उपन्यास- * वनगमन * एक अंश.
वनांचल में प्रभु श्री राम
श्रीराम ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफ़ल, गुणवान और दिव्य मनुष्य हैं. शासक के तौर पर
बेहद कामयाब- ऐसा न होता तो रामराज्य की चर्चा अब तक क्यों की जाती?. संयत, संतुलित
और निजी सुखों को त्याग कर न्याय और सत्य का साथ देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम की
सहनशीलता और धैर्य क्या अनुकरणीय नहीं है?. जरा-सी चोट लग जाने पर कराहने वाले हम
संघर्ष को देखें तो समझ सकेंगे- राज्य छोड़कर सन्यासी जैसा जीवन बिताना कितना कठिन
होता है.
गोवर्धन यादव.
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पृष्टभूमि.
इसे समय की क्रूरता कहें या फ़िर भाग्य की विडंबना कि जिसका राज्याभिषेक होने जा रहा हो
और अचानक उसे वनवास पर जाना पड़ जाय. वह भी एक-दो दिन के लिए नहीं, पूरे चौदह
वर्षों के लिए. न एक दिन ज्यादा और न एक दिन कम और वह भी इस कठिन शर्त के साथ कि
उसे तापस वेश में वल्कल और मृगचर्म धारण करते हुए तथा विशेष उदासी का भाव ओढ़कर
वन जाना होगा. इस विशेष उदासी के पीछे गहरा भाव यह था कि राम किसी भी गाँव या नगर
में प्रवेश नहीं करेंगे. संकेत स्पष्ट है कि उस समय भी तो अनेक राजा-महाराजा रहे होंगे, लेकिन
उन्होंने कभी रावण के बढ़ते अत्याचार के विरुद्ध न तो आवाज उठायी और न ही शस्त्र. कैकेयी
कदापि नहीं चाहती थीं कि राम को ऐसे अकर्मण्य राजाओं का साथ लेना पड़े. वह चाहती थी
कि राम को स्वयं को अपनी शक्ति अर्जित करनी होगी और रावण राज को समूल नष्ट करके,
अयोध्या की गौरवगाथा का गान अमर करना होगा. यह वह कारण था कि माता कैकेयी ने
अपने बेटे भरत के लिए सिंहासन और राम के लिए चौदह वर्षों का बनवास मांगकर पूरे
अयोध्या में भूचाल ला दिया.
अयोध्या को प्रणाम.
पिता की आज्ञा का बारंबार स्मरण करते हुए वे बहुत दूर निकल गए. ग्रामो और सुशोभित वनों
को देखते हुए वे शीतल एवं सुखद जल बहाने वाली वेदश्रुति नामक नदी को पार करके
अगस्त्यसेवित दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गए. दीर्घकाल तक चलते हुए उन्होंने समुद्रगामिनी
गोमती नदी को पार किया जो शीतल जल का स्त्रोत बहाती थी. उसके कछार में बहुत-सी गौएँ
विचरती थीं. गोमती नदी को लाँघकर उन्होंने मोरों और हंसों के कलरव से व्याप्त स्यन्दिका
नामक नदी को पार किया, जो धन-धान्य से संपन्न और अनेक अवान्तर जनपदों से घिरी हुई
भूमिका सीताजी को दर्शन कराया.
विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः ** अयोध्यामुन्मुखो श्रीमान्
प्राजंलिर्वाक्यमब्र्अवीत
आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते ** देवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च
निवृत्त्वनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः ** पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह संगत
विशाल और रमनीय कोसलदेश की सीमा को पार करके रामजी ने अयोध्या की ओर मुख किया
और हाथ जोड़कर कहा-“ ककुत्स्थवंशी राजाओं से पालित पुरी शिरोमणि अयोध्ये ! मैं तुमसे
तथा जो-जो देवता तुम्हारी रक्षा करते हैं और तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, उनसे भी वन जाने
की आज्ञा चाहता हूँ. बनवास की अवधि पूरी करके महाराज के ऋण से उऋण हो मैं पुनः
लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पिता से भी मिलूँगा.
