कला ( ART ) के विभिन्न पक्ष.
( गोवर्धन यादव.)
इस सृष्टि में यदि कोई सबसे बड़ा कलाकार है तो वह सच माने में ईश्वर ही है. उसने असंख्य चीजे बनाईं. हम अपनी आँखों से जितना भी कुछ देख पाते हैं और वे तमाम चीजे जिन्हें हमारी आँखें नहीं देख पातीं, सभी कला (ART ) के अन्तरगत ही आती है, ऐसा मेरा अपना मानना है.
ईश्वर ने सर्व प्रथम सृष्टि का निर्माण किया..फ़िर असंख्य ग्रह, सूरज, चांद और तारे-सितारे बनाए. इसी क्रम में उसने पृथ्वी का निमार्ण किया. हवा और पानी का निर्माण किया. कितने आश्चर्य की बात है कि हम हवा को महसूस तो कर सकते हैं लेकिन उसे देख नहीं सकते. है न अद्भुत कलाकारी उसकी ?! फ़िर उसने धरती पर असंख्य पेड़-पौधे लगाए. हर पौधा, हर पेड़, एक दूसरे से सर्वथा आकार-प्रकार में भिन्न, अपनी गुणवत्ता में भिन्न. पेड़ और पौधे लगाए. लेकिन उसमें लगने वाले फ़ूलों का रंग भिन्न-भिन्न. कोई एकदम सूर्ख लाल है, कोई पीला है, कोई बैंगनी तो कोई और किसी दूसरे रंग का. हम कल्पना नहीं कर सकते कि उसने आखिर ऐसा कौन-सा रसायन इन पौधो और पेडों में डाला होगा कि एक जात ( किस्म) होते हुए भी अलग-अलग किस्म, अलग-अलग गुणधर्मिता..रंग-रूप,सुगंध भी जुदा-जुदा. क्या यह उसकी जादूगरी (कला) नहीं है तो और क्या है.? ईश्वर ने पानी का निर्माण किया तो उसमें असंख्य जीवों का निर्माण किया, जो अपने आकार-प्रकार और रंग रूप में एक दूसरे से सर्वथा अलग-अलग और गुणधर्मिता में एक दूसरे से भिन्न.
इतने अद्भुत संसार का निर्माण कर देने के बाद, ईश्वर को इस बात की चिंता सताने लगी कि उसकी इस कलाकारी का वर्णण आखिर कौन करेगा? कौन उसके गुणानुवाद का वर्णन करेगा? कौन उसकी प्रतिष्ठा का विस्तार करेगा?. कौन उसकी कला को विस्तार देगा? कौन उसकी कला को संरक्षित करेगा आदि-आदि. अनेकानेक प्रश्नों से घिर चुके ईश्वर ने, न चाहते हुए भी अपनी कला का विस्तार करते हुए जन्म दिया एक प्राणी को, जो आगे चलकर "आदमी" (स्त्री-पुरुष) के नाम से जाना गया. ईश्वर जानता था कि आदमी ही एक मात्र ऐसा प्राणी होगा, जिसमे पास बोलने-समझने की शक्ति होगी. वही उसकी कलाओं में न सिर्फ़ विस्तार करेगा बल्कि उसकी कलाओं को धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचा सकेगा. उसका गुणानुवाद करेगा. उसकी हर लीला को न सिर्फ़ विस्तार से लिखेगा,बल्कि उसे समूचे संसार तक पहुँचाएगा. इसी सोच के चलते उसने मनुष्य नामक प्राणी को बनाकर धरती पर भेजा. अद्भुत है उसकी कला कि एक आदमी की सूरत दूसरे से नहीं मिलती. कभी-कभी अपवाद स्वरुप कोई एक-सा दीख भी पड़े, तो उसने अपनी कला-कौशल का प्रयोग करते हुए, कुछ न कुछ कमी रह जाने दी.
कला की परिभाषा-
कुल मिलाकर कहें कि आर्ट (कला) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएं एक विशेष पक्ष को ही छू कर रह जाती है. कला का स्पष्ट अर्थ भी अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है. यद्दपि उसकी हजारों-हजार परिभाषाएँ की गई हैं.
