Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

लोकमान्य तिलक की पुण्यतिथि 1 अगस्त के लिये

 

लोकमान्य तिलक की पुण्यतिथि 1 अगस्त के लिये 


सार्वजनिक गणेशोत्सव के प्रणेता  लोकमान्य तिलक


राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील,‘पूर्ण स्वराज’ के पैरोकार और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रथम  लोकप्रिय नेता बाल गंगाधर तिलक  जो 65 वर्ष की  उम्र में 1 अगस्त 1920 को मुम्बई से ही स्वर्गारोहण की और प्रस्थान कर गये, को उनकी 101 वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आपको याद दिलाना चाहूंगा कि इनको "लोकमान्य" का आदरणीय उपाधि प्राप्त होने के कारण हम सभी उन्हें  लोकमान्य तिलक के नाम से भी उल्लेख करते हैं ।

आप सभी के ध्याननार्थ बता दूँ कि  बाल गंगाधर तिलक ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नरमपंथी रवैये के विरुद्ध आवाज उठाने वाले श्री लाला लाजपत राय और श्री बिपिन चन्द्र पाल को समर्थन दिया, जिसके चलते इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा। इस कारण से  काँग्रेस अनेक सालों तक  गरम दल और नरम दल में विभाजित रही ।  

इनके विषय में जितना भी लिखा जाय कम ही पड़ेगा।  इसलिये दो महत्वपूर्ण तथ्य आप सभी के ध्याननार्थ अवश्य प्रस्तुत करना चाहूँगा। पहला तो यह है कि काँग्रेस में गरम दल के सदस्य होने के बावजूद इन्हें मरणोपरान्त श्रद्धाञ्जलि देते हुए नरम दल के गान्धी जी ने इन्हें  आधुनिक भारत का निर्माता बताया तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रान्ति का जनक । दूसरा इनके बचपन से जुड़ा  एक  ऐतिहासिक तथ्य, जिसके अनुसार एक बार कक्षा में कुछ छात्रों ने मूंगफली के  छिलके फर्श पर फेंक गन्दगी फैला दी । जिसके चलते कक्षा अध्यापक नाराजगी दर्शाते सभी को पूछा कि यह किसका काम है । लेकिन किसी भी छात्र ने अपनी गलती नहीं मानी। तब अध्यापक ने पूरी कक्षा को ही दंडित करने की घोषणा कर प्रत्येक छात्र के हाथों पर छड़ी से मारने लगे । लेकिन जब बाल गंगाधर तिलक की बारी आई तो उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया ही नहीं बल्कि स्पष्ट कह दिया कि जब मैंने मुगफली खाई ही नहीं तो मैं बेंत भी नहीं खाऊंगा । यह सुन अध्यापक महोदय फिर पुछ बैठे कि बताओ यह किसने किया । इसके उत्तर में इन्होनें कह दिया की न तो मैं किसी का नाम बताऊंगा और न ही बेंत खाऊंगा । इसके फलस्वरूप जब अध्यापक महोदय ने इनकी शिकायत प्राचार्य से की तब इनके अभिभावक को स्कूल आना पड़ा और इनको स्कूल से निकाल दिया गया । यह घटना यह दर्शाती है कि ये बचपन से ही कठोर अनुशासन का पालन करते हुये सच्‍चाई पर अडिग डटे रहते थे साथ ही साथ  साथियों की अनुशासनहीनता की कभी चुगली नहीं करते थे । और इसी गुण के चलते ये हमेशा काँग्रेस में सभी के बीच आदरणीय बने रहे ।

इन्होनें अपनी  मृत्यु के करीबन चार साल पहले अप्रैल 1916 में  'होम रूल लीग'  की स्थापना कर दी थी, जिसका इनकी मृत्यु पश्चात काँग्रेस में विलय हो गया । इस होम रूल आन्दोलन के चलते ही  बाल गंगाधर तिलक को काफी प्रसिद्धी  मिली क्योंकि उन्होनें इसी को माध्यम बना जनजागृति का कार्यक्रम का श्रीगणेश कर सर्वप्रथम पूर्ण स्वराज की मांग पर पूरा जोर लगा दिया क्योंकि उस समय तक उनके द्वारा  माण्डले [ बर्मा  ]  जेल में जाने के पहले 1897 में न्यायालय में न्यायाधीश के सामने मराठी भाषा में उनके द्वारा लगाया गया नारा  "स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच", जिसका हिन्दी मे अर्थ है "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा",  लोकप्रिय के साथ साथ बहुत ही  प्रसिद्ध हो चुका था यानि  यह नारा भारतीय स्वाभिमान और गौरव का प्रेरणास्त्रोत के रूप में उभर चुका था ।  इन्होनें पूरे भारत के लिए समान लिपि के रूप में देवनागरी की वकालत भी पुरजोर से की थी । इन्हीं सब कारणों से उन्हे सार्वजनिक रूप से  “लोकमान्य” अर्थात "प्रिय नेता" की उपाधि से सम्मानित किया गया था ।



अन्त में आपको बता दूँ कि जनजागृति वाली सोच  इनके दिमाग में बहुत पहले से ही थी । यही कारण रहा जिसके चलते साल 1893 में इसी  जनजागृति को स्थायित्व देने के उद्देश्य से इनके प्रयास के कारण महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सार्वजनिक रूप से सप्ताह भर मनाना प्रारम्भ हुआ , जो आज इतना लोकप्रिय उत्सव बन, प्रसिद्धि के शिखर पर पूरे देश में जाना जाने लगा  है , वह हम सभी बहुत बढ़िया से जानते हैं । इस सार्वजनिक रूप से मनाये जाने वाले  गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव को लोकप्रिय बनाने में इनके स्वामित्व वाले दो समाचार पत्रों का अतुलनीय योगदान रहा था। इन दोनों  मराठा दर्पण [जो अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होता था ]  एवं  केसरी [ जो मराठी भाषा में प्रकाशित होता था ] के ये जीवनपर्यन्त  सम्पादक भी रहे । इसके अलावा  इनके द्वारा  श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोत्कृष्ट कृति मानी जाती है,जिसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि इन्होनें अपने सिद्धांतों से बिना किसी भी प्रकार का समझौता किये सदैव पारम्परिक सनातन धर्म का मृत्यु पर्यन्त निर्वहन किया । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि सनातन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखते हुये भी इनके व्यक्तित्व में संकीर्णता कभी भी, लेशमात्र भी परिलक्षित नहीं हुयी । अतः हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये अपने समय के प्रणेता थे। इनके अद्वितीय देश प्रेम एवं सनातन धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था  के मद्देनजर ही इनको हिंदू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है।

गोवर्धन दास बिन्नाणी "राजा  बाबू"जय नारायण व्यास कॉलोनी,बीकानेर
9829129011 / 7976870397 

  
        

             





            

        

                                        

            

        

            

        

            

        

            

        

            

        

            

        

            

        


Attachments area



Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