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गुरु श्री गोविन्द सिंह जी

 



Guru Gobind Singh ji, Story & History in Hindi गुरु श्री गोविन्द सिंह जी. ( २२ दिसंबर १६६६- ७ अक्टुबर १७०८)


इस निर्दयस्त समय में जहाँ स्वार्थ और लोलुपता की आंधिंयाँ चल रही हो, जहाँ गलाकाट स्पर्धाएँ चल रही हों, सिर्फ़ धन बटॊरने के लिए नित नए फ़ंडॆ ईजाद किए जा रहे हों, जहाँ आचार-विचार और परंपराओं की धज्जियां उड़ाई जा रही हों, जहाँ आदमी के संवेदना-जगत को क्षत-विक्षत करते हुए उसे खण्डहर में तब्दील किया जा रहा हो, जहाँ खुदगर्जी, फ़रेब और औपचारिकता ही आदमी की पहचान बनती जा रही हो, जहाँ आदमी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की जमीन लगातार छॊटी होती जा रही हो. शब्द- रूप, रस तथा गंध के संवेदनों, भावभूमि के मूल्यवर्ती अहसासों और क्रिया-कलापॊं से वह लगातार अजनबी बनता जा रहा हो. ऎसे कठिन समय में एक प्रश्न उठना लाजमी है कि इनसान कैसे बचे, इन्सानियत कैसे बचे और यह देश कैसे बचे? 

हम कभी इतिहास के पन्ने नहीं पलटते. इसे पलटना और सबक लेना हमने कभी जरुरी भी नहीं समझा. यदि जरुरी समझा गया होता तो फ़िर हमारे झंडॆ-डंडॆ अलग नहीं होते, जाति-पांति की विष-बेल न उगी होती, मत-मतान्तर नहीं होते, विचार धाराएँ अलग-अलग नहीं होती, आपस में विद्वेश नहीं होता. ऊँच-नीच की दीवारें न होती. 

 हम भूल जाते हैं कि आपस की जलन-कुढन के चलते सगा भाई अपने भाई के विरुद्ध तलवार उठा लेता है और अपना ही घर आततायियों की मदद से जलाकर राख कर देता हैं. आपस की बैर के चलते हमने बड़े-बड़े राजघरानों को बरबाद होते सुना है. राना सांगा बावन घाव झेलने के बाद ही पूरे मरुथल में दौड़ लगाते रहे, चेताते रहे कि इन दुश्मनों को अपने स्वार्थ के लिए पनाह मत दो, इन्हें आमंत्रण नही दो. सभी जानते हैं कि आखिर हुआ क्या? इस देश के लुटेरों ने भारत को कई घाव दिए, जमकर लूटा, नगर की नगर जला दिए. हजारों की संख्या में नागरिक हलाक हुए. कितनी ही महिलाऒं ने दुशमन के हाथ नहीं आने की पीड़ा के चलते अपने को अग्नि के हवाले कर दिया. काश हमारे उस समय के तथाकथित राजा-महाराजा, क्षत्रप उस बात को समझ पाते.  केवल एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि शक्तिसिंह ने राणा प्रताप के विरुद्ध अकबर से मिलकर पूरे मेवाड़ की धरती को कलंकित किया. उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक यही सब निर्बाध गति से चलता रहा. यह मात्रा एक कहानी भर नहीं है. सारा पक्का चिठ्ठा इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जो हमारी बेवकूफ़ियों को विस्तार के साथ दर्ज किए हुए है.

