कविता का लोक : लोक की कविता.
हम कविता के लोक में प्रवेश करें, इससे पूर्व मुझे लगता है कि हमें “लोक” के बारे में विस्तार से जान लेना आवश्यक होगा. आखिर लोक क्या है?. जहाँ तक हमारी दृष्टि जितना कुछ देख पाती है, वह सब लोक है. अंग्रेजी या फ़िर पश्चिम के फ़ोक से हमारा लोक बिल्कुल ही भिन्न है. लोक यानि जो हमेशा सतर्क रहता है, जो निरन्तर बना रहता है, जो गतिशील है..वह हमारा लोक है. फ़ोक का सीधा-सादा अर्थ जो निकलता है, वह है बीता हुआ..एकदम पिछड़ा हुआ . हमारा लोक बीता हुआ लोक नहीं है..बल्कि वह निरन्तर अपनी परंपरा को नवीनीकृत करते हुए, अपने अनुभव से एक नया मूल्य सृजित करता हुआ, हर समय को अपने से जोड़ता हुआ, जीवन को आगे बढ़ाता है, वह हमारा लोक है.
पुराणॊं में धरती से ऊपर सात लोक और धरती से नीचे भी सात लोक होने की बात कही है. वे इस प्रकार हैं-.पृथ्वी के ऊपर- सतलोक, तपोलोक, जनलोक, महलोक, ध्रुवलोक, सिद्धलोक तथा पृथ्वीलोक हैं. ठीक इसी तरह धरती के नीचे भी सात लोक बताये गए हैं. वे इस प्रकार से हैं- अतललोक, वितललोक, सुतललोक, तलातललोक, महातललोक, रसातललोक तथा पाताललोक. पृथ्वी को छोड़कर अन्य लोक तो हमें दिखाई नहीं देते, बल्कि वह हिस्सा भी हमें दिखाई नहीं देता, तो अंधकार से आच्छादित रहता है. क्या वह लोक की श्रेणी में नहीं आता? भले ही हम उन्हें आँखों से नहीं देख पाते, लेकिन वे सारे-की-सारे लोक इसके अन्तरगत ही आते हैं. अगर इसमें कुछ संदेह बना होता/रहता तो फ़िर हम यूंहि गाते-- चौदह लोक में फ़िरे गणपति..तीन भुवन में राज्य करें. पाताललोक तक श्री हनुमान जी का जाना हम नितप्रति रामायण में पढ़ते ही हैं.
लोक-साहित्य पढ़ने-लिखने में एक शब्द है, पर वह वस्तुतः यह दो गहरे भावों का गठबंधन है. “लोक” और “साहित्य” एक दूसरे के संपूरक, एक दूसरे में संश्लिष्ट. जहाँ लोक होगा, वहाँ उसकी संस्कृति और साहित्य होगा. विश्व में कोई भी ऎसा स्थान नहीं है, जहाँ लोक हो और वहाँ उसकी संस्कृति न हो.
मानव मन के उद्गारों व उसकी सूक्ष्मतम अनुभूतियॊं का सजीव चित्रण यदि कहीं मिलता है तो वह लोक साहित्य में ही मिलता है. यदि हम लोकसाहित्य को जीवन का दर्पण कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. लोक साहित्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कि लोककथा को लोक साहित्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी. लोक साहित्य मे कल्पना प्रधान साहित्य की अपेक्षा, लोकजीवन का यथार्थ सहज ही देखने में मिलता है.
लोक-साहित्य हम धरतीवासियों का साहित्य है, क्योंकि हम सदैव ही अपनी मिट्टी, जलवायु तथा सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े रहते हैं. अतः हमें जो भी उपलब्ध होता है वह गहन अनुभूतियों तथा अभावॊं के कटु सत्यों पर आधारित होता है, जिसकी छाया में वह पलता और विकसित होता है. इसीलिए लोक साहित्य हमारी सभ्यता का संरक्षक भी है.
साहित्य का केन्द्र लोकमंगल है. इसका पूरा ताना-बाना लोकहित के आधार पर खड़ा है. किसी भी देश अथवा युग का साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकता. जहाँ अनिष्ठ की कामना है, वहाँ साहित्य हो नहीं हो सकता. वह तो प्रकृति की तरह ही सर्वजन-हिताय की भावना से आगे बढ़ता है.