भारतीय परम्परा के अनुसार "कला" उन सारी क्रिआओं को कहते हैं जिसमे कौशल अपेक्षित हो. इसी विचार से मिलता-जुलता यूरोपीय शास्त्रियों का कथन है कि "कला" में कौशल का होना अनिवार्य है. बात एक ही है. फ़िर कला की प्रकृति भी तो अपने नियम के अनुसार चलती है. कला के साथ सौंदर्य भी एक शक्तिशाली पक्ष सदा से जुड़ा रहा है. अतः कलाकार सृजन करते समय इसमें कुछ जोड़ता-घटाता भी चलता है, जिसमें उसका शारीरिक और मानसिक कौशल का प्रयोग होता है.
‘ लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार, चिंतक एवं मनीषी श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने कला को( साकेत में ) इन शब्दों से परिभाषित किया है.
अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है (साकेत, पंचम सर्ग). इसे आसान तरीके से समझने के ऐसा भी कहा जा सकता है कि-" मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है.
कला का इतिहास-
कला शब्द का प्रयोग संभवतः सबसे पहले भरत के नाट्यशास्त्र में ही मिलता है, फ़िर वात्स्यायन और उशनस ने क्रमशः अपने ग्रंथ "कामसूत्र" और "शुक्रनीति" में इसका वर्णन किया है. कामसूत्र, शुक्रनीति, जैन ग्रंथ-"प्रबंधकोश", कलाविलास, लालितविस्तर इत्यादि भारतीय ग्रंथों में "कला" का वर्णन प्राप्त होता है. अधिकतर ग्रंथो में 64 ( चौसठ ) कलाएं मानी गई हैं. प्रबंधकोश में इसकी गिनती 72 बतलाई गई है. वहीं ललितविस्तर इसकी संख्या 86 बताता है और उनके नाम तक का उल्लेख करता है. कश्मीरी पं.क्षेमेण्द्र ने अपने ग्रंथ "कलाविलास" में 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष संबंधी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभाव संबंधी, 64 स्वच्छकारिता, 64 वैश्याओं संबंधी, 10 भेषज, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं की चर्चा की है. सबसे प्रामाणिक सूची "कामसूत्र" की है.
प्राचीन काल में विद्यार्थियों को केवल शिक्षा ही नहीं दी जाती थी, बल्कि शिक्षा के साथ कलाओं में भी पारंगत कराया जाता था. महाभारत-रामायण आदि ग्रंथों में जानने योग्य सामग्री भरी पड़ी है, लेकिन हम उतना ध्यान न देकर सीधे पाठ करके इतिश्री समझ लेते है. जिस सुन्दर ढंग से शुक्राचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "नीतिसार" के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में कलाओं के बारे में वर्णन किया है, पढ़कर जाना जा सकता है. वैसे तो अनेकानेक कलाएं हैं, लेकिन उन्होंने सिर्फ़ चौसठ कलाओं को ही प्रमुख माना है.
( चौसठ कलाओं में पारंगत भगवान श्री कृष्ण.)
मित्रों, अपने जन्म से लेकर महाभारत के युद्ध तक की, श्रीजी की लीलाओं का हम ध्यान से अध्ययन करें, तो पाते है कि श्रीकृष्ण जी अनेक कलाओं में पारंगत थे और उन्होंने बारी-बारी से उन्हें प्रयोग में लाया था, जैसे -जैसे हम श्रीकृष्णजी के जीवन में प्रवेश करते जाएंगे और उनकी लीलाओं पर गहन चिंतन और मनन करते जाएंगे, उनकी प्रत्येक लीला के छिपी हुई कलाओं के बारे में जानते चले जाएंगे. आइए, हम उन चौसठ कलाओं के नाम जानते चलें.
चौसठ कलाएँ.