कोसलदेस्श से आगे बढ़ते हुए उन्होंने मार्ग में सुख-सुविधा से युक्त, धन-धान्य से संपन्न रमणीय
उद्यानों, त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा के दर्शन किया जो शीतल जल से भरी हुई, सेवारो से
रहित तथा रमणीय थी. बहुत से धर्मात्मा साधु-संतों ने आश्रम बनाअ रखे थे. समय-समय पर
हर्षभरी अप्सराएं भी उतरकर उसके जलकुंड का सेवन करती थीं. देवता ,दानव, गन्धर्व और
किन्नर उस शिवस्वरूपा भागीरथी की शोभा बढ़ाते हैं.नागों और गन्धर्वों की पत्नियाँ उनके जल
का सेवन करती हैं. जल के आपस में टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है,वह नदी का निर्मल
हास है. नदी के तट पर हंसों और सारसों के कलरव सदा दूँजते रहते हैं. मदमस्त विहंगम जल के
ऊपर मंडराते हैं. कहीं कुकुद, कहीं कलिकाएं, कहीं कमलदल मुस्कुराते से दीखते हैं. उन्हें देवनदी
के पावन तट पर पहुँचकर उन्होंने गंगाजी को प्रणाम किया और वहीं रात में श्रृंगवेरपुर में
निवास करने का मानस बनाया.
यहाँ का राजा, रामजी का परम सखा गुह राज्य करता था. जब उसे ज्ञात हुआ कि महाबाहू
श्रीराम श्रृंगवेरपुर आ चुके हैं वह अपने सकल समाज के साथ उनके दर्शनों के लिए गया. उसे
अपने समीप आता देख राम, लक्ष्मण के साथ आगे बढ़कर मिले. अपने मित्र को वल्कल धारण
करता देख गुह को बड़ा दुःख हुआ. प्रातःकाल रामजी ने गुह से कहा कि वे गंगा के उस पार
जाना चाहते हैं, तुम नौका का प्रबंध करो. नाव तैयार की गई. नौका पर चढ़ने से पहले गुह ने
रामजी के चरण पखारे, नाव पर तीनों को चढ़ाया और उस पर जा पहुँचे.
उन्होंने साथ आए सुमन्त्र जी को अयोध्या लौट जाने को कहा. गंगा जी की बीच धार में पहुँचकर
भगवती देवी सीताजी ने गंगा जी की पूजा-अर्चना की और आशीर्वाद मांगा और कहा कि
कुशलतापूर्वक लौट आने पर वे आपकी पूजा करेंगी.
गंगा के उस पार उतरकर वे अब एक ऐसे प्रदेश में प्रवेश कर रहे थे, जहाँ मनुष्यों के आने-जाने
के कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते थे. एक विशाल वृक्ष के नीचे पहुँचकर उन्होंने सायंकाल
सांध्योपासना की और लक्ष्मण से कहा- हे सुमित्रानन्दन ! आज हमें अपने जनपद से बाहर यह
पहली रात प्राप्त हुई है. अतः हम दोनों को आलस्य छोड़कर रात में जागना होगा.
लक्ष्मण ने पेड़ों के नीचे सूखे पत्तों को बटोरकर शय्या तैयार की. रामजी बहूमूल्य सोने के पलंग
पर, कोमल गद्दों में सोया करते थे, लेकिन भाग्य का खेल देखिए कि उन्हें घास-फ़ूस और तिनकों
की शैय्या बनाकर सोना पड़ रहा है.
महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम में.
उस सघन वृक्ष के नीचे रात बीता कर वे निर्मल सूर्योदय काल में उस स्थान से आगे प्रस्थित हुए.
कभी थोड़ी देर विश्राम करते हुए, तो कभी द्रुत गति से चलते हुए, वन की अनुपम शोभा को
निहारते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे. इस प्रकार जब दिन प्रायः समाप्त हो चला था और सांझ
घिर आयी थी. तभी रामजी ने अग्निदेव की ध्वजा रूप धूम को आकाश में ऊँचा उठता हुआ देखा.
उन्हें दो नदियों के परस्पर टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह भी सुनाई दे रही थी. तनिक
रुकते हुए उन्होंने लक्ष्मण से पूछा:- " भ्राता लक्ष्मण! तुम्हें कुछ दिखाई और सुनाई दे रहा है
अथवा नहीं?. आकाश में उठते हुए उस धूम की ओर देखो और दो नदियों के टकराने से जो
ध्वनि उत्पन्न होती है, सुनाई देगी. मुझे जान पड़ता है यहीं कहीं आसपास गंगाजी और यमुना
की संगम स्थलि होनी चाहिए और इसी के निकट महर्षि भरद्वाज मुनि का आश्रम भी है".
