जनकल्याण के लिए, सनातन धर्म की संस्थापना के लिए मैं अपना योगदान देने के लिए सहर्ष तैयार हूँ|”
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