संत शिरोमणि तुलसीदास की ये पंक्तियां- “कीरत भनित भूरिमल सोई-सुरसरि के सम सब कह हित होई” अमरत्व लिए हुए है. गंगा की तरह ही साहित्य भी सभी का हित सोचता है. वह गंगा की तरह पवित्र और प्रवाहमय है, वह धरती को जीवन देता है...श्रृंगार देता है और सार्थकता भी. प्रकृति साहित्य की आत्मा है. वह अपनी मिट्टी से, अपनी जमीन से जुड़ा रहना भी साहित्य की अनिवार्यता समझता है. मिट्टी में सारे रचनाकर्म का “अमृतवास”´ रहता है. रचनाकर उसे नए-नए रुप देकर रुपायित करता है. गुरु-शिष्य परम्परा हमें प्रकृति के उपादानॊं के नजदीक ले आती है. यहाँ कबीर का कथन प्रासंगिक है-´गुरु कुम्हार सिख कुंभ गढ़ी-गढ़ी काठै खोट- अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहे खोट” . संस्कारों से दीक्षित व्यक्ति सभी प्रकार के दोषॊं-खोटॊं से मुक्त रहता है. इसमें लोकहित की भावना समाहित है. मलूकदास भी इन्सानियत की परिभाषा अपने शब्दों में यूं देते हैं- “मलुका सोई पीर है, जो जाने पर पीर / जो पर पीर न जानई / सो काफ़िर बेपीर.” दूसरों की पीड़ा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अहित नहीं सोच सकता. वनस्पति के प्रति मैत्री का वह विस्तार साहित्य ही तो है.
लोक चेतना तो संस्कृति और साहित्य की परिचालक शक्ति मानी जाती है. किन्तु वर्तमान मशीनी और कम्प्युटरी समाज से लोक चेतना शून्य होती जा रही है. आज जरुरी है कि साहित्य का मूल्यांकन, लोकजीवन तथा लोक संस्कृति की दृष्टि से किया जाना चाहिए. जो लोकसाहित्य लोकजीवन से जुड़ा होगा, वही जीवन्त होगा. माना भूमिः प्रयोग है “पृथीव्याः” अथर्ववेद कि ऋचा का महाप्राण है. लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतिनिधित्व युगों से करता आ रहा है. यही लोक साहित्य की आधारशिला है. लोकसाहित्य परम्परा पर आधारित होता है. अतः अपनी प्रकृति मे विकाशशील है. इसमें नित्यप्रति परिवर्तन की संभावना बनी रहती है. इसका सृजन युगपीड़ा एवं सामाजिक दवाब को भी निरन्तर महसूस करता रहता है.
लोकसाहित्य में लोककथा-लोकनाटक तथा लोकगीतों को रखा जा सकता है, जिसमें जनपदीय भाषाओं का रसपूर्ण-कोमल भावनाओं से युक्त साहित्य होता है. भारतीय लोक साहित्य के मर्मज्ञ आर.सी टेम्पुल के मतानुसार लोक साहित्य की साहित्यिक दृष्टिकोण से विवेचना करना, उसी सीमा तक करना उचित होगा, जिस सीमा तक उसमें निहित सुन्दरता और आकर्षण को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे. यदि लोक साहित्य की वैज्ञानिक विवेचना की जाती है, तो मूल विषय नीरस और बेजान हो जाएगा. लोक के हर पहलू में संस्कृति के दिव्य दर्शन होते हैं. जरुरत है तीक्ष्ण दृष्टि और सरल सोच की. लोक साहित्य के उद्भट विद्वान देवेन्द्र सत्यार्थी ने साहित्य के अटूट भंडार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था- “मैं तो जिस जनपद में गया, झोलियाँ भरकर मोती लाया”.
परलोक की धारणाएँ भी इन्हीं से जुडी है. सभी कर्मकाण्ड, पूजा-अनुष्ठान तथा उन्नत सांस्कृतिक समाज में मनुष्य के आचरण का निर्धारण इसी लोक में होता है. लोक हमारी सामाजिकता की गंगोत्री है और सभ्यता का प्रवेश द्वार भी. भारतीय जनमानस को श्रीमद भगवद्गीता ने जितना प्रभावित किया, उतना शायद किसी अन्य पुस्तक ने नहीं किया.