1. इतिहास (२)आगम (३) काव्य (४) अलंकार(५) नाटक(६) गायकत्व (७) कवित्व(८) कामशास्त्र (९) दुरोदर (द्यूत), (१०) देशभाषालिपिज्ञान (११) लिपिकर्प (१२) वाचन (१३) गणक (१४) व्यवहार (१५) स्वरशास्त्र (१६) शाकुन (१७) सामुद्रिक (१८) रत्नशास्त्र (१९) गज-अश्व-रथकौशल (२०)मल्लशास्त्र (२१) सूपकर्म (रसोई पकाना) (२२) भूरूहदोहद (बागवानी) (२३) गन्धवाद (२४) धातुवाद (२५) रससम्बन्धी खनिवाद (२६) बिलवाद (२७) अग्निसंस्तम्भ (२८) जलसंस्तम्भ (२९) वाच:स्तम्भन (३०) वय:स्तम्भन (३१) वशीकरण (३२) आकर्षण (३३) मोहन (३४) विद्वेषण (३५)उच्चाटन (३६) मारण (३७) कालवंचन (३८) स्वर्णकार (३९) परकायप्रवेश (४०) पादुका सिद्धि (४१) वाकसिद्धि (४२)गुटिकासिद्धि (४३) ऐन्द्रजालिक (४४) अंजन (४५) परदृष्टिवंचन (४६) स्वरवंचन (४७) मणि-मन्त्र औषधादिकी सिद्धि (४८) चोरकर्म (४९) चित्रक्रिया (५०) लोहक्रिया (५१) अश्मक्रिया (५२) मृत्क्रिया (५३) दारूक्रिया (५४) वेणुक्रिया (५५) चर्मक्रिया (५६) अम्बरक्रिया(५७) अदृश्यकरण (५८) दन्तिकरण (५९) मृगयाविधि (६०) वाणिज्य (६१) पाशुपाल्य (६२) कृषि (६३) आसवकर्म (६४) लावकुक्कुट मेषादियुद्धकारक कौशल.
"कला" के बारे में यूरोपीय साहित्य क्या सोचता है?
यूरोपीय साहित्य में "कला" शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए ज्यादा हुआ है. वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है. कला अर्थात "रचना". रचना कृत्रिम मानी गई है. फ़िर उनकी नजरों में प्राकृतिक सृष्ठी और कला दोनो को ही भिन्न वस्तुएं माना गया है. कला उस कार्य में है जिसे मनुष्य करता है. यहाँ तक की विज्ञान और कला में भी अन्तर माना जाता है, क्योंकि विज्ञान में ज्ञान की प्राधान्यता है, जबकि कला में कौशल की. अतः वे कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को "कला" की संज्ञा दी गई है. कौशलविहिन या बेढब ढंग से किए गए कार्यों को वहाँ कला में कोई स्थान नहीं दिया जाता.
कला का वर्गीकरण:-
पश्चिमी जगत, कला के केवल दो पक्षों को मान्यता देता है. पहला- वे कलाएं जो उपयोग में लाई जाती हैं और दूसरी ललित कला. लेकिन परम्परागत तरीके से देखें तो कला को सात श्रेणियों में रखा जा सकता है. जैसे- (१)स्थापत्य कला (२) मूर्तिकला (३) चित्रकला (४) संगीत (५) काव्य (६) नृत्य और (७) कला- रंगमंच. इन सात कलाओं के अतिरिक्त हम फ़ोटोग्राफ़ी, चलचित्रण, साहित्य (,कविता, कहानी, लघुकथा, लेख आदि) तथा जादूगरी और पाककला को भी इसमें जोड़ सकते हैं.
कला का महत्त्व.-
हमारा संपूर्ण जीवन ही ऊर्जा का महासागर है. जब हमारी अंत्श्चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को एक कला के रूप में उद्घाटित करती है, यही कला "सत्यम-शिवम तथा सुन्दरम" को समन्वित करती है. इसके द्वारा ही बुद्धि-आत्मा का सत्य स्वरूप झलकता है. अतः कहा जा सकता है कि कला उस क्षितिज की भांति है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है. इस विराट संकल्पना को परिभाषित करते हुए कवि मन कह उठा कि-" बिना साहित्य, संगीत, कला विहीन व्यक्ति बिना पूंछ के जानवर जैसा है. ( साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीन )
कविकुल शिरोमणि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जी का कथन है कि "-कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है"
प्लेटो कहते है-" कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है".
टालस्टाय जी का अभिमत है कि- अपने भावों के क्रिया रेखा, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने-सुननए में भी वही भाव उत्पन्न हो जाय-कला है.
