Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बैंकिंग प्रणाली कितनी न्याय - संगत ?

 

बैंकिंग प्रणाली कितनी न्याय - संगत ?


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने छठे मुख्य न्यायाधीश एमसी छागला की स्मृति में आयोजित आभासी कार्यक्रम में व्याख्यान देते हुये समाज के बौद्धिकों से जो कुछ आह्वान किया उसका सारांश यही है कि तथ्यपरक आवाज उठाते रहना है । इसके कुछ ही दिन पहले टेलीविजन परिचर्चा  के दौरान एक ख्यातिप्राप्त कॉर्पोरेट विश्लेषक ने भी बैंकिंग  प्रणाली से व्यथित होकर एक टिप्पणी करते हुये यानि अपनी आवाज उस परिचर्चा के माध्यम से उठा हम सभी श्रोताओं के ध्यान में ला दी थी और इन दोनों टिप्पणीयों को दृष्टिगत रखते हुये आम जनता से सम्बन्धित बैंकिंग प्रणाली वाले केवल दो मसलों को संक्षेप  में बयाँ कर यह पोष्ट सभी को सुधार हेतु इस आशा के साथ प्रेषित कर रहा हूँ ताकि कोई तो बैंकिंग प्रणाली से सम्बन्धित अधिकारी / राजनेता या  इलेक्ट्रॉनिक मीडियावाले / अखबरवाले इन मसलों पर अपना सकारात्मक सहयोग अवश्य प्रदान करेंगें क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति का नहीं बल्कि साधारण आम जनता से जुड़े मसले हैं । 


यह विडम्बना ही है कि केन्द्रीय बैंक यानि  रिजर्व बैंक में सभी पदाधिकारी चाहे वो अधिकारी हों या डायरेक्टर सभी की विद्वता में कहीं भी किसी भी प्रकार की कमी नहीं हैं। फिर भी कुछ ऐसे मसले हैं जिस पर बार बार अवगत कराने  के बावजूद वे लोग किसी भी प्रकार का सुधार करते नजर नहीं आ रहे हैं। अब उदाहरण के तौर पर आज मैं केवल दो मसले आपके सामने रखता हूँ ।  जो इस प्रकार हैं -

1]हम सभी व्यक्तिगत ऋण बैंकों से लेते हैं चाहे वो मकान बाबत हो या फिर वाहन वगैरह के लिये अब मैं इससे जुड़े कुछ  तथ्य आपके सामने रखता हूँ -
 
क ] पहला तो यह है कि  बैंक जब हमें किसी भी प्रकार का ऋण देता है तो  हमसे उस पर व्याज लेता है लेकिन एक ढेला भी खर्चा नहीं करता है । ऐसा मैं क्यों बता रहा हूँ इसको समझने की आवश्यकता है । जैसे ही आप  ऋण का आवेदन करते हैं बैंक आपको जो प्रक्रिया बताता है उस प्रक्रिया को पूरा करने में  दो तीन तरह के खर्चे होते हैं । उस प्रक्रिया व  खर्चों के बाद जब सभी तरह से बैंक संतुष्ट हो जायेगा तभी बैंक आपको ऋण  देगा ।  यहाँ यह तो सही है कि ऋण आवेदन के साथ यदि बैंक खर्चा वहन करने लगे तो फालतू ऋण आवेदन को रोकना मुश्किल होगा। लेकिन ऋण दे देने के बाद उन खर्चों में से बैंक कुछ भी आपको वापस नहीं देगा ।यहाँ तक कि एक ढेला भी सांझा नहीं करता है।जबकि यदि हमें  ऋण की आवश्यकता है तो उतनी ही बैंक को व्याज आय की भी आवश्यकता है । ऐसा क्यों ?

