तीसरी मंजिल
बादल के टुकड़े को आसमान में तैरता देख वह छत पर चली आयी थी। आरामकुर्सी पर बैठते हुए उसने अपने लम्बे-घने-गीले बालों को पीछे झुला दिया और टकटकी लगाए बादलों को देखती रही।
बंजारा बादलों की बस्तियाॅं बसने लगी थी। कुछ आवारा-घुमन्तु किस्म के बादल अब भी हवा की पीठ पर सवार होकर यहाॅं-वहाॅं विचर रहे थे। सूरज भी भला कब पीछे रहने वाला था। वह भी मस्ती मारने पर उतर आया। कभी वह उस बस्ती में जा घुसता तो कभी दूसरी में। जब वह बादलों की ओट होता तो एक मोरपंखी अंधियारा सा छाने लगता और जब बाहर निकलता तो चमचमाने लगता था।
ऋतुओं में वर्षा-ऋतु उसे सर्वाधिक प्रिय है। इन दिनों, न तो तेज गर्मी ही पड़ती हैं, न ही हलक बार-बार सूखता है और न ही ठिठुरन भरी ठंड ही सताती है। मंथर गति से इठला-इठलाकर चलती पुरवाई, पोर-पोर में संजीवनी भरने लगती है। पेड़-पौधे नूतन परिधान पहिन लेते हैं। जवान होती ललिकाएॅं वृक्षों के तनों से लिपटकर आसमान से बातें करने लगती हैं। लाल-पीले-नीले-बैंगनी-गुलाबी फूलों से यह अपना श्रृंगार रचाती है। मोर नाचने लगते हैं। पपीहे की टेर अलख जगाने लगती है। नदी-नाले मुस्कुराने लगते हैं। ..... के कण्ठों से सरगम फूट निकलता है। धरती पर हरियाली की कालीन सी बिछ जाती है। लगभग समूचा .............................ही ........... मुस्कुराने लगता है।
देर तक वह बादलों का उमड़ना-घुमड़ना देखती रही। तभी हवा का एक झोंका माटी की सोंधी-सोंधी गंध लिए, उसके नथुनों से आ टकराया। उसने सहज ही अंदाजा लगाया कि कहीं आसपास पानी बरस रहा है। संभव है, यहाॅं भी पानी बरसने लगे। वह और कुछ सोच पाती, पानी झम-झमाकर बरसने लगा। पानी में भींगते हुए वह अपनी स्मृतियों की घुमावदार सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए बचपन की देहलीज पर जा पहुॅंची।
माॅं-बाबूजी, दादी, दो छोटी बहनें, भाई कारिडाॅर में बैठे बतिया रहे थे। गरज-बरस के साथ बादल बरस रहे थे। वह चुपचाप उठी और आॅंगन में निकल आयी। देर तक पानी में भींगती रही। अब वह फिरकी की तरह गोल-गोल घूमकर नाचने लगी थी। फ्राक के छोरों को अपनी उंगलियों में दबाये वह थिरकती रही। नाचते समय उसे लगा कि वह मोर-बनी नाच रही है। बीच-बीच में मोर की सी आवाज भी निकालते जाती। कभी लगता कि तितली बनी-रंग-बिरंगे पंखों को फैलाये, उड़ी चली जा रही है। कभी इस फूल पर जा बैठती तो कभी उस फूल पर।
माॅं चिल्लाती श्सर्दी हो जायेगी... बुखार पकड़ लेगा।श् दादी बड़बड़ाती श्निमोनिया हो जाएगा।श् जितने मुॅंह, उतनी ही बातें। वह सभी का कहा-अनसुना कर देती। कनखियों से उसने बाबूजी की ओर देखा। वे तालियाॅं बजा-बजाकर उसका उत्साहवर्धन कर रहे थे। अब वह और भी इठला-इठलाकर नाचने लगी थी। वह तब तक नाचती रहती थी, जब तक बादलों ने बरसना बंद नहीं कर दिया था।
बारिश के थमते ही उसके पैर भी स्थिर हो जाते। दौड़कर वह भीतर आती और माॅं से आकर लिपट जाती। माॅं तौलिए से उसका भीगा बदन सुखाने लगती। दादी का बड़बड़ाना अब भी जारी था। वह दादी से आकर चिपक जाती। दादी के कपड़े भींगने लगते। वे झिड़कियाॅं देने लगती। दादी के चेहरे पर समय की मकड़ी ने ढेरों सारे महीन जाल बुन दिए थे। वे अब गहराने लगे थे। दादी बड़बड़ती जाती... बुदबुदाती जाती और अपनी खुरदुरी हथेलियों से उसका गाल सहलाती जाती। एक खुरदुरे मगर मीठे अहसास से वह भींग उठती।
बचपन से जुड़ी अनेक मीठी-मीठी स्मृतियाॅं विस्तार लेने लगी थी। वह हड़बड़ा उठी। उसकी समूची देह राशि पीपल के पत्ते की तरह थर-थर काॅंपने लगी थी। उसने पीछे पलट कर देखा अभिजीत खड़ा मुस्कुरा रहा था।
बारिश के ही दिन थे। वह छत पर बैठी अपने गीले बालों को सुखा रही थी। वह दबे पाॅंव छत पर चढ़ आया और चुपके से उसने, उसे अपनी बांॅहों में भर लिया था। इस अप्रत्याशित घटना से वह बिल्कुल ही बेखबर थी। हड़बड़ा उठी वह। उसे अभिजीत पर क्रोध हो आया था और वह बेशरम खी-खी करके हॅंस रहा था।
