महुआ के वृक्ष
( गोवर्धन यादव.)
ऊंचे-ऊंचे दरख्तों से उतरकर अंधियारा सड़कों-खेतों, खलिहानों में आकर पसरने लगा था। गांव के तीन चार आवारा लौंडे खटिया के दाएं-बाएं दीनदयाल के हाथ पांव दबा रहे थे। दीनदयाल ने वहीं से पसरे-पसरे आवाज लगाई।
'अरे कल्लू... कहां मर गया रे- देखता नहीं अंधियारा घिर आया है। दिया-बत्ती क्या तेरा बाप करेगा?Ó
“आया हुजूर।“ कहता हुआ कल्लू दौड़ता-हांफता उसके पास आकर खड़ा हो गया। अनायास ही उसके हाथ जुड़ आए थे।
“क्या कर रहा था रे... दिखता नहीं.... गैस बत्ती तो जला ले लपककर”।
'हुजूर, गायों को बांधकर चारा-पानी दे रहा था, बस थोड़ी सी देर हो गई। माफ करें अभी दिया बत्ती करता हूं।
कल्लू ने पेट्रोमैक्स निकाला। हवा भरी, माचिस की तीली दिखाई, थोड़ी ही देर में पेट्रोमैक्स दूधिया रोशनी फेंकने लगा।
दीनदयाल अभी भी चित्त पड़ा अपने थुलथुल शरीर को दबवा रहा था।
गांव के बाहर, लाला दीनदयाल की दारू की भट्टी थी। शाम होते ही वहां अच्छी खासी चहल पहल हो उठती थी। गांव के सारे दरुवे इक_े होने लगते। रूपलाल भी दारू-भ_ी के पास, अपनी टिनमिनी जलाए आलू बोंडे, भजिया-समोसा, तेज मिर्च वाला चिऊड़ा थाली में सजाने लगता। लोग दारू खरीद लाते फिर अपने-अपने झुण्ड बनाकर बैठ जाते और दारू गटकने लगते। दारू के हलक के नीचे उतरते ही कच्चा चि_ा खुलने लग जाता। कभी किसी छिनाल की बात, तो कभी झगड़ा-फसाद की बात हवा में तैरने लगती। सभी बातों में मगन रहते, लगभग वही बात बार-बार दुहराई जाती।
'गुरु... क्या शरीर पाया है... दबाते-दबाते सारी उंगलियां दुखने लगीं।Ó एक चमचा चहका।
'साले... हरामी के पिल्ले, अभी पांच मिनट भी नहीं हुए तेरे को पैर दबाते और तेरे हाथ दुखने लगे। समझता हंू बेटा... तेरे हाथ इतनी जल्दी क्यों दुखने लगे। अरे कल्लू एक पऊआ तो भेजना जरा।Ó लाला ने काउन्टर पर बैठे कल्लू को हांक लगाई।
पव्वे का नाम सुनते ही तीनों के हाथ फिर तेजी से चलने लगे थे। कल्लू ने पूरा साज-समान लाकर खटिया के पास पड़े एक लकड़ी के खोके पर लाकर जमा दिया और वापिस अपने गल्ले पर जा बैठा।
एक ने ढक्कन खोला और ग्लास में उड़ेलने लगा। ग्लास में दारू डालते समय वह इस बात पर विशेष ध्यान दे रहा था कि किसी को कम अथवा ज्यादा न डल जाये। शेष दो बैठे हुए उतावले हुए जा रहे थे, उन्हें इस हरकत से चिढ़ होने लगी थी, उन दो में से एक गुर्राया- 'एक तो साला फोकट का माल, और तू कि एक-एक बूंद गिन-गिनकर डाल रहा है, जल्दी कर साले।Ó जल्दी बोलते हुए वह अपने सूखे ओठों पर जीभ फिराने लगा था।
अब तक तीनों ग्लास भरे जा चुके थे। लपककर तीनों ने ग्लास उठा लिए और एक ही सांस में पूरा गटक गए। पांव दबाते-दबाते एक ने बीड़ी सुलगाई। अब वह बीड़ी तीन लोगों के बीच धुआं उगलती नाच रही थी।
पांव दबाते-दबाते भूरा की नजरें कचरू से जा टकराईं। कचरू बिना दारू पिये, अनमना सा चला जा रहा था, शायद वह गांव जा रहा था। उसके गांव जाने का रास्ता इसी दारू भ_ी के पास होकर निकलता है। भूरा के दिमाग का मीटर तेजी से घूमने लगा था। वह लाला से बोला, 'उस्ताद... एक बहुत ही फाईन आइडिया दिमाग में आया है, हुकुम करो तो बोलूं।Ó टांगें दबाते हुए भूरा चहका।