ख ] अब समझिये दूसरे तथ्य को जैसे ही ऋण लिये दो साल हो जायेंगे उसके बाद बैंक बिना आपकी सहमति लिये आपके खाते से कुछ रकम जैसे समझिये 250/- बतौर निरीक्षण शुल्क काट लेगा । जबकि अचल संपत्ति के भौतिक निपटान की संभावना रहती ही नहीं है और रेहन सही ढंग से किये जाने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का छेड़छाड़ की  भी संभावना का भी कोई मौका बचत कहाँ  है। इसके अलावा अचल संपत्ति के बाजार मूल्य  का बीमा कराये बिना तो बैंक ऋण देता ही नहीं है।  इसलिये इन सब के बावजूद भी निरीक्षण आवश्यक है तो यह शुल्क बैंक को स्वयं वहन करना चाहिये क्योंकि वे हमसे व्याज कमा रहे हैं। इसलिये उचित यही होता है कि इस तरह का खर्च बैंक  ही वहन करे  ।
 
उपरोक्त में और एक बात ध्यान देने लायक यह है कि अमूमन किसी भी प्रकार का निरीक्षण होता ही नही हैं। क्योंकि यदि कोई  निरीक्षण करने आयेगा तो पहले ग्राहक को  सूचना देगा यानि समय निर्धारित कर तब आयेगा और निरीक्षण पश्चात जो भी विवरण तैयार करेगा उस पर मकान / वाहन [ या कुछ और ] उसके मालिक का हस्ताक्षर तो लेगा न । और यदि बिना बताये निरीक्षण किया है तो आवश्यकता पड़ने पर उस समय का विडिओ दिखायेगा ।  जबकि ऐसा कुछ होता ही  नहीं है । इसे केवल एक आय का जरिया बना लिया गया है जो सब दृष्टि से सर्वथा अनुचित है । 

ग ] अब ध्यान दीजिये  तीसरे तथ्य पर क्या यह बैंक का दायित्व नहीं है कि  हर साल व्याज व मूलधन कितना मिला उसका हस्ताक्षरित प्रमाणपत्र  बिना मांगे ग्राहक को उसके पते पर भेज दे और समर्थन में पूरे साल का विवरण ।  यह हम सभी जानते हैं कि यह व्याज व मूलधन वाला प्रमाणपत्र आयकर के लिये आवश्यक होता है । जबकि हालत यह है कि इन दस्तावेजों के लिये बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं । और तो और घर वाली शाखा को छोड़ दूसरे शाखा  वाले एकबार तो स्पष्ट माना कर देते हैं अगर देंगे तो भी पूरे साल वाला ऋण खाता का विवरण तो दे भी देंगे लेकिन व्याज व मूलधन वाला  प्रमाणपत्र तो जहाँ से ऋण लिया वहीं से लेने को बोल देंगे । जबकि आज के इस डिजिटलीकरण में क्या यह बैंकिंग सिद्धांत के खिलाफ नहीं है ? इसके अलावा बैंकिंग सिद्धांत में 'सेवा दृष्टिकोण' क्यों गायब होता जा रहा है ? इन सब पर नियामक ध्यान देकर व्यवस्था को कब दुरुस्त करेगा ?

इस सम्बन्ध में अपने साथ घट रहा एक परेशानी वाला तथ्य ,अभी अगस्त माह में ही एक  टेलीविजन परिचर्चा में बैंकिंग प्रणाली  से परेशान विश्वविख्यात कॉर्पोरेट विश्लेषक ने व्यक्त करते हुये हल्का गुस्सा प्रगट किया । इस वाकया  को लिखने का तात्पर्य यही है कि  जब एक नामी गरामी विश्लेषक इस तरह के बैंकिंग प्रणाली  से परेशान हो सकता है तो हम आप जैसे की परेशानी का तो कोई ठिकाना ही नहीं । इसके अलावा हमारी आपकी व्यथा तो चैनल के माध्यम से लोगों के बीच  जानी भी मुश्किल है । 