अब वह कुछ ज्यादा ही हरकत करने पर उतर आया था। कभी वह गुदगुदा कर हॅंसाने का असफल प्रयास करता। कभी बालों की लटों से खेलने लगता। अब की तो उसने हद ही कर दी थी। पीछे से लगभग, पूरा झुकते हुए उसने अपने ओंठ उसके अधरों पर रख दिए थे। उसका समूचा शरीर सितार की तरह झनझा उठा था। साॅंसें अनियंत्रित सी होे लगी थी। पलकें मूंदने सी लगी थी। बेहोशी का आलम पल-प्रतिपल बढ़ता जा रहा था। बादल भी उस दिन जमकर बरसे थे। होश तो उन्हें तब आया था, जब बादलों ने बरसना बंद कर दिया था और सूरज उनके जिस्मों को गरमाने लगा था।
उसने आहिस्ता से आॅंखें खोली। अभिजीत वहाॅं नहीं था। हो भी कैसे सकता था। विगत कई वर्षों से उसने उसकी सुध तक नही ली थी। अभिजीत की याद ने उसे लगभग रूला ही दिया। डबडबाई आॅंखों में उसके कई-कई चेहरे आकार-प्रकार लेते चले गए।
उसे अब भी याद है, शादी के बाद, वह कई महिनों तक अपनी फैक्टरी नहीं जा पाया था। दिन-रात... सुबह-शाम वह परछाई बना आगे-पीछे डोलता रहा था। बाद में वह लापरवाह होता चला गया। जानबूझकर... या... योजनाबद्ध तरीके से।
यह वह नहीं जानती। माह में एक-दो दिन.... पूरा सप्ताह... फिर पूरे-पूरे माह वह गोल रहने लगा। अभिजीत से निरंतर बढ़ती दूरी ने उसे लगभग अशांत ही कर दिया था।
वह जब भी घर लौटता, वह किसी भूखी शेरनी की तरह उस पर झपट पड़ती। प्रश्नों के पहाड़ उसके सामने खड़ा कर देती। वह किसी बहरूपिये की तरह अपने चेहरे पर मासुमियत का मुल्लमा चढ़ा लेता। सिर झुकाए खड़ा रहता। उसका इस तरह मौन ओढ़ लेना, उसे ज्यादा विचलित कर देता था। सारे हथियारों का प्रयोग कर चुकने के बाद, उसका तरकश लगभग खाली हो जाता। वह फफककर रो पड़ती और उसके सीने पर अपना सिर टिकाए रोती रहती-उसके कपड़े भिंगो देती।
टीसें अब समुद्र का सा विस्तार लेने लगी थी। वह नहीं चाहती थी कि अभिजीत की याद उसे जब-तब रूला जाए। अनमनी सी वह उठ बैठी और नीचे उतर आयी।
मन बलात और शरीर थका-थका लगने पर भी वह कमरे में चक्कर काटती रही। कभी उस कुर्सी पर जा बैठती, कभी दूसरी पर। एक कमरे में जा घुसती तो दूसरे से बाहर निकल आती। वह जिस भी वस्तु को देखती-छूती-उसे अभिजीत की उपस्थिति का अहसास होता। उसकी गर्म-गर्म साॅंसों की गर्माहट मिलती। वह उसे जितना भुलाने की कोशिश करती वह उतना ही याद आता। खिसियाकर उसने अपनी दोनों हथेलियों से कानों को कसककर दबा लिया था और आॅंखें भी बंद कर ली थी ताकि उसे न तो कुछ दिखाई दे सके और न ही सुनाई पड़े। पत्थर को अहिल्या बनी वह न जाने कितनी ही देर तक बैठी रही थी।
घड़ी की ओर देखना उसने लगभग बंद ही कर दिया था। जानती थी वह घड़ी के तरफ देखे अथवा न भी देखे तो क्या फर्क पड़ने वाला था। जब वह अभिजीत को रोक नहीं पायी तो भला वक्त को कहाॅं रोक पाती। वक्त को अब तक कौन रोक पाया है। उसमें न तो इतनी हिम्मत ही है और न ही सामथ्र्य कि वह वक्तरूपी अश्व को बाॅंध पाए-रोक पाए। एक दिन होश में आकर उसने दीवार घड़ी के सेल ही निकालकर फेंक दिए थे।
अंॅंधकार अब भी आॅंखों के सामने खड़ा ताण्डव कर रहा था। चीजें अस्पष्ट व धुॅंधली दिखायी पड़ रही थी। बैठे-बैठे उसे उकलाई सी भी होने लगी थी। किसी तरह दीवार का सहारा का सहारा लेकर वह उठ खड़ी हुई और वाश-बेसिन तक जा पहुॅंची। आॅंखों पर पानी के छींटें मारे... कुल्ला किया और तौलिए से मुॅंह पोंछती हुई कुर्सी पर आकर धम्म से बैठ गयी।
तौलिए से मुॅंह पोंछते हुए उसकी नजर टेबल पर पड़े अखबार पर जा पड़ी। अखबार के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे। न चाहते हुए भी उसने अखबार उठा लिया और पढ़ने लगी।
राज्य की नई दुनिया का 28 जुलाई 02 का ताजा अंक उसके हाथ में था। मोटी-मोटी हेड लाईनों पर नजरें फिसलते हुए आगे बढ़ जाती। समाचारों को डिटेल में पढ़ने में उसे अब रूचि नहीं रह गई थी। राजनैतिक घटनाक्रम उसे उबाउ से लगते। वह पन्ने पलटती रही। समाचार-पत्र के आखिरी पन्ने पर एक ज्वालामुखी का चित्र छापा गया था। चित्र के नीचे बारीक अक्षरों में कुछ लिखा भी था। अब वह ध्यानपूर्वक पढ़ने लगी थी।