साहित्य की लोकचेतना उतनी ही प्राचीन है जितना कि आदि मानव. रागात्मक पक्षधरता उसे मजबूत बनाता है. ग्रामीणों के पर्व, त्योहार आचार-विचार, रिश्ते, जीवनमूल्य आदि को उन्हीं की बोली में अभिव्यक्ति मिलती है. उनके भाव और भाषा में अपनी मिट्टी की सुगन्ध आती है. उसमें मन की जड़ता को दूर करने की अपूर्व क्षमता होती है. वह बौद्धिक वजन का साहित्य नहीं है. वह मौखिक और जीवंत परंपरा का हिस्सा है. वह, असल में एक अमुक व्यक्ति की भावाभिव्यक्ति नहीं है, वरन् लोक की भावाभिव्यक्ति का आईना हैं. वह समाज की धरोहर हैं. पूराने समाज की घड़कन और स्पन्दन उसको सप्राण बनाती हैं. सामाजिक, पारिवारिक मूल्य ही उसकी जैव खाद है. लोक साहित्य मानवीय रिश्तों को मधुर बनाता है. ‘बहुजन सुखाय बहुजन हिताय’ के लक्ष्य की पूर्ति करता है. तुलसी दास की उक्ति ‘गावहि मंजुल बानी, सुनि कलरव मंगल बानी’ में उसका सन्देश निहित है. लोक जीवन में जितनी भी अवस्थाएं और परिस्तिथियाँ आती-जाती हैं, वे सब रामकथा में विस्तार से समाहित हैं. पारिवारिक जीवन का मोह-ममत्व, ईर्षा (irshya) -द्वेश,, प्यार, सौंदर्य का बोध, करुणा-दया, विश्वास, छल-प्रपंच, विवशतायें, उलझनें, आन्तरिक भावनाओं के द्वन्द्व, संघर्ष, विक्षोभ, धैर्य, चातुर्य, शील, निष्ठा, विश्वास, समर्पण, दृढ़ता, वत्सलता, सुकुमारता, कर्कशता, त्याग एवं सहनशीलता, रामकथा की जीवन धारा में लहरों की भांति प्रवाहित और तरंगित होते रहते हैं. युगचेता तुलसी दास जी ने जिस कौशल से संस्कारों और परम्पराओं का वर्णन किया है, जिसकी मिसाल और कहीं अन्यत्र देखने को नहीं मिलती. इन सब बातों को लेकर किसी विद्वत सज्जन का कथन मैंने कहीं पढ़ा था. वे कहते हैं कि रामायण को गाने की बजाए पढ़ा जाना चाहिए और गीता को गाया जाना चाहिए, ताकि उसका प्रभाव हमारे मन-मस्तिस्क पर असर डाल सके और हम उससे शिक्षा ग्रहण कर सकें. हमारे आचरण में जो दिन प्रति दिन गिरावट आ रही है तथा जैसे-जैसे हम अपनी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं,... लोक से दूर जाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे हम अमंगल की ओर बढ़ते जा रहे हैं.
हमें मालुम होना चाहिए कि लोकगीत, लोककथा, लोकपर्व, लोकोक्तियां, लोकनाटक, लोककलाएं, लोक भाषाएं, लोक-संगीत, लोक परंपराएं, लोक कहावतें, लोकगाथाएं तथा पहेलियां आदि सभी लोकसाहित्य के ही अंग-प्रत्यंग हैं. ग्रामीण लोग अपने नीरस और उबाऊ जीवन को रसपूर्ण बनाने के लिए जहां एक ओर विभिन्न-विभिन्न बोलियों में लोकगीत गाकर अपना मनोरंजन करते है, वहीं लोककथाओं के माध्यम से आनन्दित होते हैं. कभी नाटकों में अभिनय कर एक नया क्षितिज तैयार करते हैं, तो कहीं वे लोकोक्तियों और पहेलियों के माध्यम से अपनी दक्षता और बुद्धिकौशल का प्रदर्शन करते हैं. लोक कहावतों को सामाजिक न्याय की चलती फ़िरती अदालतें भी कहीं जाती हैं. बड़े-से-बड़े विवाद का कम-से-कम समय और शब्दों में अचूक निर्णय देने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है. शुरु से ही लोक जीवन, और लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा ग्रामीण अंचलों में बहुत ही समृद्ध एवं सुसंस्कृत रही है.
