गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य चैतन्य महाप्रभु
वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त, भक्ति योग के परम प्रचारक चैतन्य महाप्रभु का जन्म फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा ( जो इस बार 18 मार्च को है ) को पश्चिम बंगाल के "मायापुर" (नदिया ) में जगन्नाथ मिश्र व शचीदेवी के घर हुआ था।इनके जन्म के समय अलाउद्दीन हुसैनशाह नामक एक पठान ने षड्यन्त्र रच गौड़ के राजा को हटा स्वयं राजा बन बैठा और उसके बाद आस-पास रहने वाले अनेकों ब्राह्मणों पर अवर्णनीय अत्याचार कर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ नहीं छोड़ा। इन कारणों से उस समय हिंदुओं के लिये धर्म उनके लिए सार्वजनिक नहीं, गोपनीय-सा हो गया था।
बाल्यावस्था में इनको अनेक नाम मिले जैसे निमाई, गौरांग, गौर हरि। बचपन से ही ये विलक्षण प्रतिभा संपन्न तो थे ही साथ ही साथ अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे ।बहुत कम आयु में ही इन्होंने न्याय व व्याकरण में पारंगता प्राप्त कर ली थी ।लेकिन इसी बीच किशोरावस्था में ही इनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से गया में उस समय हुयी जहाँ ये पिता की मृत्यु पश्चात श्राद्ध करने गये हुये थे । उस शोक की घड़ी में संत ईश्वरपुरीजी ने इन्हें कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा और यहीं से इनका सारा जीवन बदल गया और ये भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में सब समय लीन रहने लगे। हालत ये हुयी कि इनकी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य निष्ठा व विश्वास को देखते हुए इनके असंख्य अनुयायी हो गये जिनमें नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज जैसे संत, जिन्होंने इनके भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान करते हुये एक नए शिखर तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त कर ली।
इसके बाद तो इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाते हुये, उच्च स्वर में नाच-गाकर हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥, हरि नाम संकीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। ये जिस प्रकार से नाचते हुये संकीर्तन करते थे तब प्रतीत होता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं।
इसी कारण से इनके इस ३२ अक्षरीय तारकब्रह्ममहामंत्र [कीर्तन महामंत्र] को नाचते हुये संकीर्तन करने की प्रथा को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु स्वतः ही प्रचण्ड जन समर्थन प्राप्त होता चला गया।
संत प्रवर श्रीपाद केशव भारती से सन्यास लेने के बाद जब ये जगन्नाथ मंदिर दर्शनार्थ पहुँचे तब भगवान की मूर्ति देख भाव-विभोर हो / उन्मत्त होकर नृत्य करते करते करते मूर्छित हो गए।उस समय वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु इनकी प्रेम-भक्ति से प्रभावित हो इनको अपने आश्रम में ले गये। जहाँ इन्होंने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर बता,उन्हें अर्थात सार्वभौमजी को आश्चर्यचकित कर दिया । इसी कारण न केवल सार्वभौमजी बल्कि कालांतर में उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव भी इनके अनन्य भक्त बन गये।
इसके उपरान्त इन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया अर्थात इन्होंने न केवल काशी बल्कि हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि सभी स्थानों पर रहकर भगवद्नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया।वैसे तो महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं है, लेकिन अनेक श्रद्धालुओं / मतावलंबियों का मानना है कि महाप्रभु ४७ वर्ष की अल्पायु में जगन्नाथ पुरी में रथयात्रा के दिन श्रीकृष्ण के परम धाम को प्रस्थान किया था ।
गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु ने लोगों में पारस्परिक सद्भावना जागृत की और उनको जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता अपनाने के लिये प्रेरित किया । इन्हीं सब कारणों के चलते इनको असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त हुआ। आज भी ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या पूरे भारत में दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है ।
गोवर्धन दास बिन्नाणी 'राजा बाबू'IV E 508 जय नारायण व्यास कॉलोनी बीकानेर7976870397 / 9829129011(W)
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