लिखा था अमेरिका के हवाई द्वीप स्थित ज्वालामुखी किलाउ से लावा बहकर प्रशांत महासागर में प्रतिदिन गिर रहा है। तीन जनवरी 83 से ज्वालामुखी रूक-रूक कर लावा उगल रहा है। यहाॅं हर वर्ष लाखों लोग इसे देखने आते हैं। तीन हफ्तों से दर्शकों की संख्या में इजाफा हुआ है।
टकटकी लगाए वह ज्वालामुखी का चित्र देखती रही। किलाउ और उसमें कितनी समानताएॅं। वह भी अपने अंदर एक ज्वालामुखी पाले हुए है। उसमें भी तो निरन्तर लावा उबल रहा है। वह कब फट पड़ेगा, नहीं जानती। पर इतना जरूर जानती है कि वह जब भी फटेगा, उसका अपना निज उसका अपना अस्तित्व, यहाॅं तक कि उसका अपना वर्चस्व सभी कुछ जलकर राख हो जाएगा। फिर तेज गति से चलने वाला अंधड़ सब कुछ दूर-दूर तक उड़ा ले जाएगा। वह सोचने लगी थी।
पत्र में तो यह भी लिखा था- 3 जनवरी 83 से किलाउ रूक-रूककर लावा उगल रहा है। दिन... तारीख... महीना यहाॅं तक सन् भी उसे ठीक से याद नहीं परंतु इतना भर याद है कि विगत कई वर्षों से उसके अंदर लावा उबल रहा है, धधक रहा है। अभिजीत की याद में बहता लावा... उसके बिछोह में धधकता लावा। लावा यदा-कदा उसकी शिराओं में आकर बहने लगता है। लावा कब तक यूॅं ही बहता रहेगा... यह वह नहीं जानती।
तभी उसने महसूस किया कि अंदर कुछ रदक गया है और लावा तेजी के साथ बहने लगा है। उसकी साॅंसे अनियंत्रित-सी होने लगी। दिल एक अजीब-सी धड़कने लगा है। जीभ तालू से जा चिपकी है। उसकी नाजुक कंचन-सी काया पीपल के पत्ते की तरह थर-थर कांपने लगी है। शरीर पर बुद्धि की पकड़ ढीली पड़ने लगी है। बेहोशी का आलम उसकी सम्पूर्ण संचेतना पर हावी होने लगा है। मिट्टी की कच्ची दीवार की तरह वह भरभराकर गिर पड़ी। वह कितनी देर तक संज्ञाहीन पड़ी रही थी, उसे कुछ भी याद नहीं।
चेतना धीरे-धीरे लौटने लगी थी। सोचने-समझने की बुद्धि पुनः संचरित होने लगी थी। होश में लौटते हुए उसने महसूस किया कि वह फर्श पर औंधी पड़ी हुई है। कपड़े-लत्ते सब अस्त-व्यस्त हो गए हैं। नारी सुलभ लज्जा के चलते उसने अपनी नंगी टांगों को फिर खुले वक्ष को ढंका और उठ बैठने का उपक्रम करने लगी। अपनी कमजोर टांगों पर किसी तरह शरीर का बोझ उठाते हुए वह पुनः बिस्तर पर आकर पसर गई। उसका माथाा अब भी भिन्ना रहा था। एंेठन के साथ-साथ पोर-पोर में दर्द भी रेंग रहा था। इतना सब हो जाने के बावजूद भी यादों के कबूतर उसकी स्मृति की शाखों पर बैठे गुटरगूॅं कर रहे थे।
वह सोचने लगी थी- ष्कितने दारूण दुःख दे रहे हो तुम मुझे अभिजीत। आखिर क्या कुसूर था मेरा? क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा? क्या प्यार करने की इतनी निर्मम परिणति होती है? तुम इतने क्रूर निकलोगे, इसकी तो मैंने कल्पना तक नहीं की थी। कितनी ही रातें मैंने जाग-जागकर तुम्हारा इंतजार किया था। क्या तुम्हें पल-भर भी याद नहीं आयी? तुमने पलटकर तक नहीं देखा कि तुम्हारी शशिप्रभा किन हालातों में जी रही है। इस तरह तड़पा-तड़पा कर मार डालने से तो अच्छा था कि तुम मुझे जहर ही दे देते। इन भीषण यंत्रणाओं से मुक्ति तो मिल जाती। गला ही घोंट देते, मैं उफ तक नहीं करती। किश्त-किश्त जिन्दगी जीते हुए मैं तंग आ गयी हूॅं। ये अंतहीन टींसे... ये अंतहीन पीड़ायें... उफ्... अब मैं पलभर भी झेल नहीं पाउंगी।
मैं भी मूर्खा निकली... जो तुम्हारी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी। तुम्हारे प्यार को सर्वोपरि मानकर ही तो मैं तुम्हारे साथ भाग निकली थी। रंगीन सपनों ने भी क्या कम भरमाया था मुझे। कितना बड़ा कल्पना-संसार रच रखा था मैंने अपने आसपास। परिन्दे की तरह उन्मुक्त गगने में विचरती रही थी। भूल गयी थी कि कभी जमीन पर वापिस आना भी पड़ सकता है।