हम उनके दिव्य दर्शन करें उससे पहिले मैं तुम्हें उनके बारे में जानकारियां देता चलता हूँ तुम
उसे ध्यानपूर्वक सुनो”
“हे निष्पाप लक्ष्मण..! अब हम महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम के अति निकट आ गए हैं. उनके
दिव्य दर्शनों का हमें लाभ मिलेगा. मुझे उनके बारे में जो-जो जानकारियाँ मुझे प्राप्त हैं, मैं तुम्हें
बतलाता चलता हूँ. ऐसी अनूठी और रोचक जानकारियाँ देते हुए मुझे अत्यन्त ही प्रसन्नता हो
रही है"
"महर्षि अगस्तजी ने इन्द्र से आयुर्वेद का और व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया है. ऋक्तंत्र के
अनुसार ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण प्रवक्ता हैं महर्षि भृगु ने उन्हें
धर्मशास्त्र का उपदेश दिया था. तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय महर्षि भारद्वाज वाल्मिकी के
साथ थे"
"वे आयुर्वेद व्याकरण और आयुर्वेद के ज्ञाता होने के अतिरिक्त धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र,
यंत्रसर्वस्व अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि ग्रंथों के रचयिता भी हैं. आयुर्वेद संहिता संहिता के
अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काय-चिकित्सा का ज्ञान दिया था".
"जिस प्रयागराज में हम जा रहे हैं, उसको महर्षि भरद्वाजजी ने ही बसाया था और धरती के
सबसे बड़े गुरुकुल (विश्वविद्यालय) की स्थापना भी उन्होंने ही की थी. इस गुरुकुल में वे वर्षों
तक विद्यादान करते रहे है. वे कुशल शिक्षाशास्त्री, शस्त्रविद्या, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री,
शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेद विशारद, विधि वेत्ता, अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता, और
मंत्र द्रष्टा भी है. ऋग्वेद के छटे मंडल के द्रष्टाऋषि, भारद्वाज जी ही हैं. इस मंडल में 765 मंत्र
हैं. अथर्ववेद में भी ऋषि भारद्वाज के 23 मंत्र हैं. वैदिक ऋषियों में इनका स्थान ऊँचा स्थान
है. आपके पिता का नाम वृहस्पति और माता का नाम ममता था".
"ऋषि भरद्वाज जी को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में
भगवान ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त हुआ था. अग्नि के सामर्थ्य के आत्मसात कर ऋषि ने अमृत-तत्व
प्राप्त किया था और स्वर्गलोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था. संभवतः इसी कारण
ॠषि भारद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में एक हैं".
"हे लक्ष्मण ! ऐसी दिव्य छवि वाले महर्षि से हमें शस्त्रऔर शास्त्र की विद्या सीखने को मिलेगी.
उनसे प्राप्त शिक्षा के बल पर हम बहुत सारी विपत्तियों से सहज में ही छुटाकारा पा सकेंगे.
निश्चित ही हम सभी बड़भागी हैं जिन्हें ऐसे महात्मा के दिव्य दर्शनों का पुण्य़ लाभ मिलने जा
रहा है".
आकाश में उठते हुए धूम की ओर बढ़ते हुए, वे कुछ ही समय में, महर्षि भरद्वाजजी के परम
पवित्र आश्रम में पहुँच गए थे. आश्रम के द्वार पर उन्होंने महर्षि के शिष्य को खड़ा पाया. रामजी
ने उस शिष्य से कहा:- मैं दशरथ नंदन राम, अपनी भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ
महर्षि भरद्वाजजी के दिव्य दर्शनों की अभिलाषा लिए हुए आया हूँ. आप कृपा कर महर्षि को
मेरा प्रणाम निवेदित करते हुए मेरे आगमन की सूचना दें. जब तक आप उनकी अनुमति प्राप्त
कर नहीं आ जाते, तब तक मैं यहीं, इसी द्वार पर आपके आगमन की प्रतीक्षा करता रहूँगा.
महर्षि की अनुमति प्राप्त कर शिष्य ने रामजी से कहा:- "भगवन! आपका आत्मीय स्वागत है.
