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विपन्नता में जन्मा लौहपुरुष

 

विपन्नता में जन्मा लौहपुरुष. 

                                                                                      गोवर्धन यादव.

      

एक साधारण गरीब किसान के घर 31 अक्टूबर को 1875 को नडियाड (गुजरात) में जन्में सरदार वल्लभभाई पटेल के परिवार में शायद ही किसी ने स्वपन में भी नहीं सोचा था कि कि वे आगे चलकर नवीन भारत का निर्माता, दूसरा चाणक्य, लौहपुरुष और भारत का बिस्मार्क जैसी अनेक उपाधियों से नवाजा जाएगा.

      15 अगस्त 1947 में जब देश आजाद हुआ तो उस नवीन राष्ट्र के सामने बहुतेरे प्रश्न थे. जैसे- बंटवारे से उजड़े लोगों का पुनर्वास, लगभग 584 रियासतों को भारत में विलय करवाना, विभाजन से छिन्न-भिन्न प्रशासन को ठीक करना तथा देश को एकता के सूत्र में दुदृढ़ करना आदि. सरदारजी ने अपनी सूझ-बूझ से इन पेंचीदें मसलों को आसानी से हल कर अपनी अविस्मरणीय छाप छॊड़ी.

      आपका जन्म का समय काफ़ी उथल-पुथल भरा रहा था. 1857 की क्रांति को अभी बहुत वर्ष भी नहीं बीते थे. वल्लभभाई के पिता श्री झवेरीभाई पटेल ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होकर युद्ध किया था. बीस वर्ष की उम्र में उन्हें मल्हारराव होलकर ने इंदौर में बंदी बना लिया. एक बार संयोगवश राजा की शतरंज की गलत चालों को झबेरभाई ने अपनी सूझबूझ से दुरुस्त किया, जिससे राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें आजाद कर दिया और वे अपने गाँव करमसद आ गए. इसी समय वे वैष्णव धर्म की एक शाखा स्वामीनारायण संप्रदाय के संपर्क में आए और उनके अनुयायी हो गए. आपकी माताश्री लाड़बाई पटेल भी भग्वदभक्ति, पति-सेवा और गृहस्थी की देखभाल में व्यस्त रहती थीं. किसी प्रकार गरीबी में जीवन व्यतित हो रहा था. इसी अभाव और विपन्नता में वल्लभभाई जी का जन्म हुआ. किसान का घर होने से पढ़ाई का वातावरण नहीं था फ़िर भी पिताजी उन्हें व्यवहारिक गणित खेतों में काम करते, चलते-फ़िरते याद करवाते रहते थे. बढ़ती उम्र के साथ ही उनकी पढ़ाई करने की इच्छा बलवती होने लगी और वे अपने ही ग्राम के स्कूल में पढ़ने जाने लगे. आगे बढ़ना है तो अंग्रेजी पढ़ना है, उन्हें आवश्यक लगा. उन्हें मुख्तयारी करनी पड़ी ताकि स्कूल का खर्च उठा सकें. उन्होंने अध्ययन के लिए कभी भी अपने पिता या भाई से मदद नहीं मांगी. पेटलावद में अपने विध्यार्थी मित्रों के साथ अलग मकान में रहे. अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने में वे कभी पीछे नहीं रहे. शिक्षकों के शारीरिक, मानसिक और शाब्दिक दंड का उन्होंने सदैव विरोध किया. इससे छात्र प्रभावित हुए और वे जल्द ही एक नेता के रुप में स्थापित हो गए.

      वकालत की शुरुआत आपने गोधरा से की. वे ऎसे मुकदमें लेते थे जिससे थोड़े समय में आधिक धन अर्जित कर सकें. कानून की बारीकियों की पकड़ की अपेक्षा उनका गहरा व्यावहारिक ज्ञान, मानव स्वभाव की सूक्ष्म परख, गवाहों से जिरह की अद्भुत चतुराई और गवाहों की छानबीन करने की जबर्दस्त शक्ति के चलते वे एक नामी-गिरामी वकील बन गए. 1902 में वे गोधरा से करमसद आ गए. यहाँ उनकी वकालत खूब चली. इसी बीच उन्होने विदेश जाने का निर्णय लिया. आवश्यक धन जुटाया और टामस कुक एंड संस कंपनी के साथ पत्र-व्यवहार किया. इस तरह उनकी यह पहली विदेश यात्रा थी. सन 1910 में फ़िर से उन्होंने विदेश जाने के लिए धन इकठ्ठा किया लेकिन इस बार की यात्रा के दो उद्देश्य थे. पहला यह कि वहाँ के जीवन का अध्ययन करना और दूसरा बैरिस्टर बनकर लौटना. लंदन के मिडिल टेम्पल में वे भरती हुए. अपने कठोर परिश्रम के चलते आपने 1912 में प्रथम श्रेणी में आनर्स पास की. 13 फ़रवरी 1913 को बम्बई (अब मुंबई) आए और अहमदाबाद में आपने बैरिस्टरी की शुरुआत की.