'समझ गया बेटा- समझ गया। लगता है तेरा हलक फिर सूखने लगा। क्या बाप की दुकान समझ रखी है तूने, जब मुंह उठाया कर दी दारू की फरमाईश...।Ó लाला गरजा।
'नइ-लाला- नइ, ऐसी बात नहीं है। सुनोगे तो नाचने लगोगे, कसम मां की फिर खुशामद भी करोगे और कहोगे, भूरा... हो जाए इस बात पर।Ó भूरा बोला।
'अच्छा तो झट से बता तेरे दिमाग में कौन सी स्कीम घूम रही है।Ó लाला अब थोड़ा नरम पड़ा था।
'लाला- एक दिन तुम बता रहे थे न! मकान बनाना है, लकड़ी की जरूरत है, लकड़ी मिल नहीं रही है। तुमने जंगल के हरामखोरों को खूब पटाया, पर साले माने नहीं।Ó भूरा बोला।
'हां- बात तो तेरी सही है, पर साले साफ-साफ बतलाता क्यों नहीं, आखिर तेरे दिमाग में रेंग क्या रहा है।Ó लाला बोला।
'अरे हुजूर- वही तो बताने जा रहा हूं। कचरू को जानते हो न? अरे वही बाड़ेगांव वाला। बड़ी कड़की में चल रहा है बेचारा। इस साल उसके यहां फसल भी ठीक नहीं हुई और ऊपर से बैल भी मर गया है उसका। पैसे-धेले के लिए गांव-गांव भटक रहा है बेचारा। सरकार, उसकी मदद कर देते तो हमारा भी काम जम जाएगा।Ó भूरा अपनी स्कीम धीरे-धीरे उगल रहा था।
'साला, मतलब की बात जल्दी बतलाता नहीं। बस है कि हांके जा रहा है।Ó लाला को बेहद गुस्सा आ रहा था। 'लाला- बोलने भी तो दो। बीच-बीच में बोल देते हो तो भूल जाता हूं।Ó
'जल्दी बक क्या बोलना चाहता है तू?Óलाला गरजा।
'हुजूर- कचरू के आंगन में चार महुआ के झाड़ हैं, इत्ते बड़े कि दो लोग मिलकर घेरें, फिर भी पकड़ में न आएंगे। कुछ झाड़ सागौन के भी लगे हैं। अड़ी का मामला है। थोड़ी सी रकम सरकाओ, तो बात जम जायेगी। बोलो तो बुलाऊं साले को।Ó भूरा अब अपनी पूरी स्कीम उगल चुका था।
'हां- हां बुला ले हरामी के पिल्ले को।Ó लाला अब थोड़ा नरम पड़ा था। अपने दूसरे साथी को इशारा करते हुए भूरा चहका- 'गुड्ïडू जा तो रे लपक के। थोड़ी ही दूर गया होगा कचरू। जा जरा जल्दी कर।Ó
गुड्ïडू दौड़ता हुआ गया और कचरू को साथ लेता आया।
'जै राम जी की लालाजी।Ó हाथ जोड़कर कचरू लाला की खाट के पास खड़ा हो गया।
'अरे बैठ कचरू बैठ। आज तू यहां से बिना पिए कैसे चले जा रहा है। वो मेरी नजर पड़ गई तुझ पर, तो गुड्ïडू को भेजकर बुलवा लिया।Ó कचरू को स्टूल पर बैठने का इशारा करते हुए लाला उठ बैठा।
लाला का इशारा पाकर भूरा उठा और दारू लेने चला गया, जब वह लौटकर आया तो उसके हाथ में एक पूरी बोतल और पांच ग्लास थे। मुंह साफ करने के लिए चिउड़े का पैकेट वह पहले ही जेब में डाल चुका था। पास पड़े खोखे पर उसने ग्लास जमाया, बोतल खोला और पांचों ग्लास लबालब भर दिए।
बहुत दिनों के बाद दारू से भरा ग्लास कचरू के सामने रखा था। लाला बार-बार उससे ग्लास उठाने के लिए मना रहा था। कचरू भी निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह ग्लास उठाए अथवा नहीं। आखिर जीत तृष्णा की ही हुई। उसने लपककर गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया। इसके बाद एक नहीं-पूरे चार ग्लास खाली कर दिए थे उसने। चार ग्लास हलक के नीचे उतर जाने के बाद वह तेज चिउड़ा चबाने लगा था।