वह रात भी कितनी भयंकर... कितनी निर्मम... काली घनेरी रात थी। मैं बेखौफ होकर तुम्हारे साथ हो ली थी। इस अंधी रात की सुबह इतनी पीड़ादायक.... होगी... इसका तो मुझे गुमान तक नहीं था। इस बात का भी तनिक ध्यान नहीं आया कि मेरे इस तरह घर से भाग जाने के बाद माॅं-बाबूजी पर क्या बीतेगी? जवान होती बहनों को कौन अपनी चैखट पर जगह दे पाएगा? भाई का क्या होगा? क्या वह गर्दन उंची किए समाज में चल पाएगा? किस-किस के फितरे सुनते रहेगा।
तुम मेरे साथ हो... सदा-सदा के लिए... हमेशा के लिए... बस इसी ख्याली विश्वास के जहरीले कीड़े ने मेरी जिन्दगी में... अपने खूनी पंजे गाड़ दिये हैं। जिस विश्वास को मैंने किश्ती जानकर सवार हो ली थी वह एक ही झटके में किरची-किरची होकर बिखर जाएगी... नहीं जानती थी। उमड़ते-घुमड़ते बड़बड़ाते... दहाड़ते समाजरूपी समुद्र से टक्कर लेने की जिद कितनी नाकारा... कितनी नाकाफी सिद्ध हुई है... आज जान पायी। तुम साथ होते तो जीने-मरने का आनन्द लिया जा सकता था पर तुम इतने डरपोक... इतने बुजदिल... निर्मोही निकले कि बीच सफर से ही किनार कर गए। किसे पुकारती मैं मदद के लिए ? किसके हाथ जोड़ती? किसके आगे गिड़गिड़ाती? कौन सुनने वाला था? कौन बचाने आने वाला था? इस बड़बड़ाते सागर की चीख के आगे, मेरी चीख लगभग गुम होकर ही रह गई थी।
लोगों को पता चला कि यह तो घर छोड़कर भागी हुई लड़की है। लोगों के दिल में सहानुभूति का ज्वारभाटा मचलने लगा था। औरतों के प्रति सहानुभूति का अर्थ जानते हो? सबकी आॅंखों में वासना के ज्वारभाट मचल रहे थे। सहानुभूति की आड़ में एक जवान जिस्म की चाहत थी सभी के मन में। अब तुम्हीं बताओ अभिजीत... कहाॅं जाए तुम्हारी शशि। माॅं-बाप-भाई-बहन यहाॅं तक सगे संबंधियों ने भी अपने-अपने द्वार मेरे लिए हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर लिए हैं।
मानती हूॅं तुमने ढेरों सारी दौलत... मकान... ऐशो-आरा की चीजें... सभी मेरे नाम कर दी है। पर बगैर तुम्हारे क्या मैं उसका उपभोग कर पाउंगी?
तुम्हारा किया-धरा अब समझ में आने लगा है। दरअसल... जिसे मैं प्यार समझी बैठी थी, वह प्यार-प्यार न होकर महज एक वासना का नंगा खेल था। तुमने जब जी चाहा... जहाॅं जी चाहा... मेरी जवानी को चादर की तरह बिछाते रहे हो। जानते हो... प्यार और वासना के बीच एक झीना-सा परदा होता है, तुम कभी भी उस पर्दे को चीरकर इस तरफ नहीं आ पाए थे।
मुझे... मुझे आज मजबूत कंधों की जरूरत थी। पलभर को ही सही, मैं अपना सिर रखकर रो तो सकती थी। आज बेटियाॅं पास होती तो मैं ऐसा कर सकती थी। पर... तुम निर्मोही ने वह सहारा भी मुझसे छीन लिया। मुझे आज भी याद है उषा जब पैदा हुई थी... तो तुमने मुझे स्तनपान करने से मना कर दिया था। तुम्हारी अपनी दलील थी कि इससे मेरा फिगर खराब हो जायेगा... सेहत गिर जाएगी और मैंने तुम्हारा कहा मान, उसे आया की गोद में डाल दिया था। दूसरी के साथ भी यही सब कुछ हुआ। वे थोड़ा संभल पाती कि तुमने उन्हें हाॅस्टल में डाल दिया और उन्हें विदेश भी भेज दिया। निश्चित ही तुम्हारी अपनी योजना रही होगी कि मैं तुम्हारे वियोग में तड़पने के साथ-साथ अपनी बेटियों के बिछोह में भी तड़पू। पता नहीं-तुम उन्हें किस साॅंचे में ढालना चाहते हो... शायद अमेरिकन साये में। तो आज तुम्हारी बेटियाॅं पूरी तरह से अमेरिकन-रंग में रंग चुकी है। तुम्हें पता चला-या नहीं, नहीं जानती... जब वे घर लौटी थी तो दोनों के पेट में अवैध संतान पल रही थी। इतनी कम उमर में कितना कुछ सीख चुकी हैं तुम्हारी बेटियाॅं। पता नहीं... क्यों चिढ़ हैं तुम्हें भारतीयों से... भारतीय संस्कृति से।
कितना नीच... कितना कमीना... कितना खुदगर्ज होता है तुम्हारा पुरूष वर्ग। औरतें भी बेवकूफ होती है। वे थोड़ा सा पुचकारने से... फुसला देने से... बहला देने से... बहल जाती है... फिसलने लग जाती है। फिर बिछ-बिछ जाती है आदमकद जात के सामने ताकि वह उसका दैहिक-शोषण कर सके... अपनी आदमभूख मिटा सके... औरतों को बदले में भला चाहिए भी क्या! दो जून की रोटी... टूटी-फूटी झोपड़ी... अदना सा मकान... या फिर कोई आलिशान बंगला... वे निहाल हो उठती है। तन सजाने को ढेरों सारे जेवर... खुश हो जाती है औरतें, फिर वह धीरे से किसी पालतू कुत्ते की तरह गले में डाल देता है एक पट्टा... एक जंजीर... अथवा मंगलसूत्र। बस इस छोटे से लटके-झटके... टोटके मात्र से औरतें बंध जाती है किसी गाय की तरह उसके खूॅंटे से... मरते दम तक के लिए।