गुरुवर ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आप सभी को सादर अन्दर लिवा लाऊँ... हे प्रभु ! आप मेरे
साथ चलिए". कहते हुए शिष्य लौट चला था और रामजी, सीताजी और लक्ष्मण को लिए उस
शिष्य के पीछे-पीछे जाने लगे.
पर्णशाला में प्रवेश करते हुए उन्होंने तपस्या के प्रभाव से तीनों कालों की सारी बातें देखने देखने
की दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने वाले महात्मा भरद्वाज जी के दर्शन किए, जो अग्निहोत्र संपन्न करने
के पश्चात अपने शिष्यों से घिरे हुए थे. महर्षि को देखते ही तीनो ने हाथ जोडकर उनके चरणॊं
में प्रणाम किया.
प्रणाम निवेदित करने के बाद रामजी जी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर अपना परिचय देते हुए
कहा:-” भगवन ! हम दोनों राजा दशरथ के पुत्र हैं. मेरा नाम राम है और इनका लक्ष्मण तथा ये
वेदेहराज जनक की पुत्री और मेरी धर्मपत्नी सीता है, जो इस निर्जन तपोवन में मेरा साथ देने
आयी हुई हैं. पिताश्री ने मुझे चौदह वर्षों के लिए वनवास में रहने की आज्ञा दी है. मुझे आता
देख अनुज लक्ष्मण भी वन में रहने का व्रत लेकर मेरे साथ चले आए हैं..हम तीनों वन में रहते
हुए कंद-मूल और फ़लों का आहार करते हुए धर्म का पालन कर रहे हैं”.
रामजी की विनयशीलता और मधुर वचनों को सुनकर महर्षि भरद्वाज जी को परम संतोष हुआ.
इस समय उनके चारों ओर मृग, पक्षी और ऋषि-मुनि बैठे हुए थे. अपने आश्रम पर अतिथि
के रूप में पधारे श्रीराम, सीता जी सहित लक्ष्मण का स्वागतपूर्वक सत्कार करते हुए उन्होंने
अपने एक शिष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा जल और नाना प्रकार के
जंगली फ़ल-मूल लाने को कहा
रामजी बिछाए गए आसन पर विराजमान हो गए, तब महर्षि भरद्वाज ने रामजी से कहा: ”राम
! मैं दीर्घकाल से तुम्हारे शुभागमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. आज मेरा मनोरथ सफ़ल हुआ. मैंने
यह भी सुन रखा है कि तुम्हें अकारण ही वनवास दे दिया गया है”.
“गंगा और यमुना की यह संगम-स्थल बड़ा ही पवित्र और एकान्त है. यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता
बड़ी ही मनोरम है. उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर उन तीनों के लिए सुस्वादु और मीठा
जल और नाना प्रकार के जंगली फ़ल-मूल-फ़ल लाने को कहा. अतः तुम लोग यहाँ सुखपूर्वक
रहो. मैंने आपके ठहरने की उत्तम व्यवस्था करवा दी है. आप तीनों इसी स्थान पर सुखपूर्वक
रहो”.
महर्षि अगस्त जी के आश्रम में रात्रि विश्राम करते हुए रामजी ने अनुज लक्ष्मण से जानना चाहा
:-
"सुमित्रनंदन !हमारे इस वनवासकाल में हमें महर्षि, ऋषि, मुनि, साधु, संत-महात्मा आदि के
दर्शन होंते रहेंगे. क्या तुम बतला सकते हो कि इनके बीच क्या अन्तर होता है?."
"हे ज्येष्ठ भ्राता, मुझे नहीं मालुम कि इनके बीच क्या विभेद होता है. कृपया आप ही बतलाने की
कृपा करें, तो उत्तम होगा?"लक्ष्मण ने रामजी से कहते हुए जानना चाहा.
"सुमित्रानंदन ! इनके बीच क्या विभेद होता है, वह मैं तुम्हें कह सुनाता हूँ. भार्या सीता, तुम
भी इसे ध्यान से सुनो. भारत प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेश महत्व रहा है. ये
सभी अपने तप के बल पर समाज का कल्याण का कार्य करते हैं. आज भी तीर्थ स्थलों, जंगल
और पहाड़ों में कई साधु-संतादि के दर्शन हमें मिलते है.