2] यह हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि अभी भी साधारण जनता विशेषकर वरिष्ठजन व  ग्रामीण जनता नगद लेंन  देंन ही पसंद करती है।  उसका मुख्य कारण एक तो इंटरनेट की समस्या व दूसरा महत्वपूर्ण बैंक खर्चे हैं ।  उदाहरण के तौर पर यदि विद्यालय में फीस देनी हो तो बैंकिंग नेट के माध्यम से देने पर जो भी खर्चा पढ़ाई शुल्क अदा करने वाले से बैंक वाले स्वतः ही काट लेते हैं , वह अखरता है।  जबकि हकीकत यह है की बैंक व विद्यालय दोनों के खर्चों में बचत होनी शुरू हो गयो है ।  इसका कारण न तो बैंक को अपने यहाँ पर निश्चित तारीखों में अलग से अधिकारी की ड्यूटी लगानी पड़ती है और न ही अतिरिक्त पटल [ काउन्टर  ] की आवश्यकता रह गयी । और विद्यालय में जहाँ शुल्क जमा होते थे वहाँ भी पटल [ काउन्टर  ] की  आवश्यकता समाप्त हो जाने की वजह से इस तरह की  बचत तो हो ही रही है साथ ही साथ  शुल्क जमा वाली पुस्तिका की आवश्यकता भी समाप्त हो जाने से उस पर लगने वाला खर्चा बचने लग गया ।  जबकि  पहले वाले प्रणाली में शुल्क जमा करने वाले को किसी भी प्रकार का खर्चा लगता ही नहीं था । इस कारण यह स्पष्ट है कि नगदी से सम्बन्धित लागत एकदम समाप्त हो गयी है। और तो और अब सॉफ्टवेयर सब तरह के डाटा आपको उपलब्ध करवा रहा है यानि मानव श्रम की भी सब तरह से बचत हो रही है । इन सबके बावजूद अभिभावकों से जो शुल्क वसूला  जा रहा है उसमें विद्यालय प्रबंधन के साथ साथ विद्यालय वाला बैंक दोनों ही दोषी नहीं हैं क्या ?
सारे तथ्यों पर गौर करने पर ऐसा  लगता है कि शुल्क जमा देने वाले से दोनों की रजामंदी से ही यह शुल्क जबरन वसूला जा रहा है जो न्यायसंगत नहीं है । यहाँ ध्यान देने वाली  बात  यह है किअभिभावक इस मुद्दे को डर के मारे उठा नहीं रहे हैं क्योंकि  यदि अभिभावक इस विषय पर आवाज उठायेंगे  तो उनके बच्चों को बेवजह विद्यालय में तंग / परेशान करना प्रारम्भ कर देंगे।

इन सभी वर्णित कारणों को ध्यान देते हुये नियामक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ऐसे शुल्कों की अनुमति देते समय शुल्कों की तर्कसंगतता और खर्च किए गए खर्च को सत्यापित करना सुनिश्चित करे । अन्यथा भविष्य में बैंक प्रश्नों के उत्तर (मौखिक/लिखित) के लिए शुल्क लेना शुरू कर देंगे। 

इस तरह से बैंक से सम्बन्धित और भी अनेक मसले हैं जहाँ केन्द्रीय बैंक यदि इच्छा शक्ति दिखाये तो बिना किसी प्रकार के बैंकिंग तंत्र को नुकसान पहुंचाये आम जनता को राहत प्रदान की जा सकती है । 

यह हम सभी जानते हैं कि मोदीजी एक संवेदनशील व्यक्ति हैं और आम जनता को राहत प्रदान करने में वे हमेशा आगे रहते हैं । उनकी बदौलत ही स्व-सत्यापित दस्तावेजों को सभी जगह स्वीकार किया जा रहा है। और अब उपरोक्त समस्या भी मोदीजी के ध्यान में लाए जाने कि आवश्यकता महसूस हो रही है ।  उनके दखल से  सुधार  निश्चित तौर पर होगा क्योंकि वे विवेकशील राजनेता हैं ।

अब मैं आप सभी प्रबुद्ध  पाठकों से आग्रह करता हूँ कि आप इस संदर्भ में अपने विचारों को अधिकाधिक संख्या में,किसी भी ठोस माध्यम से मोदीजी तक पहूँचायेंं। 

गोवर्धन दास बिन्नाणीबीकानेरgd_binani@yahoo.com7976870397/9829129011

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