कुछ औरतों की बात हटकर है। वे अपने आप को स्वच्छंद... स्वतंत्र... स्वावलंबी महसूसती हैं... क्या वे अपने आपको पिशाची दरिन्दों के पंजों से शिकार होने से बचा पाती है? बदलते युग में अब बलात्कार भी सामूहिक हो चले हैं। वे अपने मिलकर झपट्टा मारते हैं। जब वे वासना का खेल खेल रहे होते हैं, तब वह अपने हाथ-पैर चलाकर अपने को बचाने का प्रयास भर कर पाती है। उसके गिरफ्त से निकल कहाॅं पाती है? उसे तो उस समय अपनी मुक्ति की कामना भर होती है। इस जोर-जबरदस्ती में वह किस-किस का चेहरा... किस-किस का नाम याद रख पाती होगी। शरीर निचुड़ जाने के बाद, उसमें इतना नैतिक साहस... हिम्मत भी कहाॅं बच पाती है कि वह उसके खिलाफ खड़ी भी हो सके।
उसकी तो बात ही अलग है, जो खुद होकर अपने कपड़े उतारने पर आमादा होती है। पुरूष पहल करे इससे पहले वे अपने कपड़े उतारकर नंगी हो जाती है। माना.... ऐसा करने पर उन्हें मुॅंह-मांगी कीमत... अकूत सम्पदा भले ही मिल जाती होगी पर उनकी आत्मा तो कभी की मर चुकी होती है। जब आत्मा ही मर गई तो मुर्दा शरीर को नंगा रखो या ढाॅंककर ही, क्या फर्क पड़ता है।
तरह-तरह के नुकीले विचार उसकी आत्मा को लहू-लुहान करते रहे। लगभग तीन-चैथाई रात बीत चुकी थी और वह सो जाना चाहती थी। पर नींद आॅखों से कोसों दूर थी। अनमने मन से उसने एक पत्रिका उठाई और पन्ने पलटने लगी। दरअसल वह पढ़ कम रही थी और पन्ने ज्यादा पलट रही थी। नींद ने कब उसे अपने आगोश में ले लिया, पता ही नहीं चल पाया।
सोकर उठी तो दिन के बारह बज रहे थे। उसने महसूस किया कि दर्द के साथ-साथ आलस भी शरीर में रेंग रहा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े, अब उसे उकताई-सी होने लगी थी। न चाहते हुए भी उसे उठना पड़ा। वह सीधे बाथरूम में जा समाई।
अपने जिस्म को तौलिये से लपटते हुए वह सीधे ड्रेसिंग-रूम में चली आई। उसने देखा ड्रेसिंग टेबल पर एक आमंत्रण-पत्र पड़ा है। आश्चर्य से उसके ओंठ गोल होने लगे। कुर्सी पर बैठते हुए उसने गीले हाथों से आमंत्रण-पत्र उठाया। पत्र उठाते ही लेवेण्डर की भीनी-भीनी खुशबू उसके नथुरों से आ टकराई। पत्र उसी के नाम से प्रेषित किया गया था। पत्र पर की लिखावट भी क्या खूब थी, मानो मोती जड़ दिये गये हों। उसने पत्र को उलट-पलट कर देखा। पारदर्शी प्लास्टिक टेप से चिपकाया गया था। पत्र भेजने वाला कोई दयाशंकर था। प्रोफेसर दयाशंकर। पत्र भेजने वाले के तौर-तरीके से वह बेहद प्रभावित हुई थी। मन ही मन वह सोचने लगी थी ष्कौन है दयाषंकर? उसे कहाॅं देखा था? देखा हुआ तो नहीं लगता, कहाॅं भेंट हुई थी? कहाॅं मिली थी? सहपाठी है या नजदीक का रिष्तेदार?ष् उसने अपने स्मृति के घोड़ों को दूर-दूर तक दौड़ाया भी। पर कोई स्पष्ट तस्वीर दयाशंकर की बन नहीं पाई।
उसने आहिस्ता से टेप उतारा, पत्र खोला और एक साॅंस में पूरा पढ़ गई। वर-वधू के नाम, उसके अभिभावकों के नाम, विवाह-तिथी, विवाह-स्थल सभी कुछ। कार्ड के साथ अलग से एक चिठ भी चस्पा की गई थी, उसमें लिखा था। शशि जी... मेरी बेटी प्रभा की शादी में तुम जरूर-जरूर आना। तुम के नीचे गहरी स्याही से रेखांकित किया गया था। तुम के नीचे खींची गई रेखा उसे किसी तिलस्मी खजाने की कुंजी-सी लगी। अब वह तिलस्म की मायाजाल में फॅंसते जा रही थी। ष्क्यों की गई होगी अण्डरलाईन? क्या वह नजदीकी दिखलाने की कोशिश कर रहा है अथवा आत्मीयता... अथवा निकट की कोई रिश्तेदार ही, या उसने सब जान-बूझकर किया है?ष् दयाशंकर उसे अब एक दिलचस्प जादूगर भी लगने लगा था। वह इस जादू के सम्मोहन में घिरती चली जा रही थी। उसने तत्काल निर्णय लिया कि इस शादी में वह जरूर जाएगी और तिलस्मी रहस्य को उजागर करके रहेगी। उसे अब उस दिन, उस घड़ी का बेसब्री से इंतजार रहने लगा था।
