अगोचर
एडवोकेट सतीश शर्मा को अजमेर शहर में कौन नहीं जानता। न्याय के क्षेत्र में वे एक जाना माना नाम हैं। जो भी उनके सम्पर्क में आता है, चाहे वह जज हो अथवा मुवक्किल, पुलिस अधिकारी हो अथवा अन्य साथी एडवोकेट, सभी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं। मुवक्किल शर्माजी को केस देकर ही आधी जीत मान लेते हैं। एक अन्य विशिष्ट बात जिसके लिए भी शहर में उनका गुणगान होता है, वह यह कि वे न्याय की गुहार में खड़े गरीब आदमी से पैसा नहीं लेते। इतना ही नहीं उसे न्याय दिलाने का भरसक प्रयत्न करते हैं। परोपकार की सुगंध परफ्यूम की तरह फैलती है। प्रेक्टिस करते बारह वर्ष होने को आये, उनके कैरियर में जीत की जड़ी लगी है।
उर्स के मेले पर अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर दुआ मांगने हजारों लोग आते हैं। कहते हैं वे एक सूफी फकीर थे। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, हर फिरके के लोग यहां आकर उस फकीर की कब्र के आगे अपनी इच्छाओं का आंचल फैलाते हैं, जिसके स्वयं के पास खुदाए नूर के सिवा कुछ न था। इच्छाओं के असंख्य धागे दरगाह की दीवारों से बंधे हुए दिख जाते हैं। कितने अरमान यहां मरघट हो गए, पर अनंत आकाश की तरह मनुष्य की आरजुओं का कोई अन्त नहीं है। दाता हजार हाथों से लुटाता है, फिर भी लाखों मनुष्य हर दिन हाथ पसारे खड़े मिलते हैं। इंसान सदियों से इच्छाओं के अनंत नागपाश में जकड़ा है। सारा का सारा संसार जैसे एक फकीर के दरबार में आकर खड़ा हो जाता है। कहते हैं, यहां जो मुराद मांगो, पूरी होती है। उर्स के दिनों में शहर एक अजीब चहल-पहल, शोर-शराबे से भर जाता है।
सतीश शर्मा आज रेलवे स्टेशन पर अपने पुराने सहपाठी नंदकिशोर उपाध्याय के साथ खड़े हैं। उम्र में दोनों चालीस पार हैं। नंदकिशोर ख्वाजा का भक्त है एवं हर साल अजमेर आते हैं। स्टेशन पर सतीश की पत्नी उषा एवं चार वर्षीय पुत्र मयंक भी साथ आए हैं। नंदकिशोर कोटा में सीनियर मजिस्ट्रेट हैं। दोनों दोस्तों ने जयपुर से कानून की डिग्री साथ-साथ पन्द्रह वर्ष पहले पास की थी, एक का न्यायिक परीक्षा में चयन हो गया। शर्माजी ने अपने ही शहर अजमेर आकर वकालात करना उचित समझा। दोनों की शादी हुए भी बारह वर्ष होने को आये। नंदकिशोर के एक पुत्र है एवं इस बार उसकी परीक्षा होने के कारण वह अकेले अजमेर आए हैं। सतीश को पुत्र रत्न शादी के कई साल बाद मिला है। मुश्किल से मिले धन को जैसे साहूकार सम्भाल कर सेता है, वैसे ही मियां बीबी मयंक को रखते हैं। मयंक दोनों की आँखों का तारा है। इस बार नंदकिशोर डिस्ट्रिक्ट जज बनने का सपना लेकर ख्वाजा के दरबार में आए हैं।