'कचरू, मैंने सुना है कि आजकल तू बहुत परेशानी में चल रहा है और हमको बताया तक नहीं। क्या हम इतने पराए हो गए हैं।Ó लाला के सहानुभूति के दो शब्द सुनकर कचरू की सारी कड़वाहट, एक कड़वे घूंट के साथ ही घुल गई थी। उसने अपनी परेशानियों की गठरी लाला के सामने खोलकर रख दी।
'बस इत्ती सी बात, खैर... परेशान होने की अब जरूरत नहीं है। हम हैं न तेरे साथ।Ó कहते हुए लाला ने जेब से सौ-सौ के पांच नोट निकालकर कचरू के हाथ में थमा दिए। कचरू की आंख से गरमागरम आंसू की दो बूंदें टपक पड़ीं। कृतघ्नता से उसके हाथ जुड़ आए थे।
'कचरू, तुमसे एक बात बतलाना तो भूल ही गया। सुना है तेरे आंगन में महुआ और सागौन के ढेर सारे पेड़ लगे हैं। हमें तो भाई लकड़ी की सख्त जरूरत है। मकान बन रहा है और लकड़ी है कि साली मिल नहीं रही है।Ó
कचरू ने मन ही मन अपने आपको तौला, उसकी समझ में आ चुका था कि लाला आज इतना मेहरबान क्यों है। जो जेब से एक फूटी कौड़ी भी नहीं जाने देता, आज बड़े-बड़े नोट पकड़ा रहा है। एक बार जी में आया कि साफ मना कर दे। पर वह जानता है कि नोटों की क्या कीमत होती है। अगर जेब में नोट न हों तो न धर्म कमाया जा सकता है और न ही पाप किए जा सकते हैं। केवल कुछ दिनों के लिए ही, वह लोगों से उधार मांगते घूूम रहा है पर नोटों की बात मुंह पर आते ही लोग कन्नी काटने लग जाते हैं। जानता है वह कि विगत चार दिनों से उसके घर का चूल्हा जला नहीं। बच्चे भूख से बिलबिलाने लगे हैं। बूढ़ी मां पन्द्रह दिनों से बीमार पड़ी है। नोटों के हाथ में आते ही और भी अनेक समस्याएं धारदार हो उठी थीं। चाहकर भी वह नोट वापिस नहीं कर पाया था। नोटों को जेब के हवाले करते हुए अपने ग्लास में बची दारू एक घूंट में उतार गया और चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
कचरू जाने के लिए उद्यत हुआ ही था कि लाला बोला— कचरू, एक दो दिन में बैल जरूर खरीद लेना और पैसों की जरूरत पड़े तो सीधे चले आना मेरे पास, एक दो दिन में आदमियों को भेज दूंगा तो वे झाड़ काट लायेंगे अरे- हां बैलगाड़ी तो है ही तेरे पास। बैल आ जाए तो लकड़ी भैयालाल के टाल पर पटक आना।
लाला की बातें सुनकर, चलते हुए कचरू के पैरों में जैसे ब्रेक ही लग आए थे। पीछे पलटते हुए कचरू ने लाला से कहा— दस पन्द्रह दिन रुक जाते लाला तो अच्छा रहता। सामने दीपावली का त्यौहार है और सबसे बड़ी अमावस्या भी पड़ रही है। तीज पावन पर हरे-भरे झाड़ काटना ठीक नहीं होता— अपशगुन माना जाता है।Ó
'अच्छा- अच्छा ठीक है, जब तू कहेगा भेज दूंगा आदमियों को। अब तू जा।Ó लाला के शब्दों में जैसे चाशनी ही घुल आई थी।
अंधकार अब गहराने लगा था। अंधकार स्याह-गहरा हो जाए, इससे पूर्व वह गांव पहुंच जाना चाहता था। उसका गांव बाड़ेगांव यहां से लगभग 6-7 कोस दूर था और रास्ता ऊबड़-खाबड़ जंगली। रास्ते में दवा की दुकान देखकर वह रुक खड़ा हुआ। दुकानदार को मां की स्थिति बतलाया और दवा देने की विनती की। दुकानदार ने दो-चार प्रकार की गोलियां दीं। दवा लेने का तरीका भी बतलाया। दवा बंडी में रखते हुए उसने बीड़ी निकाली। बीड़ी जलाकर धुआं उगलने लगा तब दुकानदार ने शेष बचे पैसे लौटा दिए थे। पास में ही अनी साव की किराना की दुकान थी। उसने दो किलो आटा, पाव भर बेसन, हरी मिर्च, धनिया, प्लास्टिक की थैली में खाने का तेल और प्याज खरीदा। चलते समय उसकी नजर अंडों पर भी पड़ी। उसने अंडे भी बंधवा लिए। आज उसने तबीयत से पिया था, अत: लगा कि अण्डे खाना जरूरी है।