      सबसे नए फ़ैशन के कोट-पतलून और कीमती हैट पहनना, ठाठ भरी जिन्दगी जीना उन्हें अत्यधिक प्रिय था. अपने मुवक्किलों से वे उँची फ़ीस लिया करते थे. वे हमेशा इस प्रकार से पैरवी करते कि कि जज भी कायल हो जाते. वयोवृद्ध बैरिस्टर त्र्यम्बकराव मजुमदार ने एक बार मावलंकरजी से कहा-“ वल्लभभाई की तरह अच्छी पैरवी करने वाल कोई बैरिस्टर उन्होंनें नहीं देखा”.

      1915 में जब गांधीजी अफ़्रीका से लौटकर अहमदाबाद को अपना निवास बनाया. परन्तु आपने ध्यान नहीं दिया. 1917 में अंग्रेजों के अत्याचार की जाँच के लिए चम्पारण गए और मजिस्ट्रेट की निषेधाज्ञा को उन्होंने भंग करवाया, तब वल्लभभाई गांधीजी के प्रति आकर्षित हुए. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1917 में गुजरात सभा ने महात्मा गांधी जी को अध्यक्ष बनाया. इस परिषद में जो कार्यकारिणी बनी, वल्लभभाई उसमें मंत्री बने. आगे चलकर आपने वकालत छॊड़ दी और देशसेवा को अपना एकमात्र लक्ष्य बनाया.

      बाल्यवस्था में अर्जित विशेषताओं जैसे सूझबूझ और संगठन-शक्ति का परिचय आपने 1917-18 में खेड़ा सत्याग्रह में दिया. वे किसानों में स्वाभिमान जागृत कर उन्हें अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए एक करने में जुट गए और बड़ी जद्दोजहद करने के बाद ब्रिटिश हुकूमत से मनवाया कि लगान उन्हीं से वसूला जाए, जो इसे दे सकते हैं.

      खेड़ा सत्याग्रह ने वल्लभभाई के जीवन को एक नया मोड़ दिया. साथ ही गांधीजी को भी एक “लेफ़्टिनेंट” दे दिया. गांधीजी ने एक जगह लिखा है-“ ज्यों-ज्यों मैं इनके अधिक संपर्क में आया त्यों-त्यों मुझे महसूस हुआ कि मुझे वल्लभभाई तो अवश्य चाहिए. वल्लभभाई मुझे न मिले होते तो, जो काम हुआ है, वह हर्गिज न होता”.

      अहमदाबाद की कपड़ा मिल मजदूर हड़ताल, 1920 में गुजरात राजनीतिक परिषद की कार्यकारिणी में प्रस्ताव पास कराना, गांधीजी के असहयोग आंदोलन, 1927 का बारडोली सत्याग्रह आपके राजनीतिक जीवन में मील का पत्थर साबित हुआ. बारडोली की महिलाओं ने उनके अदम्य साहस को देखते हुए “सरदार” उपनाम दिया. इसके पश्चात उनके साथ यह उपनाम हमेशा के लिए जुड़ गया. इस  आंदोलन का मुख्य कारण था- जमीन बंदोबस्त के कारण बढ़ा हुआ लगान. सरकारी जाँच में यह दिखाया गया कि जमीन के मुनाफ़े में वृद्धि हुई है. वल्लभभाई जी ने उनमे आत्मविश्वास भरते हुए कहा कि अगर वे जोखिम उठाने को तैयार हों तो वे कुछ कर सकते हैं. यहाँ पर उनकी पूर्व अर्जित वकालती जाँच-परख काम आई. उन्होंने अपने स्तर पर जाँच-पड़ताल में पाया कि लगान दर में वॄद्धि अव्यावहारिक है. उन्होंने किसानों को एक एकजुट किया और उन्हें कर देने से इंकार करने को कहा. इस सबका नतीजा सुखद रहा.

      उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम पहलू था अपनी बात इस तरह कहना कि लोग सहर्ष उसे मान लें. इसी  गुण का सहारा उन्हें जीवनपर्यंत रहा, चाहे वह आम लोगों से अंतिम लड़ाई में शामिल होने का आव्हान हो या फ़िर उनमें व्यापत कुरीतियों से उसका साक्षात्कार करवाना हो या आगे जाकर रियासतों के एकीकरण के लिए स्वतंत्र राजाओं को मनाने का दुष्कर कार्य. उन्होंने अपने हर दौर में भारत को एकसूत्र में बाँधने की कोशिश की, क्योंकि उन्हें यह पहले ही पता लग चुका था कि स्वतंत्रता के बाद भारत कहीं विभिन्न प्रांतों में न बंट जाए. उन्होंने हर प्रांत में यात्रा के दौरान लोगों को एकता का पाठ पढ़ाया.

      स्वतंत्रता आंदोलनओं के दौरान अनेक बार उन्होंने जेल यात्राएँ कीं. इसका सिलसिला 1930  से 1945 तक चलता रहा. इसी बीच सोलह महिने तक उन्हें गांधीजी के साथ जेल में रहने का सुयोग मिला. उन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्रपिता के अनुयायी के रुप में बिताया.

      इस बीच देश में दो प्रमुख घटनाएं होने को मचल रही थीं. पहला-भारत की आजादी और दूसरा उससे जुड़ी त्रासदी. द्वितीय महायुद्ध के बाद ब्रिटिश सत्ता का सूर्य डूबने लगा था. ऎसी स्थिति में बहुत वर्षों तक भारत को गुलाम बनाए रखना असंभव-सा प्रतीत हो रहा था. ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने हर हाल में जून 1948 तक सत्ता छॊड़ देने की घोषणा फ़रवरी 1947 में कर दी थी. इसी बीच संविधान सभा, नवीन राष्ट्र के लिए आदर्श संविधान बनाने में जुट गई. 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ, लेकिन यह आजादी इतनी सस्ती नहीं थी. इसमें विभाजन की खूनी मारकाट की विभत्सता भी थी. ऎसे में गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री के रुप में सरदार पटेल की भूमिका उल्लेखनीय है. उन्होंने  बड़ी दृढ़ता से इसका मुकाबला किया. सवा करोड़ आबादी की अदला-बदली में करीब 5 लाख लोगों की जाने गईं. इस स्थिति को काबू करने के लिए पटेल दंगा प्रभावित क्षेत्रों में जाकर लोगों को शांत करते.

      रियासतों का एकीकरण तो एक चमत्कार ही कहा जाएगा. स्वतंत्रता के समय भारत में 584 रियासतें थीं. इनमें  हैदराबाद, झूनागढ़ और जम्मु-कश्मीर ही ऎसी थीं,जो स्वतंत्र राज्यों का रुप ले सकती थीं. 3 जून 1947 को वाइसराय माउंटबैटन ने घोषणा की कि रियासतें अपनी इच्छा से निर्णय करने के लिए स्वतंत्र होंगी. रेल, डाक जैसे सामान्य हित के मामलों में भी मौदूदा समझौते और प्रशासनिक नियंत्रण समाप्त होने की घोषणा की गईं. इससे स्पष्ट ही भारत के टुकड़े होने का भय पैदा हो गया. सरदार पटेल ने वायसराय की उपस्थिति में बैठक बुलाई और रियासतों से संपर्क के लिए रियासती विभाग बनाने का निश्चय किया. सरदार 5 जुलाई को बने इस विभाग के सचिव बने और विधान संबंधी परामर्शदाता वी.पी.मेनन बने. फ़िर शुरु हुआ रियासतों को मनाने का सिलसिला. इसमें अपनी चाणकय नीति का इस्तेमाल करने हुए उन्होंने देश की अखंडता को प्रमुखता दी. सत्ता परिवर्तन (15  अगस्त) तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छॊड़कर शेष रियासतों ने हस्ताक्षर कर दिए. जूनागढ़ और हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही तथा सरदार जी की सूझबूझ के सामने झुकना पड़ा. यहाँ की जनता ने भारतीयों का समर्थन किया. कश्मीर पर 47-48 में हुए पाकिस्तानी कबाइलियों के हमले ने वहाँ के राजा को भी भारत से सैनिक मदद मांगने पर मजबूर कर दिया.

