प्रसंगवश
मदर टेरेसा जयन्ती पर विशेष (26 अगस्त 2012) दया-ममता-करुणा-त्याग और सेवा की बेजोड़ प्रतिमूर्ति समय-समय पर संसार में कई महान विभूतियों ने जन्म लेकर मानवता के कल्याण मात्र के कार्यों के प्रति अपना जीवन समर्पित किया है. मानवता के प्रति प्रेम-दया-करुणा-त्याग की भावना इन महानविभूतियों में सर्वनिष्ठ रही है. इन्हीं में एक नाम शामिल है मदर टेरेसा का. मदर टेरेसा का संपूर्ण जीवन उपेक्षितों,निराश्रितों,व असहायों के कल्याण कार्य के प्रति समर्पित रहा. 27 अगस्त 1910 को युगोस्लाविया के स्कोप्जे नामक छोटे से नगर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में उनका जन्म हुआ. इस नन्हीं सी बालिका का नाम “एग्नेस गोन्हा बोजाहिय “रखा गया. माता-पिता की धर्मिक प्रवृति का नन्हीं बालिका एग्नेस पर बहुत प्रभाव पडा. बचपन से ही नर्स बनकर सेवा-सुश्रुषा करने की ललक एग्निस के अन्तःस्थल मे गहरी पैठ गई और अठारह वर्ष की उम्र मे एग्नेस ने नन का चोला पहन लिया. 6 जनवरी 1929 को अग्नेस भारत पहुँची. २ वर्ष प्रार्थणा,चिंतन व अध्ययन में बिताने के पश्चात उन्होंने टेरेसा का नाम धारण किया. सन 1931 में कलकत्ता ( अब कोलकता) में टोरेन्टो कान्वेंट हाईस्कूल में भूगोल की अध्यापिका के रुप में उन्होंने नया मिशनरी जीवन शुरु किया. बाद में वे उसी स्कूल की प्राचार्या बनीं.
अपनी यात्रा के दौरान गरीबों-असहायों की दुर्दशा देखकर द्रवित हो उठी और उन्होंने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पार अपना जीवन निर्धनों-दलितों व पीढित मानवता की सेवा में लगाने का निश्चय किया. उन्होंने कोलकाता के तत्कालीन आर्कबिषप परेरा व पोप से कान्वेंट छोड़ने की अनुमति ली और पटना आ गईं. पटना मे उन्होंने “अमेरिकन मेडिकल सिस्टर्स “से नर्सिंग पाठ्यक्रम किया. नर्स के तीन वर्ष के प्रशिक्षण को उन्होंने मात्र तीन माह में ही प्राप्त कर लिया था. सर्वप्रथम इन्होंने कोलकाता की तेलजला और मोतीझील नामक दो गंदी बस्तियों मे अपना सेवा कार्य प्रारंभ किया. श्री माइकल गोम्स की सहायता से उन्होंने 21 सितम्बर 1948 को मोती झील क्षेत्र में स्यालदाह रेल्वे स्टेशन के समीप गरीब बच्चों के लिए पहला स्कूल खोला. बाद में एक मन्दिर के समीप स्थित धर्मशाला में इन्हें जगह मिल गई, जिसे उन्होंने “ निर्मल हृदय” नाम दिया तथा वृद्ध व असाध्य रोगियों की चिकित्सा की. इसके पश्चात उन्होंने परित्यक्त व अनाथ बच्चों ,के लिए “ निर्मल शिशु भवन” की शुरुआत की. सन् 1951 मे आपने रोगियों के पुनर्वास के लिए कुष्ठ निवारण केन्द्र की स्थापना की और एक चलित औषधालय की भी शुरुआत की. उनके समर्पण के भाव को देखकर पश्चिम बंगाल की सरकार ने आसनसोल के समीप 34 एकड जमीन प्रदान की,जहां उन्होंने “शांति नगर” की स्थापना की. यहां उन्होंने कुष्ठ रोगियों को समाज मे यथोचित स्थान दिलाने के लिए प्रशिक्षित भी किया. फ़िर जरुरतमंद महिलाओं के लिए “ प्रेमद्धाम” की भी स्थापना की. यहां काम करके महिलाएं आत्मसम्मान तो पाती ही थी,साथ ही अपनी जीविका के लिए धनोपार्जन भी करती थीं.
इनका सेवा कार्य एक जगह ही सीमित नहीं रहा वरन भारत के अनेक नगरों के साथ-साथ विदेशों में भी सेवा गतिविधियों का विस्तार होता रहा. सन 1950 में आपने “मिशनरीज आफ़ चेरिटीस” ,नामक संस्था का गठन किया .इस संगठन में हजारों की संख्या में पुरुष व महिलाकर्मी भी सेवारत हैं. मदर ने सदैव बच्चों को ईश्वर की देन माना. वे गर्भपात के सख्त खिलाफ़ थीं. उनका कहना था कि -“ईश्वर ने हर बच्चे को महान कार्यों के लिए सिरजा है,प्यार देने और पाने के लिए वह ईश्वर का ही स्वरुप होता है”. सन 1948 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की. आचार –विचार-सोच में वे सच्ची भारतीय रहीं. एक बार,एक व्यक्ति ने उनकी नागरिकता को लेकर प्रश्न किया तो बजाय नाराज होने के अथवा क्रुद्ध होने के उन्होंने मुस्कुराते हुए उस व्यक्ति को जबाब दिया:-“मैं मन से भारतीय हूँ और संयोग से आप भी भारतीय़ हैं”. आपको समय-समय पर सम्मानित किया गया. भारत का सर्वोच्च सम्मान” भारत रत्न” से आपको सम्मानित किया गया,जिसमें नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है. पांच सितम्बर सन 1997 को आपका स्वर्गवास हो गया. एक पवित्र आत्मा का ईश्वर में विलय हो गया. मदर ने अपने उद्बोधन में कहा था:-“दुनियां में गरीबी, दर्द और उपेक्षा हर कहीं विद्धमान है,चाहे अमेरिका हो या बांग्लादेश,आस्ट्रेलिया हो या कि भारत, जरुरतमंदों की हर जगह असंख्य तादात है. हमारी लड़ाई भौतिक-गरीबी के खिलाफ़ नहीं है. हमारी जंग तो उपेक्षित एवं तिरस्कार से उत्पन्न होने वाली आध्यात्मिक गरीबी के खिलाफ़ है. इस गरीबी से निजात पाने के लिए भौतिक व्यवस्थाएं पर्याप्त नहीं है. केवल त्याग और प्रेम के शस्त्र से इस गरीबी पर विजय प्राप्त की जा सकती है. आवश्यकता से अधिक धन एकत्र हो जाने पर उसे गरीब को दान स्वरुप दे देना कोई बड़ी बात नहीं है. खून-पसीना बहाकर कमाए धन में से सुख-सुविधा में कटौती कर किसी को सहारा देना, उसकी पीड़ा व संघर्ष में शरीक होना है. ईश्वर को ऐसे दान प्रिय है”.