घर पहुंचा। देखा। बच्चे सो रहे हैं। बूढ़ी मां कथड़ी में लिपटी एक कोने में पड़ी है। बीच-बीच में उसके खांसने की आवाज आ जाती थी। शायद यह उसके जिंदा रहने का प्रमाण था। झुनिया, उसकी पत्नी दीवार से पीठ टिकाए बैठी थी। शायद उसके लौट आने का इंतजार कर रही थी। आले में रखा भपका टिमटिमा रहा था और काला धुआं उगल रहा था।
सामान की पोटली झुनिया को देते हुए उसने चूल्हा जलाने को कहा, जो चार दिन से सुकड़ा पड़ा था। उसने बंडी में से गोलियां निकालीं। ग्लास में पानी भरा और फिर मां के करीब बैठते हुए, बांहों का सहारा देकर उसे उठाया। दो गोलियां मुंह में डालीं। पानी पिलाया और फिर बांहों का सहारा देकर लिटा दिया। मां का बदन गरम तवे की तरह जल रहा था।
झुनिया ने चूल्हा जलाया और खाना पकाने में जुट गई। बेसन बना चुकने के बाद उसने आटा मांडा और रोटियां सेंकने लगी। मक्के की मोटी-मोटी रोटियों की गंध से पूरा कमरा धमकने लगा था।
झुनिया ने आवाज दी कि वह बच्चों को उठा लाए। बीड़ी के चुट्टे को जमीन से रगड़कर बुझाते हुए वह बच्चों को उठाने का प्रयास करने लगा। एक को उठा कर बिठलाता, तो दूसरा पसर जाता। दूसरे को उठाता तो पहला पसर जाता। जैसे-तैसे उसने बच्चों को जगाया। झुनिया ने तब तक थाली लगा दी थी। सामने थाली देखकर बच्चे जैसे झपट ही पड़े थे और ठूंस-ठूंस कर रोटियां खाने लगे थे। बच्चों को इस तरह खाना खाते देख बड़ी खुशी हो रही थी। काफी दिनों बाद बच्चों ने खाना खाया था। मारे खुशी के उसकी आंखें डबडबा आईं। खाना खाकर बच्चे पैर तन्ना कर सो जाते हैं।
कचरू उठा और आले में रखे बम्फर को उठा लाया। घर आने से पहले वह एक पूरी शीशी लाला के दुकान से उठा लाया था। उसने ढक्कन खोला। ग्लास में उड़ेला और मां को सहारा देकर उठाते हुए बोला ''बऊ जे थोड़ी सी दवा है- ले ले।ÓÓ दारू की तीखी गंध ने बुढिय़ा के बूढ़े शरीर में हलचल पैदा कर दी थी, कांपते हाथों से उसने ग्लास पकड़ा और गटागट पी गई। झुनिया ने थाली लगा दी थी। बमुश्किल बुढिय़ा ने एक-सवा रोटी खाकर थाली सरका दी। कचरू को आज बड़ा ही अच्छा लग रहा था कि मां ने बड़े दिनों बाद कुछ खाया है।
झुनिया अब भी रोटियां सेंक रही थी। शायद यह उसकी आखिरी रोटी थी। रोटी सेंककर वह चूल्हे में जलती हुई लकडिय़ों को बाहर निकालकर बुझाते हुए कचरू के तरफ मुंह घुमाकर बैठ गई। कचरू को भी शायद इसी क्षण का इंतजार था। उसने ग्लास खंगाला। दारू से भरा और झुनिया की तरफ बढ़ा दिया। उसने सहज रूप से ग्लास ले लिया और एक ही सांस में पूरा उतार दिया।