धन्य वे वे शूरवीर, वे महात्मा जिन्होंने इस पवित्र माटी में जन्म लिया और देश के पैरों में पड़ी गुलामी की जंजीरों को काट फ़ेंका. यह सब तो हुआ लेकिन इनकी कुर्बानी, इनकी शहादत को जैसे भूला ही दिया गया है. आज हालात जस की तस है. सभी राजनैतिक पार्टियाँ दल की दलदल में फ़ंसी केवल और केवल कुर्सी की लड़ाई में मशगूल हैं. उन्हें न तो देश की परवाह है और न ही अपने जन-धन की. आज भी वही इतिहास लगभग दुहराया जा रहा है और अपना पड़ौसी आँखें दिखा रहा है. इतना सब कुछ होने के बाद भी हम केवल और केवल दोषारोपण करने में मग्न हैं. दूसरों के खोट ढूंढने में लगे हैं.

यह वह समय है जब हमें अपने इतिहास को, अपने उन पूर्वजों को, जो देश के लिए जन्में, देश के लिए मर मिटे, जिन्होंने अपना सुख-चैन, अपना परिवार इस देश की खातिर कुर्बान कर दिया. आज हमें फ़िर से उस इतिहास की ओर मुड़ना है, जहाँ हमारी सारी बेवकूफ़ियाँ, नादानियाँ, कमजोरियाँ दर्ज पड़ी हैं जिनके चलते हमें और देश को गुलामी की भट्टी में जलना पड़ा था. 

गुरुओं की पावन परमपरा हमारे देश की प्राचीन समय से रही है. गुरू सदा से ही अपने आपको ईश्वर में लीन रखता है. उसी तप के चलते वे सिद्धियां प्रप्त करते हैं और दीन-दुखियों पर ही अपनी कृपा नहीं बरसाते, बल्कि वे सामान्य से सामान्य जन को भी भक्ति का मार्ग बतलाते हैं, भटके हुए को रास्ता बतलाते हैं, उनका दुख दूर करते हैं और जरुरत पड़ने पर शास्त्र की जगह शस्त्र भी उठाने पर गुरहेज नहीं करते. 

आज इसी क्रम में आज गुरू गोविन्दसिंह जी को याद कर रहे हैं. याद कर रहे हैं उनकी कुर्बानियों को, उनके देश प्रेम को. धरती माँ के उस महान बलिदानी को याद कर रहे हैं अतीत में छिपे उन ‍षड़यंत्रों को, जिनके चलते उन्हें न जाने कितने शारीरिक और मानसिक आघातों को सहना पड़ा था.

Guru Gobind Singh.jpgगुरू गोविन्दसिंह जी.

सिखों के दसवें गुरू गोविन्दसिंह जी का जन्म बिहार के पटना शहर में सन २२ दिसम्बर १६६६ में नौवें गुरू तेगबहादुर और माता गुजरी के घर हुआ था. उस समय आपके पिता असम में धर्मोपदेश के लिए गए हुए थे. उन्होंने अपनी माताजी से संस्कार पाए और कम उम्र में ही फ़ारसी, संस्कृत, उर्दू की शिक्षा ग्रहण कर ली और एक कुशल योद्धा बनने के लिए बचपन से मार्शल कौशल भी सीख लिया था.

मात्र ग्यारह साल की उम्र में ही आपका विवाह सुन्दरी जी के साथ हुआ था. इनके चार सुपुत्र श्री अजीत सिंहजी, जुझारसिंहजी, जोरावरसिंहजी और फ़तेहसिंहजी. थे. अपने पिता के समान ही वे चारों पुत्र बड़े होनहार और शूरवीर थे.

गुरू गोविन्दसिंहजी अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की तरह ही महान बलिदानी, लेखक, मौलिक चिंतक और अनेकों भाषाओं के ज्ञाता थे. उन्होंने कई धार्मिक ग्रंथों की रचनाएँ की. यही कारण था कि वे “संत सिपाही” भी कहलाए.

उन्होंने मुगलों के विरुद्ध चौदह धर्म युद्ध लड़े और धर्म के खातिर ही उन्होंने अपने समस्त परिवार का बलिदान कर दिया. इसलिए वे सरबंसदानी भी कहलाए. जीवन में आए अनेकों उतार-चढ़ाव के बाद, अनेकों युद्ध में विजयी होने के बाद बिलासपुर की विधवा रानी के अनुरोध पर आनंदपुर चले आए. सन १६९५ में दिलावर खान ने अपने बेटे हुसैन खान को आनन्दपुर पर हमला करने के लिए भेजा. भीषण युद्ध हुआ जिसमें मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया. अपनी हार से बौखलाए दिलावर खान ने फ़िर से शिवालिक पर घेरा डाला. इस बार मुगल सम्राट औरंगजेब ने सेना की अगुवाई के लिए अपने बेटे को आगे किया.

मुगलों के विरुद्ध लड़ते-लड़ते वह एक क्रूर दिन भी उनके जीवन में आया जब उनके दो बेटे चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए और दो बेटॊं को जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया गया. इतनी घनघोर मानसिक पीड़ा को झेलने के पश्चात भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और धर्म की स्थापना के लिए धर्मयुद्ध लड़ते रहे.

आपने अपने जीवन में कई ग्रन्थ लिखे. यथा- चण्डी चरित्र, दशमग्रन्थ, कृष्णावतार, गीत गोविन्द, प्रेम प्रबोध, जाप साहब, अकाल उस्तुता, चौबीस अवतार, गुरू ग्रंथ साहिब तथा विचित्र नाटक आदि.

 वे भविष्य के गर्भ में भी झांक कर देख सकने में समर्थ थे. वे जानते थे कि “गुरू” जैसे पवित्र नाम पर भविष्य में तकरार हो सकती है. इस पद को पाने के लिए ‍षड़यंत्र भी रचे जा सकते हैं. उन्होंने अपने लिखित ग्रंथ  गुरू ग्रंथ साहिब को गुरू का दर्जा देते हुए उपदेश दिया कि आज के बाद इसे ही गुरू माना जाए. उन्होंने पंच प्यारा बनाकर गुरू का दर्जा देते हुए स्वंय उनके शिष्य बन गए. उनकी इस उदारता की मिसाल शायद ही कहीं देखने-पढ़ने को मिलेगी. उन्होंने अपने अनुयायियों को युद्ध की स्थिति में सदैव बने रहने के लिए पांच करार अनिवार्य करवाए. इन पाँचों करार को अपनाते हुए हर सिख भाई अपने को गौरवान्वित महसूस करता है. वे पाँच करार इस प्रकार से हैं.

  • केश रखना- ऋषि-मुनियों की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए केश काटन वर्जित किया.
  • कंघा- बाल हमेशा साफ़-सुथरे रहें. अतः कंघी का होना अनिवार्य था.
  • कच्छा पहनना- इसे पहने से शरीर में स्फ़ुर्ति बनी रहती है.
  • कड़ा- कड़ा जिसे दाएँ हाथ में पहना जाता है. यह हर हमेशा नजरों के सामने बना रहता है. इसके दर्शन मात्र से नियमबद्ध बने रहने और संयमित जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है.
  • कृपाण- तलवार से लगभग आधा अथवा थोड़ा छॊटा हथियार जिसे कृपान कहा जाता है. अपनी आत्मरक्षा के लिए हर सिख अपनी कमर में धारण किए रहता है.


उनके मन में कभी भी जाति-पात को लेकर संकीर्ण विचार नहीं रहे. उनकी नजरों में सभी ईश्वर की संतान थे. अतः उन्हें बराबरी का हक है.  इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि जिन पाँच लोगों को “पंच प्यारे चुना गया, वे सभी अलग-अलग समाज के, अलग-अलग जाति के लोग थे. उन्होंने सभी को “अमृत” का पा कराया और धर्म के रास्ते पर चलने का मंत्र दिया. इस प्रकार उन्होंने समाज में एक ऎसी क्रान्ति का सूत्रपात किया जिससे जाति भेद मिट सकता था. इन्हीं शुद्धतम विचारों से ओतप्रोत गुरु गोविन्द सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की. खालसा शब्द का अर्थ भी हमें समझना होगा. खालसा