नियत समय पर उसने एक महॅंगा सा गिफ्ट आइटम पैक कराया। अपना सूटकेस तैयार किया। ड्रायवर को निर्देश दिया कि वह गाड़ी निकाल लाये।
शहर को पीछे छोड़ते हुई उसकी गाड़ी अब जंगल के बीच से होकर गुजर रही थी।
उंची-नीची पहाड़ियाॅं... टेढ़े-मेढ़े घुमावदार राश्ते, आकाश को छूते, बात करते पेड़ों की कतारें। पहाड़ की चोटी से उतरते... मुस्कुराते... हवा में सरगम बिखेरते झरने। कुॅंलांचे भरते मृग-शावक। ढोर-डंगर चराते चरवाहे। चलचित्र के मानिंद पल-पल बदलते दृश्य देख वह अभिभूत हुई जा रही थी। भीगी-भीगी हवा के अलमस्त झौंके, उसके गोरे बदन से आकर लिपट-लिपट जाते थे। उसे ऐसा भी लगने लगा था कि वह किसी अन्य गृहों पर उड़ी चली जा रही है और एक नया जीवन जीने लगी है। विस्फारित नजरों से वह प्रकृति का मनमोहक रूप देखती रही।
कुछ देर तक तो उसका मन प्रकृति के साथ तादात्म्य में बनाये रखता। फिर शंका-कुशंकाओं की कटीली झाड़ियों में जा उलझता। कभी उसे इस बात पर पछतावा होने लगता कि वह नाहक ही चली आई है। घर बैठे भी तो भेंट स्वरूप राशि भेजी जा सकती थी अथवा डाकघर से पार्सल द्वारा भी। कभी लगता, उसका आना जरूरी था और दया से मिलकर उस रहस्य पर से पर्दा भी उठाना था कि वह उसके अतीत के बारे में क्या कुछ जानता है।
गाड़ी की सीट से सिर टिकाकर वह कुछ न कुछ सोचती अवश्य चलती। अब वह कल्पना-लोक में विचरने लगी थी। लगा कि वह शादीघर में जा पहॅंुची है। उसकी खोजी नजरें दया को ढूंॅढने लगी थी। तभी एक कड़क अधेड़ भद्र पुरूष आता दिखा। उसकी चाल में चीते की सी चपलता थी। अब वह करीब आ पहुॅंचा था। उसने सूट-टाई पहन रखी थी तथा सिर पर गुलाबी साफा बाॅंधे हुआ था। गुलाबी पगड़ी निश्चित तौर पर उसे भीड़ से सर्वथा अलग कर रही थी। ष्यह ही दयाशंकर होगा।ष् उसने अनुमान लगाया था पास आते ही उसकी नजरें उसके चेहरे से जा चिपकी। सुगठित देहयष्टि, रोबदार चेहरा, चेहरे पर घनी-चैड़ी मूॅंछें, ओठों पर स्निग्ध मुस्कान, चश्मे के फ्रेम से झांॅकती-हॅंसती बिल्लौरी आॅंखें देख वह प्रभावित हुई बिना न रह सकी थी।
पास आते ही वह किसी शरारती बच्चे की तरह चहकने लगा था। आइये... शशि जी! आपका दिली स्वागत है। कहते हुए उसके दोनों हाथ आपस में जुड़ आये थे। शशि की नजरें अब भी उसकी मोहक मुस्कान देख थम-सी गई थी। वह बार-बार अभिवादन कर रहा था। बार-बार के आग्रह के बाद उसकी चेतना वापिस लौट आई थी और उसे अपनी भूल पर पश्चाताप सा भी होने लगा था। अपने झेंप मिटाते हुए वह केवल प्रत्युत्तर में नमस्ते भी कह पाई थी।
अब वह उसके पीछे हो ली थी। कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़ चली थी। जगह-जगह प्रौढ़-प्रौढ़ाओं, युवक-युवतियों ने अपने-अपने घेरे बना लिये थे और खिलखिलाकर हॅंसते-बतियाते जा रहे थे। चलते हुए वह बीच में रूक भी जाता और उसका परिचय भी करवाता चलता। दया के बोलने-चालने का ढंग, आॅंखें मटमटाकर देखने का अंदाज गले की माधुर्यता देख-सुन उसे ऐसा भी लगने लगा था कि ढेर-सारे घुॅंघरू एक साथ झनझना उठे हों।
भीड़ को चीरता हुए वह डायस की ओर बढ़ चला था। डायस पर वर-वधू मंच की शोभा बढ़ा रहे थे। एक नहीं बल्कि अनेकों कैमरे अपनी-अपनी फ्लैशों से चकमक-चकमक प्रकाश उगल रहे थे। फोटोग्राफों को तनिक रूक जाने का संकेत देते हुए वह मंच पर जा खड़ा हुआ था। वह भी उसका अनुसरण करती हुई मंच पर जा चढ़ी थी। मंच पर पहुॅंचते ही उसने अपनी बेटी प्रभा का उससे परिचय करवाया। फिर वर से परिचय करवाते हुए वह फोटोग्राफरों की ओर मुखातिब होते हुए फोटो लेने के लिए कहने लगा। कमरे क्लिक हो इसके पूर्व उसने अपनी लंबी बलिष्ठ बाॅंहें उसके कमर के इर्द-गिर्द लपेट लीं थी। कई-कई कैमरे एक साथ चमक उठे थे।