तीखे-कड़वे घूंट के अंदर जाते ही पेट में हलचल मचनी शुरू हो गई। उसके काले गाढ़े रंग पर, एक और रंच चढ़ आया था, जिसे चाहते हुए भी वह कचरू की नजरों से छिपा नहीं पाई। भपके की टिमटिमाते मद्धम रोशनी में दोनों की नजरें मिलीं। दिल एक बार जोरों से धड़का। अपने आप ही उसकी नजरें झुक आई थीं। लजाते हुए उसने फिर से ग्लास कचरू की ओर बढ़ा दिया था। शायद वह और थोड़ी सी लेना चाह रही थी।
दो-चार घूंट हलक के नीचे उतरते ही वह कुछ दार्शनिक हो चली थी। ग्लास की ओर देखते हुए वह सोचने लगी थी कि कितनी अहम चीज होती है दारू हम आदिवासियों के लिए। अगर दारू का सहारा न मिला होता तो हमारे जंगल में रह पाने की कल्पना ही बेमानी होती। माना कि हम प्रकृति-प्रेमी हैं, तभी तो बियावान जंगल में, जंगली-जानवरों, विषैले कीट-पतंगों के बीच हंसी खुशी से रह लेते हैं। डर नाम की कोई चीज होती है, यह भी भूल जाते हैं। डर तो आखिर डर ही होता है। वह भला किसे नहीं डराता। दिन में अक्सर जंगल शांत रहता है। पर जैसे ही दिन ढलता है, अंगड़ाई लेकर जाग खड़ा होता है। फिर जंगल पूरी तरह जागता रहता है। यदि उसे बीच में झपकी भी आ जाए तो शेरों की दहाड़ के साथ ही वह चौंंक-चौंककर उठ बैठता है। कलेजा चीर देने वाली बर्फीली हवाएं भी उसे कंपा जाती हैं। ऐसी भयावह रात में कौन भला यहां रुकना चाहेगा। दिन में पहाड़ भले ही अच्छे लगें, पर अंधियारे में घिरते ही वे दैत्य के-से दिखने लगते हैं। शायद दारू ही ऐसा शक्तिशाली पेय है जो हम आदिवासियों के दिलों में हिम्मत का जज्बा बनाए रखता है। सारे प्रकार के डरों से मुकाबला करने की हिम्मत जुटाए रखती है। शायद यही कारण था कि दारू हम आदिवासियों की दिनचर्या का एक आवश्यक अंग बन गई है। हमारी संस्कृति में रच-बस गई है।
हाथ में ग्लास थामे झुनिया, सिर लटकाए अपने ही विचारों की दुनिया में मस्त थी। कचरू को ऐसा लगा कि कुछ उसे ज्यादा ही चढ़ गई है, तभी तो वह सिर लटकाए बैठी है। उसने उसे झंझोड़ा तब जाकर वह जंगल के तिलिस्म के घेरे को तोड़कर बाहर आ सकी थी। कुछ चैतन्य होते हुए उसने बची हुई दारू को हलक के नीचे उतार लिया।
अब वह थाली लगाने लगी थी। थाली लगाकर उसने कचरू की ओर बढ़ा दिया। कचरू ने खाना खाया और दीवार से पीठ टिकाकर बीड़ी पीने लगा। बीड़ी पीकर वह पास ही पड़ी कथड़ी पर जाकर पसर गया। झुनिया ने भी खाना खाया। जूठे बर्तन समेट कर एक ओर रखते हुए वह भी कचरू के पायताने आकर लेट गई। कचरू ने उसकी बांह पकड़कर अपनी ओर खींचा। वह भी सहज ही उसकी उसकी ओर खिंची चली गई थी। शायद वह इसके लिए, पहले से ही मानसिक रूप से तैयार भी थी। कचरू ने वहीं से पड़े-पड़े आले में जल रहे भपके को फंूककर बुझा दिया। अब उसकी खुरदरी हथेलियां झुनिया के बदन पर फिसलने लगी थीं।
मुर्गे की बांग के साथ ही वह उठ बैठा। बऊ के पास सरकते हुए वह अपनी उंगलियों के पोरों को बुढिय़ा के नथूनों तक ले गया। सांसें चल रही हैं यह जानकर उसे अच्छा लगा। उसने मन ही मन बड़े देव को धन्यवाद दिया और बाड़ी में निकल आया।
बाड़ी की ओरती से पीठ टिकाकर बैठते हुए उसने बंडी में से बीड़ी निकाली। चकमच चमकाई। जलता हुआ कपास बीड़ी के मुंह पर लपेटा और फूंक-फूंक करते हुए धुआं उगलने लगा।