महर्षि वह होता है जिसके पास कुछ सिध्दियाँ और भक्ति एवं ज्ञान हो. ठीक इसी प्रकार परम
तेजस्वी, भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचने वाले मुनि को ब्रह्मर्षि कहा जाता है. वे हमेशा
लोककल्याण के कार्यों में ही लगे रहते है. उनकी भक्ति और तपस्या का एकमात्र उद्देश्य जनता
की भलाई करना होता है. विश्वामित्र जी. वसिष्ठ जीवाल्मीक जी, तथा अगस्त्य जी, महर्षि के
पद पर प्रतिष्ठित हैं.
देवर्षि उसे कहते है जिसने देवताओं के बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, जैसे देवर्षि
नारद.
महाऋषि वे होते है जो ऋषियों के भी ऋषि होते है. राजर्षि का मतलब है कि कोई राजा
ऋषियों के स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेता था, उन्हें राजर्षि कहा जाता है..
ऋषि- वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को ऋषि का दर्जा प्राप्त है. ऋषि को सैकड़ों सालों के तप
या ध्यान के कारण सीखने और समझने के उच्च स्तर पर माना जाता है. वैदिक काल में सभी
ऋषि गृहस्थ आश्रम से आते थे. ऋषि पर किसी तरह का क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या
आदि की कोई रोकटोक नहीं है और ना ही किसी भी तरह का संयम का उल्लेख मिलता है.
ऋषि अपने योग के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त हो जाते थे और अपने सभी शिष्यों को
आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे.
मुनि उसे कहते हैं जिसके मन में किसे भी प्रकार की कामना का कोई ज्वार नहीं उठता है. उसका
मन एकदम शांत होता है. उसका संबंध बाहरी मौन से नहीं है.जिसने भी मौन व्रत धारण कर
लिया है, वहीं मुनि है.
संत, महात्मा और साधु-‘संत’ वो है जिसने अविनाशी सत् को जान लिया है ‘महात्मा’ वह है
जिसकी आत्मा किसी भी क्षुद्र विचारों से व्यथित नहीं होती, वो महान और पवित्र कार्यों के
संलग्न रहता है. ‘साधु’ एक सरल स्वभाव है जो किसी के भी अंदर हो सकता है.
योगी और सिद्ध-जिसने कर्मयोग के द्वारा समत्व बुद्धि को प्राप्त कर अविनाशी सत् के साथ स्वयं
का योग करा लिया है वही योगी है. सिद्ध वो है जिसने कुंडलिनी जागरण के द्वारा अविनाशी
सत् का साक्षात्कार किया है.
ऋषि मुनियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी से रामजी ने सीताजी और लक्ष्मण को रोचक
जानकारी देते हुए कहा:- अनुज ! संभवतः हम मध्यरात्रि तक जाग चुके हैं. अब हमें विश्राम
करना चाहिए. सूर्योदय होने के साथ ही हमें किसी अन्य स्थान के लिए जाना होगा.” ऐसा
निर्देश देकर वे विश्राम करने लगे थे.
सूर्योदय से ठीक पहले सभी जाग गए थे. नित्य क्रिया-कर्म के बाद सभी ने स्नान किया और तैयार
होकर महर्षि अगस्तजी के पास पहुँचे. महर्षि को प्रणाम निवेदित करने के पश्चात रामजी ने
विनय पूर्वक कहा :- “ हे महात्मन ! मेरे नगर और जनपद के लोग यहाँ बहुत ही निकट पड़ते हैं.
अतः वे सुगमता से मुझसे मिलने के लिए आते-जाते रहेंगे. उनके इस तरह आने-जाने से आपको
भी अकारण कष्ट उठाने पड़ेगे और तप-आदि करने में विघ्न उत्पन्न होगा. अतः हे भगवन ! किसी
एकान्त प्रदेश में आश्रम योग्य उत्तम स्थान के बारे में मुझे बतलाएं, जहाँ हम तीनों प्रसन्नतापूर्वक
रह सकें”. बड़े विनय के साथ हाथ जोड़कर रामजी ने महर्षि से ऐसा स्थान बतलाने का अनुरोध
किया.
महर्षि के कानों ने एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था. सुना था कि रामजी उनसे निर्जन स्थली
के बारे में जानकारी लेना चाह रहे है. उत्तर उन्हें देना था. प्रश्न जैसे कहीं गुम हो गया था.