एक अपरिचित-अजनबी आदमी उसकी कमर में एैसे-कैसे हाथ डाल सकता है? उसकी ये मजाल! उसका चेहरा तमतमाने लगा था। आॅंखों में क्रोध उतर आया था। मुट्ठियाॅं मीचने लगी थीं। इच्छा इुई कि कसकर चाॅंटा जड़ दे पर एक अनजान शहर में अपरिचित-अनचीने लोगों के बीच वह ऐसा कैसे कर पाएगी। वह सोचने लगी थी। किसी तरह अपने क्रोध को दबाते हुए उसने उसके हाथों को झटक दिया और स्टेज पर से उतर आई।
होश में लौटते हुए उसने महसूस किया कि उसका स्थूल शरीर अब भी अपनी सीट पर पसरा पड़ा है। गाड़ी अपनी गति से सरपट भागी जा रही है। उसने अपनी हथेली से माथे को छुआ। पूरा चेहरा पसीने से तरबतर हो आया था। पर्स में से रूमाल निकालते हुए उसने चेहरे को साफ किया। खिड़की का शीशा नीचे उतारा। ठण्डी हवा के झोंकों के अंदर आते ही उसने कुछ राहत-सी महसूस की। एक कल्पना मात्र ने सचमुच उसे बुरी तरह से डरा ही दिया था। अब वह एकदम नार्मल-सा महसूस करने लगी थी।
वह कुछ और सोच पाती, उसकी गाड़ी एक झटके के साथ, एक मण्डप के पास आकर रूक गयी थी। उसने खिड़की में से झाॅंककर देखा। हू-ब-हू वही मण्डप सामने चमचमा रहा था जैसा कि उसने कुछ समय पूर्व कल्पना लोक में विचरते हुए देखा था। गाड़ी के रूकते ही एक भद्र पुरूष उसके तरफ आते दिखाई दिया।
आगन्तुक की चाल-ढाल में चीते की सी चपलता थी। अब वह गाड़ी के काफी नजदीक तक आ पहुॅंचा था। उसकी नजरें अपरिचित व्यक्ति के चेहरे से मानो चिपक सी गई थी। वही रोबदार चेहरा। घनी-चैड़ी मूॅंछें। ग्रे कलर की टाई। ओंठों पर थिरकती मुस्कान। सुनहरे चश्मे से झाॅंकती बिल्लौरी आॅंखे। शिष्टता से उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये थे और स्वागत कहते हुए उसे गाड़ी से नीचे उतरने प्रार्थना करने लगा था।
शशि का माथा चकराने लगा था। वह मन ही मन सोचने पर विवश हो गई थी-ष्ऐसे कैसे हो सकता है?ष् जैसा कुछ सोच रखा था वैसा ही वह अपनी खुली आॅंखों से देख रही थी। उसे तो ऐसा भी लगने लगा था कि वह सचमुच में तिलस्म के उस मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है, जहाॅं से उसे अंदर प्रवेश करना है।
ष्आइये... शशि जी अंदर चलते हैं, कहता हुआ वह आगे बढ़ चला था। वह भी किसी मंत्रमुग्ध हिरनी की तरह उसके कदमों से कदम मिलाते हुए पीछे-पीछे चलने लगी थी। भीड़ को लगभग पीछे चीरते वह निरंतर आगे बढ़ रहा था। बीच-बीच मंे रूकते हुए वह मेहमानों-स्वजनों से बतियाता-पूछता चल रहा था कि उन्हें कोई असुविधा तो नहीं हो रही है।
हतप्रभ थी शशि कि उसने उसका परिचय किसी से भी नहीं करवाया। अब वह स्टेज की ओर बढ़ने लगा था। स्टेज पर पहुॅंचते ही उसने शशि का परिचय अपनी पुत्री प्रभा से करवाया। फिर होने वाले दामाद से। परिचय करवाने के बाद वह फोटोग्राफरों को तस्वीर लेने की कहने लगा था। एक ज्ञात भय फिर मन के किसी कोने से बाहर निकल आया था। वह सोचने लगी थी कि फोटो लेते समय वह उसके कमर में हाथ डाल देगा। पर उसने ऐसी-वैसी हरकतें बिलकुल भी नहीं की थी। उसकी कल्पना दूसरी बार भी निर्मूल सिद्ध हुई थी।
छोटे-मोटे नेग-दस्तूर, वरमाला फिर भाॅंवरे निपटाते-निपटाते पूरी रात कैसे बीत गई, पता ही नहीं चल पाया। बारात अब बिदा होने को थी। बिदाई की सारी रश्में पूरी की जा चुकी थी।
बिदाई के भावुक क्षणों में प्रभा अपने प्रिय पापा को गले लगकर जार-जार रोई जाने लगी थी। शशि का कलेजा जैसे बैठा जा रहा था। उसकी आॅंखाों से भी आॅंसू छलछला पड़े थे। अब वह शशि से लिपटकर रो पड़ी थी। प्रभा को गले लगाते हुए उसे अपनी बेटी ग्रुशा की याद हो आई। काश! वह पास होती। संभव है, उसकी भी अब तक शादी हो चुकी होगी। प्रभा के हमउम्र तो वह होगी ही। वह सोचने लगी थी बिदाई के जीवंत एवं भावुक क्षणों के बीच बहते हुए एक मर्मान्तक पीड़ा का पहली बार अनुभव कर रही थी।
बारात के बिदा हो जाने के बाद दया की हालत देखकर वह सिहर उठी थी। दया की हालत कुछ ऐसी बन गई थी कि जैसे किसी मणिधारक सर्प से उसका मणि छीन लिया गया हो। ज्यादा देर तक उसकी नजरें दया के चेहरे पर टिकी नहीं रह पाई थी।