बीड़ी को ओठों से एक ओर दबाते हुए उसने बंडी में हाथ डाला। नोटों को निकाला और गिनने का उपक्रम करने लगा। सौ-सौ के चार और दस-दस के पांच नोट अब भी शेष बचे थे। धुआं उगलते हुए वह भावी योजना को क्रियान्वयन करने की सोचने लगा। आज हाट बाजार का दिन है। घाटी के नीचे जमकर बाजार लगेगा। सप्ताह में पडऩे वाला त्यौहार से पहले का बाजार है। ढेरों सारी दुकानें लगेंगी। बच्चों और घरवाली को लेकर वह हाट पहुंचेगा। धन्नु हलवाई की दुकान पर पहुंचकर वह सभी को गुड़ की जलेबी खिलायेगा। फिर बच्चों के कपड़े-लत्ते खरीदेगा। बऊ और झुनिया के लिए साडिय़ां खरीदेगा।
दोनों की साडिय़ां भी तो तार-तार हो चली हैं। कपड़ों की कमी तो उसके स्वयं के पास है पर इस साल जैसे-तैसे काम चला लेगा। पर अंगोछा जरूर ही खरीदना होगा। सिर ढकने को तो इसकी जरूरत पड़ती ही है। कुछ राशन पानी भी भरना जरूरी है। उसने गणित लगाया कि इन सब पर लगभग तीन-साढ़े तीन सौ खर्च हो ही जाएंगे। बचेंगे डेढ़ दो सौ के करीब। तो वह एक सौ का नोट घरवाली के पास रख छोड़ेगा। आड़े बखत में काम आएंगे। पचास रुपए वह स्वयं के लिए बचाकर रखेगा।
सहसा उसे ध्यान आया कि काला-मुर्गा-नींबू-रेशमी धागे लेना तो वह भूल ही गया। कल बड़ी अमावस्या है। हर साल वह बड़े देव को इसी दिन काला मुर्गा चढ़ाता आया है। भगत इसी दिन धागा मंतर कर देता है। बच्चों के लिए वह धागा बनवायेगा। देव पर चढ़ाने को दारू भी तो लगती है। खैर! दारू तो सारे सगा लोग मिलकर उतारेंगे ही दारू वहीं से मिल जाएगी।
जोड़-घटाने में इतना निमग्न था कचरू कि उसे याद नहीं रहा कि बीड़ी कभी की बुझ गई और झुनिया बर्तन मलने के लिए बाड़े में आ चुकी है। झुनिया ने उसे दो-तीन बार टोका कि वह क्या सोचा रहा है। पर वह तनिक भी ध्यान नहीं दे पाया था।
बर्तन मलते हुए झुनिया ने फिर टेर लगाई। अब की बार उसने ऊंचे स्वर में आवाज दी थी। अपनी काल्पनिक दुनिया से निकलते हुए कचरू हड़बड़ा कर उठ बैठा। झुनिया बर्तन मलते-मलते उसकी इस दशा को देखकर खिलखिला कर हंस पड़ी थी। झुनिया का इस तरह हंसना उसे अच्छा लग रहा था। लगभग दांत निपोरते हुए झुनिया ने ताना उछाला, 'का सोच रओ थे बैठे-बैठे।Ó हलक को थूक से गीला करते हुए कचरू ने कहा, 'कुछ तो नई, हाट-बाजार से कपड़ा-लत्ता-तीज-त्यौहार का सामान खरीदने वास्ते सोच रहो थो।Ó
'रात खें तो खूब मजा मारी तैने।Ó झुनिया ने शर्माते हुए कहा।
झुनिया के कठोर मगर उन्नत उरोजों से खेलते हुए तो कभी नितम्बों पर हाथ फेरकर उत्तेजित करते हुए का दृश्य आंखों के सामने एकबारगी घूमने लगा। उसके कान गरम होने लगे थे। सांसें तेज होने लगी थीं। वह और कुछ सोचे, झुनिया ने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा, 'जे ते बता, इत्ते सारे पइसा कहां से लाव तूने।Ó पैसों के बारे में पत्नी का पूछना वाजिब था। विगत पन्द्रह दिनों से वह पैसों के लिए, कभी इस गांव तो कभी उस गांव घूम रहा था। गिड़गिड़ाने के बाद भी उसे रकम नहीं मिल पाई थी। आज अचानक इतने सारे पैसों को देखकर उसका पूछना उचित भी था।
कचरू मन ही मन सोच रहा था कि बात कहां से शुरू की जाए। बात छिपाने से
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