सुनकर भी वे शायद सुन नहीं पाए थे. उनकी आँखें रामजी के अलौलिक छवि को निहारने में
लगी हुई थी. नयनाभिराम छचि को निहारते हुए वे किसी दिव्य-लोक में विचरण करने लगे थे.
जिस राम को पाने और जानने के लिए उन्होंने कड़ी तपस्या की थी. अपना संपूर्ण जीवन जिनके
लिए समर्पित कर दिया था, अरे जिसने सारी सृष्टि का निर्माण किया हो,... जो कण-कण में
व्याप्त है.....जिसकी इच्छा के बिनापत्ता तक नहीं हिलता हो, .....जिनकी आँखों का संकेत पाकर
सारे ग्रह सहित संपूर्ण ब्रह्मांड संचालित होता है, ऐसी एक विराट सत्ता का स्वामी, उनके सामने
नतमस्तक होकर पूछ रहा है कि मैं कहाँ जाकर रहूँ ? महर्षि भरद्वाज जी भले ही त्रिकालदर्शी
थे. वे अपनी जगह बैठे-बैठे ही संपूर्ण विश्व के श्रेष्ठ स्थानों के बारे में तत्काल बतला सकते थे,
लेकिन जो इस सृष्ठी का ही बनाने वाला हो, वे उसे ऐसा उपयुक्त स्थान कैसे बतला सकते थे?.
लेकिन वे अपने आपको असमर्थ पा रहे थे.
रामजी ने पुनः उसी प्रश्न को दोहराया "महात्मन ! मुझे वह सुलभ मार्ग और उस निर्जन स्थान
की जानकारी दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक अपनी भार्या सीताजी और अनुज लक्ष्मण के सहित निवास
कर सकूँ". रामजी के बार-बार पूछने के बाद, महर्षि जैसे नींद से जागे थे. अब वे चैतन्य हो
वर्तमान में लौटने लगे थे.
चित्रकूट की ओर.
रामजी उनसे पूछ रहे थे. उन्हें हर हाल में उत्तर तो देना ही होगा.... उन्हें उपयुक्त स्थान तो
बतलाना ही पड़ेगा. बातों की गंभीरता को वे समझ रहे थे. समझ रहे थे अब बचाव का कोई
मार्ग शेष नहीं है. आखिरकार उन्होंने रामजी से कहा:-"राम...यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक
सुन्दर परम पवित्र पर्वत है, जिसे "चित्रकूट" के नाम से जाना जाता है, चित्रकूट पर्वत पर बड़ा
ही रमणीय स्थल है. इस पर्वत पर लंगूर, वानर और रीछ निवास करते हैं. यहाँ बड़े-बड़े,
विशाल हाथियों के दल विचरते दिख जाएंगे. इनके अलावा इस पर्वत पर बहुत से ऋषि-मुनि
तपस्या में लीन होकर साधनाएं कर रहे हैं. एकान्त के उद्देश्य से यह स्थान आपके लिए उपयुक्त
है. अतः वहाँ जाकर निवास करें".
"राम ! इस परम पवित्र पर्वत रमणीय तथा बहुसंख्यक फ़ल-मूलोंसे संपन्न है. बड़ी संख्या में
हिरणॊं के झुण्ड यहाँ-वहाँ स्वछंद विचरते, उछलते-कूदते देखे जा सकते हैं. वहाँ तुम्हें पवित्र
मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जलस्त्रोत, पर्वतशिखर, गुफ़ाएँ. कन्दराएँ तथा छलछल के स्वर
निनादित करते मनभावन झरने भी तुम्हें देखने को मिलेंगे. यह पर्वत सीता के साथ विचरते हुए
तुम्हारे मन को आनन्द प्रदान करेगा. जमीन पर घोंसला बनाकर रहने वाला पक्षी टिट्तिभ (
टिटहरी ) और स्वरसाधिका कोकिला के मधुर कूक भी तुम्हारा मनोरंजन करेंगी. अतः हे राम,
आप इस रम्य पर्वत पर निवास करें".