आइये...अब हम कविता के लोक में प्रवेश करते हैं. हम जब भी बात करते हैं कविता के लोक की या फ़िर लोक की कविता की, वस्तुतः हम लोक-साहित्य की ही बात कर रहे होते हैं.
विश्व के श्रेष्ठतम और प्रथम कवि होने का दर्जा यदि किसी को जाता है तो वह प्रातः वन्दनीय महर्षि वालमीकि जी को जाता है. आज से हजारों साल पहले श्री रामजी का जन्म त्रेतायुग में हुआ था. महर्षि वालमीकि जी श्रीराम जी के समकालीन थे. एक डकैत का-सा जीवन जीवन जीने वाले वाल्मीकि जी ने तमसा नदी के तट पर एक व्याध के हाथों मैथुनरत क्रौंच पक्षी के वध को देखा. करुणा के महासागर वाल्मीकि जी का दृदय इतना दृवित हो उठा कि उनके मुख से अचानक एक श्लोक फ़ूट पड़ा-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्।। ( b )वाल,रामायण –बालकांड-श्लोक 15)
वाल्मीकि जी का पटु शिष्य साथ ही था. वह आश्चर्यचकित हुआ कि अचानक यह श्लोक उनके मुख से कैसे फ़ूट पड़ा. उसने इस प्रश्न को पूछा तो वाल्मीकि जी ने उससे कहा-“ यह श्लोक जो मेरे शोकाकुल हृद्य से फ़ूट पड़ा है, उसके चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और इनमे मानो तंत्री की-सी लय गूंज रही है. इसके अलावा और मैं कुछ नहीं जानता.
पादबद्धोक्षरसम: तन्त्रीलयसमन्वित:।
शोकार्तस्य प्रवृत्ते मे श्लोको भवतु नान्यथा।। (…..श्लोक-18)
करुणा के इस महासागर से “काव्य” का उदय हो चुका था, जो वैदेक काव्य की शैली, भाषा और भाव से एकदम अलग था, नया था. शिष्य के साथ वे आश्रम में पहुँचे, परंतु उनका ध्यान इस श्लोक की ओर ही लगा रहा. इतने में आखिल विश्व की सृष्टि करने वाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्माजी, मुनिवर वालमीकि जी से मिलने के लिए स्वयं उनके आश्रम पर आये.
आजगाम ततो ब्रह्मा लोककर्ता स्वयं प्रभु चतुर्मुखो महातेजा द्रष्टुं तं मुनिपुंगम (वाल.रामायण,श्लोक- 23)
वाल्मीकि जी को ब्रह्मा का आशीर्वाद मिला कि तुमने जो काव्य रचा है, तुम आदि कवि हो, अपनी इसी श्लोक शैली में तुम रामकथा लिखना, जो तब तक दुनियां में रहेगी जब तक पहाड़ और नदियां रहेंगी.
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: लरितश्च महीतले।
तावद्रामायणकथा सोकेषु प्रचरिष्यति।।(वाल्मी.रामा.श्लोक-36)
ब्रह्मा जी से आशीर्वाद प्राप्त वाल्मीकिजी ने रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण काव्य का निर्माण किया. इतना ही नहीं उन्होंने श्रीरामजी के दोंनो पुत्र-लव और कुश, जिनका जन्म वाल्मिकि जी की कुटिया में ही हुआ था, इस महाकाव्य को पढ़ने और गाने में मधुर, द्रुत, मध्यम और विलम्बित-इन तीनो गतियों से अन्वित, षड़ज आदि सातों स्वरों से युक्त वीणा बजाकर, स्वर और ताल के साथ गाने योग्य तथा श्रृंगार, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक तथा वीर आदि सभी रसों से अनुप्राणित है, दोनों भाई को उस महाकाव्य को पढ़ाकर उसका गायन सिखाया.