रेलवे स्टेशन पर अजीब-सा कोलाहाल है। कोटा की गाड़ी प्लेटफार्म पर अभी – अभी आकर खड़ी हुई है। स्टाल वाले, फेरी वाले जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं। कोई रिजर्वेशन चार्ट में अपनों का नाम देखकर जोर से कह रहा है, सभी इधर से आ जाओ। किसी को अपना नाम नहीं मिल रहा है तो वह टीटी के इर्द-गिर्द अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ घूम रहा है। कुली सामान लादे यात्रियों की परवाह किये बगैर धक्का-मुक्की कर इधर-उधर घुस रहे हैं। सतीश एवं नंदकिशोर काॅलेज के दिनों को रह-रह कर याद कर रहे हैं। वो अल्हड़पन की बातें, वो उमंगें, वो सपनों के दिनों की बातें करते दोनों नहीं थक रहे हैं। प्राध्यापकों का मखौल उड़ाना, क्लासें छोड़-छोड़ कर केन्टीन में घंटों बैठे रहना, मिस कृष्णा के आगे-पीछे घूमना और ऐसे ही कई वाकये याद कर करके दोनों मित्रों का हंसी से बुरा हाल हो रहा है। सतीश की पत्नी उषा भी इन्हीं बातों का लुत्फ ले रही है। देखते ही देखते गाड़ी ने सीटी दी, ट्रेन में हलचल और भी बढ़ गई। कोई अपनों से मिलन की उमंग में उन्मत्त है, कोई अपनों से विदा के गम में गमगीन है। पलभर में नंदकिशोर गाड़ी में चढ़ गए एवं अब गाड़ी ने रुखसत ले ली है। सबके हाथ उपर उठे हैं। बारात के आने के पहले एवं ट्रैन के जाने के समय एक अजीब-सा माहौल बन जाता है।
गाड़ी अब प्लेटफार्म छोड़ चुकी है, लेकिन यह क्या? सतीश एवं उषा एकदम भौचक्के हैं, मयंक कहां गया? सतीश ने कहा, ‘‘यहीं कहीं होगा।’’ स्टेशन पर इधर-उधर छानबीन की, फिर पूरा स्टेशन बेतहाशा ढूंढ़ा पर मयंक का पता नहीं चला। अगले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को फोन कर नंदकिशोर के मार्फत सारी गाड़ी रुकवाकर चेक की गई, पर मयंक उसमें भी नहीं था। सारे शहर की पुलिस को इत्तला दी गई, जगह-जगह नाकेबंदी की गई, पर मयंक का कहीं पता नहीं चला। हताश शर्मा दम्पति अपने घर आ गए।
रात दोनों की आँखों से नींद ओझल थी। दोनों कटे वृक्ष की तरह निर्जीव-से पड़े थे, जैसे किसी के सारे जीवन की पूंजी, चोर चुरा ले गया हो। उषा रो-रो कर बेहाल हो चुकी थी, मानो कोई निर्दयी, गाय से उसका बछड़ा छीन ले गया हो। सतीश भी हताश होकर पत्थर बनी आँखों से खिड़की से आसमान में झाँक रहा था, जैसे आकाश ही उसका एकमात्र अवलंब हो। उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था। हाय! मेरा मयंक कहां होगा? उसने दूध पीया होगा या भूखा ही होगा, किसी ने उसके खाने की सुधि ली होगी या नहीं? उल्टे विचार उसके दिमाग में पहले आ रहे थे। कहीं उसे कोई भीख मांगने वाला तो नहीं उठा ले गया? कहते हैं ये लोग बच्चों को अपंग बनाकर भीख मंगवाते हैं। कहीं कोई उसे डाकू तो नहीं ले गया? मेरे मयंक के साथ क्या होगा विधाता ? सारी जिन्दगी उन्होंने ईश्वर की भक्ति की, कभी दान-पुण्य में कमी नहीं की, हमेशा दीन-दुःखियों की मदद की, उसका यह प्रतिफल? अपने बच्चे की दुर्दशा के बारे में सोचते-सोचते वे ईश्वर के प्रति विद्रोह से भर उठे। उनकी दशा चेतनाशून्य हो गई। यह कैसा ईश्वर है? सुख दिखाकर उसने मुझे दुःख क्यों दिया? जन्नत दिखाकर मुझे दोजख में क्यों डाल दिया? मैंने तो कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। ईश्वर अपने भक्तों को इतना दुःख क्यों देता है? यह संसार किसी