संगीत-गायन कला-
कला जब संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं, श्रोताओं को भी मंत्रमुग्ध कर देता है. संगीत केवल मानव मात्र को ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों में भी अमृत रस भर देता है
गायन कला के अद्भुत-बेमिसाल गायक तानसेन जी के दीपक-राग से दीपक जल उठते थे और जब वे तल्लीन होकर राग-मल्हार गाते थे तो वर्षा होने लगती है. संगीत और सुरों की साधना, जब अपने चरम पर पहुँचती है, तो चमत्कार होने लगते है. युद्ध के समय भाट-चारण जब उमंग में आकर, जोश में सराबोर होकर जब कविता का गान करते थे तो योद्धा जोश में भर उठते थे और अपनी थकान भूलकर शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिया करते थे.
नृत्य कला.
संगीत-गायन के साथ ही ललित कलाओं में "नृत्यकला" को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. नृत्य चाहे भरत नाट्यम हो, कथक हो, मणिपुरी हो या फ़िर कुचिपुड़ी, सभी कलाओं में विभिन्न भाव-भंगिमाऒ से युक्त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को जीवन्तता प्रदान करती हैं. शास्त्रीय नृत्य हो या फ़िर लोक-नृत्य, नृत्य-कला से जुड़कर मानव का केवल मन ही नहीं तन भी झूम उठता है.
चित्रकला.
कलाओं ( ARTS ) मे एक और श्रेष्ठ कला आ जुड़ती है जिसे हम चित्रकला के नाम से जानते हैं. चित्रकार प्रकृति में जो-कुछ भी देखता है, वह उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है और रंगों से भरी तुलिका से उसे कागज पर जस-का-तस उतार देता है. पाषाण युग को ही ले लें, चित्रकार ने अपनी चित्रकला का भरपूर प्रदर्शन यहाँ भी किया और उन चित्रों के माध्यम से आखेट करने वाले आदिम मानव की रहस्यमय प्रवृत्तियों, जंगल के खूंखार जानवरों से संघर्षो की कथाओं को उकेर कर उन दिनों को जीवन्तता प्रदान की कि मानव कितने भीषण आघातो को सहकर, अपने को किस तरह से बचा पा रहा था. सिंधुघाटी सभ्यता में पाए गए चित्रों में पशु-पक्षी, मानव आकृतियाँ, देखकर आदिमानव की कला प्रियता को जाना जा सकता है. इसी तरह अजन्ता की बाघ गुफ़ा में चित्रित चित्रों को देखकर हम प्रेम-धैर्य, उपासना, भक्ति, सहानुभूति, त्याग तथा शांति के अनेकानेक पहलुओं से परिचित हो सकते हैं.
चित्रकला की अपनी खास शैलियों और विशषताओं को पहचान कर विद्वावतजनों ने उसे मधुबनी शैली, पहाड़ी शैली, तंजौर शैली, मुगल शैली, बंगाल शैली जैसे शैलियों का नामकरण किया है.
स्थापत्य कला-- मूर्ति कला.
यदि हम भारतीय संस्कृति की मूर्तिकला व उसके शिल्प के दर्शन करना चाहते हैं तो हमें दक्षिण में बने मन्दिरों की ओर रुख करना होगा. मीनाक्षी मन्दिर, वृहदीश्वर मन्दिर, कोणार्क मन्दिर आदि अपनी बेजोड़ स्थापत्यकला के लिए न सिर्फ़ भारत में बल्कि संपूर्ण विश्व में अपना विशिष्ट स्थान और अपनी अनूठी पहचान के लिए प्रसिद्ध है।
लोक कलाएँ
अपनी प्राचीन परम्परा से समृद्ध "लोक कलाएं" भारतीय संस्कृति में आज भी अपनी खुश्बू की महक से सारे वातायण को सुरभित किए हुए है. हालांकि आदिकाल से लेकर अब तक के मानव का इतिहास क्रमबद्ध नहीं मिलता परन्तु यह सहचरी के रूप में ("कला") सदा से ही विद्यमान रही है.
लोककलाऒं का जन्म, भावनाओं और परम्पराओं पर आधारित है, क्योंकि यह जन सामान्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति है. गुजरात में "साथिया", राजस्थान में "माण्डना", महाराष्ट्र में "रंगोली", उत्त्तरप्रदेश में "चौक पूरना", बिहार में "अहपन", बंगाल में "अल्पना", और गढ़वाल में "आपना" के नाम से प्रसिद्ध हैं. लोककलाएं धार्मिक भावों से ओतप्रोत तो होती ही है, जिन्हें अत्यन्त ही श्रद्धा के साथ रचा भी जाता है. विवाह और शुभ अवसरो में लोककलाओं का अपना विशिष्ट स्थान आज भी बना हुआ है.