याने एकदम निर्मल, विशुद्ध, मन-मस्तिस्क और विचारों में समानता की भावना या कहें बिना किसी मिलावट का विचार रखने वाला- और मर्यादाओं का ध्यान रखने वाला. ईश्वर में विश्वास और धर्म के प्रति आस्थावान व्यक्ति, धर्म और मानवता के रक्षार्थ अपना जीवन कुर्बान कर देने वाला व्यक्ति ही खालसा हो सकता है. सन १६९९ में बैसाखी के दिन आपने खासला पंथ की स्थापना की थी.

बैसाख का वह पवित्र दिन होता है जिस दिन से फ़सल की कटाई प्रारंभ होती है. देश के दूसरे हिस्सों में आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाने की प्रथा रही है, भले ही उसे अलग-अलग नामों से जाता रहा हो.

२२ दिसम्बर सन १६६६ ई. को इस महान आत्मा ने अपने को ईश्वर में विलीन कर दिया. धन्य है भारतवर्ष कि इस पवित्र धरती पर एक महा-मानव ने जन्म लेकर धर्म की स्थापना की और संसार की समस्त मानव जाति को नेक-नियति के रास्ते पर चलने का मार्ग दिखाया.

गुरु गोविन्दसिंहजी सिख धर्म के आन्तिम दसवें गुरु थे. उनसे पहले नौ गुरु हुए, जिनके बारे में हम संक्षिप्त में जानकारियां लेते चलें.

 Guru Nanak Dev ji Story & History in Hindi प्रथम गुरु नानक देव जी 

   जन्म तिथि          गुरु बनने की तिथि        निर्वाण की तिथि         कुल वर्ष जीवित रहे.       -------------------------------------------------------------------------------------------------------      

१५ अप्रैल १४६९       २० अगस्त १५०७          २२ सितंबर १५३९           ६९                ----------------------------------------------------------------------------------------------------------

२. Guru Angad Dev ji, Story & History in Hindi    दूसरे गुरु अंगद देव जी.

३१ मार्च १५०४        ७ सितंबर १५३९            २९ मार्च १५५२             ४८

३. Guru Amar Das Ji, Story & History in Hindi तीसरे गुरु अमर दास जी

५ मई १४७९        २६ मार्च १५५२             १ सितंबर १५७४           ९५


४. Guru Ramdas Ji, Story & History in Hindi चौथे गुरु रामदास जी.

२४ सितंबर १५३४       १ सितंबर १५७४      १ सितंबर १५८१                ४६

५. Guru Arjun Dev ji, Story & History in Hindi   पांचवें गुरु अर्जुन देव जी.

१५ अप्रैल १५६३        १ सितंबर १५८१      ३० मई १६०६                  ४३

६.






Guru Hargobind Singh ji, Story & History in Hindi  छटवें गुरु हर गोविन्द सिंह जी.

१९ जून १५९५        २५ मई १६०६        २८ फ़रवरी १६४४                  ४८

७ 

Guru Har rai ji, Story & History in Hindi   सातवें गुरु हर राय जी

१६ जनवरी १६३०           ३ मई १६४४         ६ अक्टूबर १६६१            ३१

Guru Harkishan Sahib ji, Story & History in Hindi   आठवें गुरु हर किशन साहिब जी

७ जुलाई १६५६             ६ अक्टूबर १६६१      ३० मार्च १६६४             ७

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९. Guru Teg Bahadur ji, Story & History in Hindi   नौवें गुरु तेग बहादुर जी.

१ अप्रैल १६२१             २० मार्च १६६५       ११ नवंबर १६७५           ५४                                                          

१०३, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा(म.प्र.) ४८०-००१                  गोवर्धन यादव.                                                              ( संयोजक / अध्यक्ष.)                                                    मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,                                                  जिला इकाई, छिन्दवाड़ा.











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