ईश्वर की सृष्टि नहीं हो सकती। जिस संसार में इतनी घृणा, अपहरण, चोरी, बेईमानी है, उसका कैसा ईश्वर? इसका सृजक तो कोई शैतान ही हो सकता है। इंद्रजाल का यह मायावी कोई बहुत शातिर ठग है। चाहे जीसस हो या सुकरात, मीरां हो या नानक, संसार से इन्हें घृणा एवं नफरत ही मिली। किसी को सूली पर लटका दिया, किसी को जहर दे दिया। सिर्फ भय से लोग ईश्वर को पुकारते हैं। ऐसा विधाता मेरा ईश्वर नहीं हो सकता। उनके स्वच्छ चैतन्य पर विद्रोह एवं घृणा की धूल चढ़ गई। उन्होंने प्रण कर लिया, अब वे ऐसे ईश्वर को कभी नहीं पुकारेंगे। दूसरे दिन से ही उन्होंने पूजा-पाठ छोड़ दिया। उनके भीतर दया का स्रोत सूख गया, अब वे किसी पर रहम नहीं करते थे। चादर, अहंकार एवं प्रतिशोध के बवंडर में गिर गई।
समय का मरहम हर घाव को भरने लगता है। इस बात को अब एक वर्ष होने को आया। आज शाम कोर्ट से आकर शर्माजी अपने बरामदे में बैठे विश्राम कर रहे थे। तब से अब तक वे बहुत गंभीर हो गए थे। मयंक की स्मृतियां उनके मन को कुरेदने लगीं। जैसे शांत एवं स्थिर पानी में किसी ने कंकरी डाल दी हो। पुत्र-विरह की वेदना से मन विकल हो उठा। ना जाने वह कहां एवं किस हाल में होगा? क्या जिंदा है या मर गया? यह ख्याल आते ही उनका कलेजा कांप गया। ईश्वर के प्रति उनका मन विद्रोह से भरा था परंतु न जाने कहाँं से पुराने संस्कार आज फिर जागृत हो गए। सूर्य बादलों की ओट से फिर बाहर आया, मन एक विचित्र आत्म – आलोक से भर गया, उनकी पलकें सजल हो गई, वे विह्वल होकर बोल उठे,‘‘हे प्रभु! यह मेरे किन पापों का फल है?’’ ज्वार की तरह एक पुकार उनके हृदय से उठी। अनायास उनके दोनों हाथ आसमान की तरफ उठ गए। आत्म-विस्मृति, आत्म-जागृति में बदल गई , शीशे से अहंकार एवं विद्वेष की धूल हट गई। भरी आँखों से उन्होंने दुआ मांगी, ‘‘हे प्रभु! मुझे मेरे पापों की कठोर से कठोर सजा दे पर मेरे पुत्र की दुर्गत मत करना। हे दीनदयाल! उस निष्पाप पर रहम कर।’’ शुद्ध हृदय से शरणागत हो गए वो। भावावेश में उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहा। जब कोई पुकारने वाला सच्चे दिल से खुदाई को पुकारता है तो खुदाई उसकी पुकार के साथ ही खड़ी हो जाती है। अपने भक्तों के रंग में एकरस हो जाता है ईश्वर।
उनकी विह्वलता तभी हटी जब सामने घर पर काम करने वाली महरी आकर खड़ी हो गई, ‘‘बाबूजी, अन्दर आने दीजिए, आज काम करके जल्दी जाना है, मेरे बेटे की वर्षगांठ है।’’ वो तुरन्त वहां से हटे। महरी के दो पुत्र थे, एक का निधन चार वर्ष पूर्व तपेदिक की बीमारी से हो गया था। यकायक शर्माजी को कुछ याद आया। उस दिन कैसी निरीह-सी हमारे घर पर यह इलाज के हजार रुपये मांगने आई थी। हम और उषा दोनों किसी बारात में जाने की जल्दी में थे। मेरे पास रुपये थे भी, मेरा मन भी हुआ, पर उषा ने महरी को झिड़क दिया, ‘‘आज चार रोज से आई हो और वो भी रुपये मांगने? कभी बच्चा बीमार है, कभी ये कभी वो।’’ उषा का चार दिन का दबा गुस्सा निकला। उसके विरोध के आगे मैंने महरी को कुछ भी देना उचित नहीं समझा। मजबूर महरी तकती रह गई। हमारा घर उसकी आशा का अन्तिम छोर था। दरिद्रता संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है। दरिद्र सबकी ओर देखता है पर उसकी ओर कोई नहीं देखता। महरी ने बहुत विनती की पर उस दिन हम दोनों निष्ठुर हो गए। वह चुपचाप चली गई। उसके पन्द्रह रोज बाद तक नहीं आई। बाद में पता चला कि उसके पुत्र का निधन हो गया। दरिद्रता एवं निष्ठुरता के राक्षस ने उसके बच्चे को लील लिया।
पुरानी बात स्मरण करते-करते शर्माजी की अंतश्चेतना ने दस्तक दी, हो न हो यह इसी गरीब की हाय है। निर्धन की हाय ईश्वर के दरबार में तुरन्त पहुँचती है, तभी तो वह रहीम कहलाता है।
सतीश शर्मा के हृदय में बिजली-सी कड़की। महरी काम करके निकल गई। उस निराश्रित विधवा का कोई सहारा न था। पति दो बच्चों को छोड़कर शादी के पाँच वर्ष बाद ही परलोक सिधार गया। यहां वहां एक-दो घरों में झाडू, बर्तन कर अपना एवं बच्चों का गुजारा करती थी। शर्मा दम्पति उसके एकमात्र अवलम्ब थे।
शर्माजी ने अन्दर आकर अपनी तिजोरी खोली एवं बैग नोटों से भर लिया। कितने थे उन्हें खुद नहीं मालूम। चेतना के प्रकाश में गणित विस्मृत हो गई। वे तुरन्त महरी के घर को चले। आज उन्हें कोई नहीं रोक सकता था। प्रायश्चित का एक तेज पुंज उनके मन पर सवार था। वे सीधे महरी के घर गए। सभी चौंक उठे। महरी एवं बच्चे ऐसे तकने लगे जैसे उनके घर साक्षात् नारायण आए हों। सच में आज दरिद्र-नारायण हो गए थे वो। प्यार से उन्होंने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा एवं थैला उसके हाथ में दे दिया, ‘‘अब तुम्हें आगे पढ़ने में कहीं कोई दिक्कत नहीं आएगी। इसमें इतना धन है कि तुम्हें अपना कैरियर बनाने में कोई तकलीफ नहीं होगी।’’ महरी ने सतीशजी के पांव पकड़ लिए, ‘‘बाबूजी, आप भगवान है, ईश्वर आपकी सब मुरादें पूरी करें। हमारा मयंक भी एक दिन लौट आए।’’ आज उसके हृदय और परमात्मा के बीच कोई फासला नहीं था। अनन्त के विस्तार ने उसकी दुआ को अपने आगोश में ले लिया। नेकी वह फसल है जिसके एक बीज से हजारों बालें फूटती हैं, बदी खड़ी फसल भी चौंपट कर देती है।
इस बात को भी एक वर्ष बीत गया। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। यहां कुछ भी नहीं ठहरता। समय-चक्र निर्बाध गतिमान है। ऋतुओं ने अपने रंग बदले। इंसान का जीवन भी ऋतुचक्र जैसा ही है। कभी गर्मी की भीषण तपन, कभी सर्दी का कठोर कंपन एवं कभी बंसत की सुरभि। शर्माजी सुबह-सुबह रोज की तरह मोर्निंग वाॅक के लिए बाहर आए तो देखकर हैरान रह गए। उनकी खुशी का पारावार नहीं रहा। मयंक घर के बाहर खड़ा था एवं उसके हाथ में एक लिफाफा था। कुछ बड़ा जरूर हो गया था पर खून ने खून को पहचानने में कोई गलती नहीं की। उसके साथ एक आदमी खड़ा था पर इसके पहले कि वो कुछ कहते वह तुरंत वहां से भाग गया। उन्होंने आश्चर्य से उषा को पुकारा, ‘‘देखो, मयंक लौट आया है।’’ जैसे गाय खूंटे से छूटकर आए बछड़े से मिलती है, यही दशा उषा की थी। दोनों के हृदय आनन्द से पुलकित हो रहे थे।