वास्तु कला.
भारत मे वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण " ताजमहल" है, जिसे विश्व की अपूर्व कलाकृतियों के सात आश्चर्यों में शीर्षस्थ स्थान पर रखा है. लालकिला, अक्षरधाम मन्दिर, कुतुबमीनार, जामा मस्जिद, झूलती मीनार भी वास्तुकला के बेजोड़ उदाहरण है.
साहित्य-
कविता, कहानी- लघुकथा आदि का लेखन भी "कला" की श्रेणी में आते है.
हमें मालुम होना चाहिए कि कविता, कहानी, लेख-आलेख, लोकगीत, लोककथा, लोकपर्व, लोकोक्तियां, लोकनाटक, लोककलाएं, लोक भाषाएं, लोक-संगीत, लोक परंपराएं, लोक कहावतें, लोकगाथाएं तथा पहेलियां आदि सभी साहित्य के ही अंग-प्रत्यंग हैं. ग्रामीण लोग अपने नीरस और उबाऊ जीवन को रसपूर्ण बनाने के लिए जहाँ एक ओर विभिन्न-विभिन्न बोलियों में लोकगीत गाकर अपना मनोरंजन करते है, वहीं लोककथाओं के माध्यम से आनन्दित होते हैं. कभी नाटकों में अभिनय कर एक नया क्षितिज तैयार करते हैं, तो कहीं वे लोकोक्तियों और पहेलियों के माध्यम से अपनी दक्षता और बुद्धिकौशल का प्रदर्शन करते हैं. लोक कहावतों को सामाजिक न्याय की चलती फ़िरती अदालतें भी कहीं जाती हैं. बड़े-से-बड़े विवाद का कम-से-कम समय और शब्दों में अचूक निर्णय देने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है. शुरु से ही लोक जीवन, और लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा ग्रामीण अंचलों में बहुत ही समृद्ध एवं सुसंस्कृत रही है.
इन सबका निर्माता और कोई नहीं, बल्कि वह सरस्वती पुत्र है, वह कवि है, वह साहित्यकार है. जिसने प्रकृति को आराध्य मानकर हृदय में तरंगित होते हुए शब्दों को गूंथ-गूंथकर माँ भारती के लिए गलहार बनाये है. जिस प्रकार सारी सृष्टि का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव ने किया है, उसी प्रकार कलम के धनी कवियों ने भी अनेकानेक लोकों का निर्माण किया है. अतः उसे दूसरा ब्रह्म यूंहि नहीं कहा गया है.
और अन्त में-
हमारी भारतीय संस्कृति, प्राचीन काल से लेकर आज तक की समस्त कलाओं में सत्य, करुणा, समन्वय और सर्वधर्म समभाव को अपने में समेटते हुए उसे निरन्तरता प्रदान करती है. यही कारण रहा कि उसकी अपनी विराट शक्ति ने भारत को ही नहीं, अपितु भारत के बाहर एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया को प्रभावित किया और वहाँ अपनी जड़े फ़ैलाईं. इन सभी कलाओं के माध्यम से हमारा लोकजीवन, लोकमानस तथा जीवन का आंतरिक और आध्यात्मिक पक्ष अभिव्यक्त होता रहा है. कला सदा से ही अपनी संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर मनुष्य को एक ऐसे विशिष्ठ स्थान पर पहुँचा देती है जहाँ वह विशुद्ध रुप से केवल मनुष्य रह जाता है. कला व्यक्ति के मन में बसी स्वार्थपरता, पारिवारिक, धर्म और जाति की सीमाओं को परे हटाते हुए उसे व्यापकता प्रदान करती है. मनुष्य के मन को उदात्त बनाती है और "स्व" के चक्र से निकालकर उसे "वसुधैव कुटुम्बम" से जोड़ती है. यदि हम दूसरे शब्दों में कहें तो "कला" आदमी को मानव की श्रेणी में ला खड़ा करती है.
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103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव 09424356400 (संयोजक/अध्यक्ष मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, 30-12-2020 जिला इकाई, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
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