रामजी अपनी भार्या सीता जी और अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि के आश्रम में रात्रि को
सुखपूर्वक विश्राम किया. और सबेरे प्रयाग में स्नान किया और अपने सेवक गुह के सहित रामजी
ने अपनी भार्या सीताजी और लक्ष्मण के सहित महर्षि के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए
बिदा मांगी. तब महर्षि ने स्वस्तिवाचन करते हुए उन्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा:-
"हे रघुनन्दन श्रेष्ठ !. तुम दोनों भाई गंगा और यमुना के संगम पर पहुँचकर जिनमें पश्चिमोमुखी
होकर गंगा मिली है,, यमुना के निकट पहुँचकर लोगों के आने-जाने के कारण पदचिन्हों को
चिन्हित कर घाट को अच्छी तरह देख-भालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर पार उतर
जाना".
"तत्पश्चात आगे जाने पर तुम्हें बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष मिलेगा, जिसके पत्ते हरे रंग के हैं. वह
चारों ओर से बहुसंख्य दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है, उस वृक्ष को "श्यामवट"के नाम से जाना
जाता है. उसकी छाया में बहुत-से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं. वहाँ पहुँच कर सीता दोनों हाथ
जोडकर उस वृक्ष के आशीर्वाद की याचना करे. उसकी जो भी इच्छा हो, उसे कह सुनाए और
उस वृक्ष के पास कुछ काल तक निवास करे अथवा वहाँ से आगे बढ़ जाएं."
"श्यामवट से एक कोस की दूरी पर तुम्हें नीलवन का दर्शन होगा, वहाँ चीड़, बाँस और बेर के
पेड़ मिलेंगे. मैं उस मार्ग से कई बार आया-गया हूँ. कालिन्दी वहाँ प्रचण्ड वेग से बहती है. अतः
काष्ठ और बाँसों की डोंगी बनाकर उस पार उतर जाना"..महर्षि ने रामजी को मार्गदर्शन देते
कहा.
संगम में पहुँचकर लक्ष्मण ने कुछ सूखे हुए काष्ठ और बांसों की एक बड़ी-सी डोंगी का निर्माण
किया. सबसे पहले रामजी ने सीता को, फ़िर लक्ष्मण को और अंत में स्वयं उस पर सवार होकर
आगे बढ़ने लगे. जब डॊंगी बीच यमुना की धारा में पहुँची, तब सीता ने यमुना जी को हाथ
जोड़कर प्रार्थना की कि वे अपने पति और देवर के साथ आपके उस पार जा रही हूँ. आप ऐसी
कृपा करें कि हम उस पार सकुशल उतर जाएं. लौटकर आने के बाद हम पुनः आपके दर्शन करेंगे.
आपकी पूजा करेंगे और घाट पर बने मन्दिरों में जाकर दर्शनों का पुण्य लाभ उठाएँगे.
यमुना के दक्षिण तट पर उन्होंने उस डोंगी को वहीं छोड़ दिया. कुछ दूर पैदल चलने के बाद
उन्हें "श्यामवट"के दर्शन हुए. वटवृक्ष के समीप पहुँचकर सीताजी ने मस्तक झुकाते हुए उस
महावृक्ष को प्रणाम किया और सकुशल लौट आने का आशीर्वाद मांगा.
यमुना के तट पर आच्छादित वृक्षों की डालियों पर धमाचौकड़ी मचाते हुए शाखामृगों, अपनी
बोली में "केका"के स्वर निकाल कर नृत्य करते हुए मोरों के समूह, घास चरते, कभी स्वछंद
विचरते विशालकाय हाथी और हंसों और सारसों के झुण्ड देखकर सीताजी को अत्यन्त ही
प्रसन्नता हो रही थी. वनों की सुषमा को निहारते हुए वे लोग यमुना नदी के समतल तट पर आ
गए और रात में उन्होंने वहीं निवास किया.
रात्रि व्यतीत होने पर रामजी ने धीरे से सीताजी तथा लक्ष्मण को जगाते हुए कहा:- हे वीर
लक्ष्मण...प्रातःकाल हो चुका है. अब हमें शीघतापूर्वक "चित्रकूट" की ओर चल देना चाहिए.
ऐसा कहते हुए सभी ने स्नान किया. और क्रमशः आगे बढ़ने लगे. (क्रमशः)
103, कावेरी नगर छिन्दवाड़ा (म.प्र.) गोवर्धन
यादव. 9424356400
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