शर्माजी ने पत्र खोला और विस्मय से पढ़ने लगे।
आदरणीय शर्माजी,
आपका पुत्र मयंक आपको लौटा रहा हूँ। आज से दो वर्ष पूर्व अजमेर रेलवे स्टेशन से मैंने ही आपका बच्चा उड़ाया था। इस दरम्यान बच्चे को मैंने कलेजे के टुकड़े की तरह पाला है। आपको एवं मयंक की माँ को हुई पीड़ा के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। विधि-विधान को शायद यही मंजूर था।
पुनः अपने अपराध के लिये आपसे क्षमा चाहता हूँ।
आपका
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शर्माजी ने पत्र खोला। पत्र से अनुमान लगाना मुश्किल था कि पत्र किसने लिखा है। दरअसल पत्र लिखने वाला देहरादून का एक टैक्सी चालक ‘विशंभर’ था। शादी के बीस वर्ष बाद भी उसके बच्चा नहीं हुआ। उसकी पत्नी ‘वीणा’ को एक पण्डित ने कह दिया था कि अगर किसी भले घर के बच्चे को अपने बच्चे की तरह पालोगे तो शायद तुम्हे भी बच्चा नसीब हो। वीणा ने यह बात विशंभर से कही। पत्नी दिन-रात उसको बच्चा लाने के लिए टोका करती थी, तरह-तरह के ताने भी देती रहती थी। पत्नी की बातें सुन-सुनकर उसके कान पक गए। वह तंग आ चुका था। विशंभर, अजमेर, ख्वाजा की दरगाह पर पुत्र कामना से ही आया था। शाम स्टेशन पर घूम रहा था। एकाएक मयंक पर उसकी नजर पड़ी एवं न जाने किस कुत्सित वृत्ति ने उसे घेर लिया। हिम्मत कर वह अंदर गया एवं गाड़ी चलने के कुछ समय पूर्व जब शर्माजी, उषा व नंदकिशोर बातों में मशगूल थे, बच्चे को ले उड़ा। सबकी नजर बचाकर मुस्तैदी से देहरादून ले आया। बाद में अखबार में छपी खबरों से उसे पता भी चल गया कि बच्चा रामगंज अजमेर में रहने वाले शर्माजी का बेटा मयंक है। अपने पड़ोसियों को उसने यही बताया कि वह अपने दूर के रिश्तेदार के बच्चे को गोद ले आया है। बच्चा विशंभर और उसकी पत्नी दोनों के मन को भा गया। दोनों लाड प्यार से उसका लालन-पालन करने लगे। थोड़े दिन तो बच्चा रोया पर बच्चे का दिमाग तो कच्ची मिट्टी होता है। समय बीतने के साथ वह उन्हीं का होकर रह गया। दोनों को बच्चे से इतना प्यार हो गया कि उन्हें अपने बच्चा न होने का अहसास ही नहीं रहा। वीणा की ममता के तार झंकृत हो गए, उसका वात्सल्य जाग उठा। संयोग से एक सुखद आश्चर्य घटित हुआ। कुछ दिन पूर्व उनके घर एक नई किलकारी गूंजी। अपना पुत्र होने के बाद उन्हें पता चला कि इंसान अपने बच्चे से कितना प्यार करता है, उसके लिए कैसे तड़फता है, विशंभर ने चुपचाप मयंक को शर्माजी को लौटाने की सोच ली।
शर्माजी ने पत्र पढ़ा एवं न जाने क्या सोचकर उसे फाड़ दिया। बसंत की ठण्डी बयार उनके मन को नई उमंग एवं स्फूर्ति से भर रही थी। उनकी सजल आँखें एवं आभार भरे हाथ उस न्यायाधिपति की तरफ उठे थे जो करुणा का सागर है, जो प्रतिपल हर आत्मा को बोध देता है। हजार आँखों से सबको देखता है लेकिन वह नहीं दिखता। उस प्राणपति, ‘अगोचर’ को कौन समझ सकता है?
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