मदर के सम्मान में डाक विभाग ने ’प्रथम दिवस आवरण” जारी कर उन्हें सम्मान दिया था.
मदर टेरेसा को संत की उपाधि. -----------------------------------------------------
मदर टेरेसा को संत की उपाधि देने में वेटिकन ने काफ़ी देर लगा दी. वेटिकन उन समाजसेवियों को संत की उपाधि देता है जिन्होंने अपने जीवन काल में कोई दो चमत्कार किए हों. दरअसल देखा जाए तो उनका पूरा जीवन निःस्वार्थ भाव से गरीबों, निःशक्तों के सेवा करते ही बीता है.
वेटिकान ने पूरे उन्नीस वर्षों की अवधि बीत जाने के बाद उन्हें “संत” की उपाधि देने का फ़ैसला सुनाया. मदर के जिन चमत्कारों का उल्लेख किया गया उनमें से थोड़ॆ अंतराल के बाद दो को वेटिकन ने चमत्कार माना. एक चमत्कार तो यह था कि मदर ने पश्चिम बंगाल की एक आदिवासी माहिला को असाध्य रोग से मुक्ति दिलाई. दूसरा चमत्कार यह माना गया कि मदर टेरेसा की प्रार्थनाओं और दैवीय शक्ति की वजह से ब्राजील के एक व्यक्ति के मस्तिष्क का कैंसर ठीक हो गया था.
मदर टेरेसा ने निःसन्देह देश के विभिन्न हिस्सों में गरीब, बेसहारा और दुखियारों के लिए आश्रम खोले. चिकित्सा करके उन्हें स्वस्थ जीवन जीने का अवसर प्रदान किया. मदर टेरेसा के काम की दुनिया भर में प्रशंसा हुई. इसके लिए उन्हें “नोबेल शांति पुरस्कार” से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने अपने सर्वोच्च पुरस्कार “भारत रत्न” से सम्मानित किया. मदर टेरेसा के प्रति दुनिया भर के लोगों में सम्मान की भावना है. लाखों लोग उनके अनुयायी हैं. ऎसा आदर कम लोगों को ही मिल पाता है.
मदर टेरेसा को संत का दर्जा देकर निःसन्देह वेटिकन ने उनके सम्मान को बढ़ाया है. मगर जिस तरह उन्हें चमत्कारों के आधार पर यह उपाधि दी गई है, उससे यह आशंका स्वाभाविक है कि जब लोगों को पता चलता है कि किसी व्यक्ति में चमत्कार की शक्ति है तो वे अपनी मनोकामनाएं लेकर वहां भीड़ जुटना शुरु हो जाती है. भारत में अनेक मंदिरों, मजारों वगैरह में ऎसी मान्यताओं के चलते भीड़ जमा होती है. फ़िर ऎसी जगहों पर किस तरह का कारोबार चलाने वाले अपनी जगह बनाना शुरु कर देते हैं और अंधविश्वास फ़ैलाने में योगदान करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है.
मदर टेरेसा ने मानवीय संवेदना के चलते लोगों की सेवा की. जीवित रहते हुए उन्होंने ऎसा दावा नहीं किया कि वो चमत्कार करती या कर सकती है. उनका जीवन प्रचलित संत, महात्माओं से अलग था. मनुष्य मात्र की सेवा में समर्पित. अगर संत का दर्जा मिलने के बाद इनके नाम पर भी उपासनागृह बनने लगे, वहां चमत्कारों के दावे होने लगें तो उससे मदर टेरेसा के काम का अवमूल्यन ही होगा.
अब यह जिम्मेदारी उनके अनुयायियों की है कि वे किस तरह मदर टेरेसा के जीवन भर के त्याग और मानवीय कार्यों को अंधविश्वासों की परत में लिपटने से बचाएं. मदर टेरेसा ने जब विदेशी मदद से दीन-दुखियो की सेवा के लिए आश्रम खोले और चिकित्सालय चलाने शुरु किए, तो इन पर भारत में ईसाई धर्म के प्रचार का आरोप लगा था. ऎसी ही कोई तोहमत अब उन पर न लगने पाए, उसका ध्यान रखना होगा. मदर टेरेसा का काम अनुकरणीय है. उनके दिखाए रास्ते पर चलकर अनेक कल्याणकारी कार्य किए जा सकते हैं.
----------------------------------------------------------------------------------------103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव.
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