पाठ्ये गेये च मधुरं प्रमाणैस्त्रिभिरन्वितम // जातिभिः सप्तभिर्युक्तं तन्त्रीलयसमन्वितम रसैः श्रृंगारकरुणहास्य रौद्रभयानकैः // वीरादिभी रसैर्तुक्तं काव्यमेतदगायताम ( बालकांड-श्लोक-9.चतुर्थ सर्गः)
रघुवंशविभूषण श्रीराम जी के चरित्रविषयक रामायण को अपनी जनपदीय बोली में संतकवि तुलसीदास जी ने संवत 1631 में रामनवमी के दिन रचना प्रारम्भ की. दो वर्ष, सात महिने, छब्बीस दिन में इस ग्रंथ की समाप्ति हुई. संवत 1633 के मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए थे. इतनी निशद काव्य रचना जो बोलने-सुनने में सहज है, जिसे अनेकों सुरों में सरलता से गाया भी जा सकता है, व्याकरण के हर पैमाने पर खरी उतरने वाला यह अद्भुत ग्रंथ, इससे पहले कभी नहीं लिखी गया था और शायद ही कभी लिखा जा सकेगा, ऐसा मेरा अपना मत है.
बालकाण्ड के श्लोक 7 में तुलसीदास जी ने लिखा है-
नाना पुराणनिगमागमसम्मतं यद रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि. स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबंधमतिमंजुलमातनोति ( श्लोक-7)
अनेक पुराणों, वेदों तथा शास्त्रों से सम्मत एवं जो श्री वाल्मीकि कृत और अध्यात्म रामायण में वर्णन है, उनके आधार पर तथा कुछ अन्यत्त्र से भी प्राप्त हुई श्रीराम कथा को अपने आन्तरिक सुख के लिए अत्यंत मनोहारिणी भाषा में रचकर, तुलसीदास विस्तार करता है.
युगों-युगों से अविरल धारा के रूप में प्रवाहित होने वाली इस काव्य-गंगा ने न जाने कितने लोकों की निर्मिति की है, जिनका सहज ही अंदाज लगाना संभव नहीं है.
कविता का लोक
सृष्टि की सबसे उत्कृष्ट कविता- “जब कोई स्वर कंठ से फ़ूटता है तो उसे कविता कहते हैं, आँखों से झरता है तो आँसू, और जब एकतारे से फ़ूटता है तो संगीत और जब वही सत्य बनकर होंठों से फ़ूटता है तो उसे मुस्कान भी कहते हैं.
ऊपर वर्णित जितने भी लोकों का मैंने उल्लेख किया है, इन सबका निर्माता और कोई नहीं, बल्कि वह सरस्वती पुत्र है, वह कवि है, वह साहित्यकार है. जिसने प्रकृति को आराध्य मानकर हृद्य में तरंगित होते हुए शब्दों को गूंथ-गूंथकर माँ भारती के लिए गलहार बनाये है. जिस प्रकार सारी सृष्टि का निर्माण स्वयं ब्रह्मदेव ने किया है, उसी प्रकार कलम के धनी कवियों ने भी अनेकानेक लोकों का निर्माण किया है. उसे दूसरा ब्रह्म यूंहि नहीं कहा गया है. निर्मल चित्त धारंण कर, जो भी प्रकृति की उपासना करता है, वह एक से बढ़कर एक गीत, एक से बढ़कर एक कविता की निर्मिति करता है. गीतों के बेताज सम्राट कहे जाने वाले स्व. गोपालदास नीरज को भला कौन नहीं जानता?. उन्होंने लिखा है- फ़ूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाति..जैसे अनेकानेक गीत लिखे, जो लोगों के, न सिर्फ़ कंठ्हार बने, बल्कि इनके गीतों को फ़िल्मों में भी शामिल किया है. स्व.हरिवंश राय बच्चन जी (मधुशाला), सुमित्रानंदन पंत, डा.शिवमंगलसिंह सुमन, डा.हजारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राष्ट्रीय ऊर्जा के कवि रामधारी सिंह “दिनकर”,जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, गोपाल सिंह नेपाली, भारत भूषण, गिरिजा कुमार माथुर, निर्मल वर्मा आदि सहित वर्तमान समय में भी कविताएं रचीं और पढ़ी जा रही है. इनमे कुछ प्रमुख नाम- कृष्ण शर्मा “सरल” चन्द्रसेन विराट आदि से लेकर केदारनाथ सिंह, अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, भगवत
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