सरदार पटेल की बहुत सी योग्यताओं में एक थी उनकी दूरदर्शिता. उनकी विश्लेषण शक्ति इतनी जबर्दस्त थी कि वे कोई घटना होने से पहले ही उसे भांप लेते थे. जैसे 1962 में जब चीन का भारत पर आक्रमण हुआ तो पं.नेहरु और कृष्ण मेनन को यह अप्रत्याशित लगा था, परन्तु 1949 में ही सरदार ने अपने एक पत्र में पं. नेहरु को चीन के प्रति आग्रह किया था. उन्होंने तिब्बत के मामले में भारत के रुख की भी आलोचना की थी. नाविकों के विद्रोह को भी उन्होंने हवा देने से बेहतर शांत करना उचित समझा, क्योंकि इन्होंने इसे आने वाले समय में नवोदित राष्ट्र की सेना में विद्रोह का बीज माना. इस तरह जब इंडियन सिविल सर्विसेस खत्म करने की बात उठाई गई तो उन्होंने इसे नव-प्रजातंत्र और नवोदित राष्ट्र की जरुरत बताया. अपने सार्वजनिक जीवन और स्थान का कभी भी अनुचित लाभ उठाने की कोशिश उन्होंने नहीं की. अपने पुत्र डाह्याभाई को दिल्ली आने से भी मना कर दिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि अनजाने में भी उनके नाम का लाभ उनके बेटे को मिले.

15  दिसंबर 1950 को सरदार पटेल की मृत्यु हो गई. पं.जवाहरलाल नेहरु ने अपने सहयोगी के लिए कहा- “जिसे इतिहास के अनेक पृष्ठों में लिखा जाएगा, जिनमे उन्हें नवीन भारत का निर्माता और भारत का एकीकरण करने वाला बतलाकर उन्हें सदा हम याद करते रहेंगे”.

एक साधारण परिवार में जन्में असाधारण व्यक्तित्व की असाधारण जीवन यात्रा बहुत सी अनकही कहानियाँ छोड़ जाती है. उनके व्यक्तित्व को लेख या किताब में बांधना मुमकिन नहीं है.

लेकिन बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आजादी के सत्तर बरस बाद हम फ़िर से एक बार एक ऎसे मुकाम पर आकर खड़े हो गए हैं जहाँ चारों ओर अशांति है, निराशा का माहौल है, गरीबी-मुफ़लिसी मुँह बाँए खड़ी है और गुमराह युवा शक्ति आजादी मांगने पर उतारु है. देश को टुकड़े-टुकड़े कर देने पर आमादा हो रहा है. समझ से परे है कि उन्हें किस तरह की आजादी चाहिए? देश के शिक्षा प्रतिष्ठानों का नैतिक दायित्व बनता है कि वे इस शक्ति को देश के नव-निर्माण में जोड़ते हुए, उन्हें विध्वंसक राह पर जाने से रोके. लेकिन अथक प्रयास के बावजूद यह आंधी थमने का नाम नहीं ले रही है. 1962 की अपनी कड़वी पराजय से बौखलाया पाकिस्तान आजादी के बाद से लगातार भारत के विरुद्ध अघोषित युद्ध चलाए बैठा है. संकट की इस नाजुक घड़ी में युवा-शक्ति अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए इस ओर रुख करे तो भारत का भाग्य बदल सकता है. जिस महान आत्मा ने भारत को टुकड़ों में बंटने से बचाने के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया, वहीं हम इसे टुकड़ों में बंटा देखना चाहते है ?. यह कैसी विडम्बना है?.

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. यदि दृढ़ इच्छा-शक्ति का सहारा लिया जाए तो क्या नहीं किया जा सकता?. आओ हम, सब मिलकर इस दिशा में कदम से कदम मिलाकर चलें और भारत को स्वर्ग बनाने में अपना योगदान दें. यदि एक आदमी एक कदम उठता है, उसी तरह देश के सवा करोड़ आदमी चल पड़े तो हम एक कहाँ से कहाँ जा पहुचेंगे, इस पर गंभीरता से विचार करने की आज महति आवश्यकता है.

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------१०३, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001  मोबा- 09424356400







      

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