दया ने अपने आपको एक कमरे में कैद कर लिया था। अपने कमरे में जाने के पूर्व उसने उसे ये कमरा दिखाते हुए कहा था कि वह भी पूरी रात जागती रही है। अतः उसे भी थोड़ी देर सो लेना चाहिए। रही ढेरों सारी बातें करने की तो वे बाद में भी की जा सकतीं हैं।
शशि ने स्पष्ट रूप से महसूस किया था कि इस समय वास्तव में दया को आराम करने की सख्त आवश्यकता है। वह स्वयं भी प्रश्नों को छेड़कर उसे और भी व्यथित नहीं करना चाहती थी।
कमरे की भव्यता एवं साज-सज्जा देखकर शशि काफी प्रभावित हुई थी। डनलप के बिस्तरों को देख उसका भी मन कुछ देर सो जाने के लिए मचलने लगा था। अब वह बिस्तर पर जाकर पसर गई थी।
उसके पोर-पोर में दर्द रेंग रहा था और वह सचमुच में सो जाना चाहती थी, पर उसका मन से ताल-मेल नहीं बैठ पा रहा था। रह-रहकर नए ख्याल और तिरोहित हो जाया करते थे।
काफी देर तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद वह उठ बैठी। उसने खिड़की से झाॅंककर देखा। दया का कमरा अब भी बंद पड़ा था। अब वह फिर बिस्तर पर आकर पसर गई। थोड़ी-थोड़ी देर बाद उठती, खिड़की से झाॅंकती, दरवाजा बंद पाकर फिर लौट आती।
बिस्तर पर पड़े-पडे़ उसे उकताई सी होने लगी थी। दरवाजा खोलकर वह कारीडोर में निकल आई। बाहर आकर कुछ अच्छा सा लगने लगा था उसे।
पाॅंच-सात मिनिट ही खड़ी रह पाई होगी कि उसने तीसरे कमरे से एक महिला को बाहर निकलते देखा। शकल-सूरत से वह दया की बहन जान पड़ती थी। वह कुछ और सोच पाती कि वह महिला ठीक उसके सामने आकर खड़ी हो गई। महिला के हाथ में पूजा की थाली थी। थाली में दीप जल रहा था। शायद वह मंदिर जाने की तैयारी में थी। वह कुछ कहना चाह रही थी कि महिला चहक उठी।
ष्देखिये बहन जी... हम आपको न तो जानते हैं और न ही पहचानते हैं। बस इतना जरूर जानते हैं कि दया भैया ने आपको अपने विशेष कक्ष में ठहराया है, जाहिर है कि आप हमारे खास मेहमान हैं। हम अकेले ही रघुनाथ मंदिर जा रहे हैं दर्शनों के लिए। आप साथ चलना चाहें तो चल सकते हैं। हम जब भी कभी यहाॅं आते हैं, रघुनाथ मंदिर जाना कभी नहीं भूलते। बड़ी शांति मिलती है वहाॅं जाकर।ष्
शशि देख-सुन रही थी। आगन्तुक महिला लगातार बोले जा रही थी। कुछ लोगों को ज्यादा ही बोलने की आदत होती है। बोलते समय वे आगे-पीछे कुछ भी नहीं देखते और बातों ही बातों में अपने मन की बात उगलकर रख देते हैं। वे इस बात से भी अनभिज्ञ रहते हैं कि कोई उनकी बातों से नाजायज फायदा भी उठा सकता है। बातों के दौरान उसने सहज रूप से अपना परिचय खुद ही दे दिया था कि वह दया की बहन है। दया की बहन है यानि दया के बारे में सब कुछ जानती है। उस रहस्यमय तिलस्म की गइराई में उतरने के लिए यह महिला सीढ़ी का काम बखूबी कर सकती है। वह मन ही मन सोच रही थी, उसने तत्काल निर्णय ले लिया कि वह मंदिर अवश्य जाएगी।
गाड़ी भीड़भाड़ वाले इलाके के बीच से होकर गुजर रही थी, वह उसे बातों में उलझाये रखती। दरअसल धीरे-धीरे वह अपने मकसद की ओर बढ़ना चाह रही थी। बातों के दौरान वह दुकानो-मकानों के साइन-बोर्ड भी पढ़ते चलती। उसने शशिप्रभा मिडिल स्कूल का बोर्ड देखा। उसे हैरानी-सी होने लगी थी। रास्ते में आगे बढ़ते हुए अपने नाम के कई बोर्ड देखे-शशिप्रभा हाईस्कूल, शशिप्रभा नारी-ज्ञान केन्द्र, शशिप्रभा कला केन्द्र। अपने नाम के अनेक साइन-बोर्ड देखकर वह आश्चर्य से दोहरी हुई जा रही थी। कौन शशिप्रभा! वह स्वयं या कोई और। यहाॅं की कोई स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता-एम.एल.ए. है अथवा सांसद। अब वह अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थी। उसने भावावेश में उस महिला से इसके बारे में जानकारी लेनी चाही। शशि को अब दया के बहन के उत्तरों की प्रतीक्षाा थी।
लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए उस महिला ने अपना मुॅंह खोला था ष्देखिये बहन जी... जब आपने पूछा ही है तो हमें बतलाना ही पड़ेगा...।
LEAVE A REPLY