लुगाई लट्टू
धरती जैसे सूर्य का चक्कर लगाती है, चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, केदारनाथ भार्गव अपनी पत्नी के इर्दगिर्द उपग्रह की तरह घूमा करते थे। मोहल्ले की स्त्रियों के लिए यह कौतुक का विषय था, मर्दों के लिए रहस्य एवं विनोद का। मजाल संगीता कुछ कहे एवं केदारनाथ उसकी इच्छा पूरी न करे। बस पंजों पर खड़े रहते थे। एक बार संगीता को चार-पांच रोज बुखार क्या हो गया, उनके प्राण नखो में समा गए। उन्होंने दिन देखा न रात, उसी की नींद सोये उसी की नींद जागे। शहर के नामी डाक्टरों से इलाज करवाया। इतने अद्भुत प्रेम और सेवा-भाव को देखकर लोग दाँतों तले अंगुली दबाते। मोहल्ले के मर्द फिकरे कसते पर केदारनाथ के सेवा-भाव एवं तटस्थ प्रकृति की ढाल इन शगूफों एवं तानों के तीरों को भी बेअसर कर देती। संगीता ठीक हुई तो उनकी आँखें चमक उठी। दो-चार रोज बाद केदारनाथजी फिर संगीता की आँख के इशारे पर नाचने लगे। इंसान का स्वभाव नहीं बदलता। चकमक पानी में भीग कर भी आग ही उगलती है।
केदारनाथजी की घर से पांच सौ कदम दूर ही कपड़े की पुश्तैनी दुकान थी। दुकान पर दो-तीन मुलाजिम काम करते थे, मौका देखकर वे भी केदारनाथ को चूना लगाने से नहीं चूकते। सीधे व्यक्ति को कुत्ता भी चाटने लगता है। उनका स्वभाव ही ऐसा सरल और सौम्य था जो दूसरों के अवचेतन में दबी बेईमानी एवं धृष्टता को उकेर देता। दुकान से एक-दो बार वे किसी न किसी बहाने संगीता से मिलने घर जरूर आते। घर की कुशल पूछते, संगीता से काम आदि की सूची लेते एवं चले जाते। यूं एक-दो बार आकर अपनी पत्नी को देख लेने से उनका कलेजा ठण्डा हो जाता, वे एक अजीब आत्मविश्वास से स्फूर्त हो जाते।
संगीता रूप-गुण में ही नहीं शिक्षा में भी केदारनाथ से आगे थी। केदारनाथ मैट्रिक से आगे नहीं बढ़ पाए, जबकि संगीता एम.ए. फर्स्ट क्लास थी। माँ-बाप ने सम्पन्न घर-वर देखकर केदारनाथ से विवाह कर दिया। लड़के की कमाऊ क्षमता ही उसकी योग्यता है। शिक्षित दरिद्र को क्या चाटें। फिर उनके भी तीन-तीन बेटियाँ थी एवं केदारनाथ के पिता ने दहेज की जरा भी मांग नहीं की तो उन्हें यही घर लाजमी लगा।
संगीता ने इसका विरोध भी किया। वह सम्पन्नता से अधिक शिक्षा एवं वैयक्तिक उन्नयन को महत्त्व देती थी। उसे विनम्र एवं व्यावसायिक गुणों से भरे युवक कम ही पसन्द आते। वह स्वयं भी दबंग एवं स्वाधीन अंतःकरण से ओतप्रोत थी। अपने सपनों के राजकुमार में भी वह शौर्य, साहस एवं विद्वत्ता को ही अधिक महत्त्व देती । इसीलिए अपने सहपाठी विनीत को हृदय से चाहती थी। संगीता को अपना स्वप्न उसी में प्रतिबिंबित होते नजर आता। एक-दो बार उसने विनीत को कहना भी चाहा पर उसके संकोच ने कदम रोक लिए। विनीत रहता भी उसके मोहल्ले में ही था। वह आती जाती उसे निहारती, एक स्वप्नलोक की सृष्टि करती एवं निहाल हो जाती। विधाता को लेकिन कुछ और ही मंजूर था, उसका विवाह केदारनाथ से होना था सो उसी से हुआ। बिल्ली ऊंट के गले पड़ गई। केदारनाथ को जैसे गूलर का फूल मिल गया। धन की शक्ति अकूत है। सम्पन्नता अलभ्य को भी लभ्य बना देती है, असंभव को भी संभव।
हमारे जीवन में घटने वाली घटनाएँ बहुधा हमारे स्वप्नों की विरोधाभासी होती हैं। जीवन इन्हीं खोये हुए अवसरों का नाम है। भरे गले एवं कुण्ठित हृदय से वह ससुराल आई, फिर इस भोले भाले महादेव को देखकर तो सिर पीट लिया।
केदारनाथ एक मस्तमौला, बेपरवाह युवक था। पैसे की कमी न थी, घर-बाहर सभी उसका उपहास करते। शादी के बाद केदारनाथ के मनचले दोस्त घर आते। संगीता से विनोद करते, फब्तियाँ कसते। संगीता खीझकर रह जाती। वह गरीब की लुगाई थी, सबकी भाभी बनकर रह गई। बात करे तो दुःख, न करे तो दुःख। संगीता को पुरुषों से बात करने में कोई संकोच नहीं होता था। इन मनचलों को तो वह जूती पर रखती। केदारनाथ अपने मित्रों से संगीता को निस्संकोच बात करते देखता तो मन मसोस कर रह जाता। धीरे-धीरे वह मित्रों से कटने लगा। मित्र उसे ऐसे लगते जैसे माघ मास के बादल खेती पर ओले बरसाने आते हैं अथवा उन सांडों की तरह जो दूसरों के हरे-भरे खेत बरबाद करने को पैदा होते हैं। संगीता के बुद्धिकौशल ने कुछ ही दिनों में जान लिया कि इस घर को मुझे ही चलाना है। अपने अद्भुत प्रशासकीय कौशल से उसने कुछ महीनों में ही सबको वश में कर लिया। विवाह के कुछ समय उपरांत तक केदारनाथ ने बिल्ली मारने की पूरी कोशिश की पर अंततः उसने समझ लिया, यहाँ दाल नहीं गलने वाली। तांगे की लगाम संगीता के हाथ ही लगी। केदारनाथ नये घोड़े की तरह कभी-कभी आवेश में आया, दुलत्ती झाड़ी पर अंततः संगीता के अधीन होकर रह गया। संगीता की कुण्ठा ने उसे एक निष्ठुर शासक बना दिया। देवी, चण्डी बन गई। धीरे-धीरे घर के कई काम जैसे कपड़े धोना, सब्जी लाना एवं अन्य छोटे-बड़े काम उसने केदारनाथ के हवाले किए। उसकी बात न मानने पर वह केदारनाथ को कठोर दण्ड देती। कई दिनों उससे अलग सोती, बात तक नहीं करती। केदारनाथ मन मसोस कर रह जाता। अंततः पिटे हुए पशु की तरह वह भी हार गया।
अब बिल्ली शेर हो गई। केदारनाथ को संगीता उस छुरी की तरह लगती जिससे खरबूजा कभी नहीं जीत सकता। सोचा, मोहल्ले में बात उड़ी तो जूते में दाल बँट जाएगी। उसकी बनिया बुद्धि ने जैसी बयार देखी वैसी ओट ली। नंग बड़े परमेश्वर सों। धीरे-धीरे वह उसका गुलाम होकर रह गया। शादी के दो साल बाद केदारनाथ के माता-पिता एक कार दुर्घटना में चल बसे। वैसे तो संगीता ने अपने सास-श्वसुर को कभी आदर नहीं दिया, अब तो वह घर की एक छत्र महारानी बन गई। भय की एक छिपी लकीर भी विलीन हो गई। इस घटना के एक वर्ष बाद केदारनाथ के यहाँ पुत्र जन्म की किलकारी गूंजी।
तब मैं मात्र बारह वर्ष का था। केदारनाथजी हमारी एक दीवार के पड़ोसी थे। मेरे पिता रामनरेश मेहता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। अक्सर उनकी तैनाती घर से दूर गांवों में होती। वो हर रविवार घर पर आते। पिताजी के अनुशासन से तो मैं डरता था पर मां के स्नेह के आंचल में मेरी चंचलता फैलाव लेती। उसका कहना तो मैं कभी न मानता। अम्मा को नचाता रहता। रविवार को छोड़कर जब पिताजी घर नहीं होते, मैं घर का कोई काम नहीं करता। पिताजी मां पर पूरा रुआब भी रखते एवं स्नेह भी देते पर उनका रुआब सदैव स्नेह से ऊपर होता। स्त्री को वह पांव की जूती तो न समझते पर अपने व्यवहार से बता देते कि घर में शासन उन्हीं का चलता है। ‘जोरू जोर की, नहीं तो और की’, इस सिद्धांत के वह पक्षधर थे। वे अक्सर कहते थे कि औरत गाय तभी हो सकती है जब आदमी कभी-कभी शेर की तरह दांत दिखाए। उन्हें यह सर्वथा नामंजूर था कि उनकी बिल्ली उन्हीं से म्याऊं करे।
पिताजी की इस कठोरता एवं अनुशासनप्रियता को मां आदर भी देती। मैंने पिताजी को घर के काम करते कभी नहीं देखा न ही मां उन्हें ऐसे काम देना पसंद करती। एक दो बार उन्होंने घर का आंगन धोने का प्रयास भी किया पर मां ने झाडू छीन ली, ‘‘मुझे केदारनाथ जैसे मर्दुए बिल्कुल पसन्द नहीं! मर्द मर्दों का काम करे, हल जोते, बन्दूक चलाए, कमा कर लाए। उन्हें घर की मेहरी थोड़े न होना है।’’
जैसा जामन वैसा दही। वंशानुगत गुण नहीं मिटते। आदमी वही बनता है जो उसे घुट्टी में मिलता है। मैंने भी अपने घर-परिवेश से यही सीखा कि घर के काम पुरुष नहीं करते। पुरुष स्त्रियोचित्त एवं स्त्रियाँ पुरुषोचित काम करे तो प्रकृति का प्रवाह ही बदल जाएगा। दोनों अपने-अपने कौशल का काम करे तो कार्य भी अच्छा एवं अधिक होगा तथा तनाव भी कम होगा। इस भावना ने मुझे निखट्टू एवं कामचोर बना दिया। पिताजी की बाहर पोस्टिंग ने मेरी हरजाइयों को हवा दी। मैं घर के काम करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगा, उनका मजाक तक उड़ाने से नहीं चूकता।
सुबह छत पर अक्सर वर्जिश करने जाता। शरीर पतला था अतः पिताजी ने रोज सुबह वर्जिश करके नाश्ता करने की सलाह दी थी। देश के नामी पहलवानों को मैंने अपना आराध्य बनाया। उनकी कुछ तस्वीरें भी लाया एवं कमरे में टांगी। अब मेरे मुंह पर हल्की मूँछें आने लगी थी। संयोग से मेरे वर्जिश करने का समय एवं केदारनाथजी के कपड़े सुखाने का समय एक ही होता। सारे घर के कपड़े धोकर, बाल्टी में डालकर वह रोज छत पर आते एवं एक-एक कर कपड़े सुखाते। मैं चोर आंखों से उन्हें देखता। बाल सहज अल्हड़पन एवं चंचलता प्रखर होती। उनकी यह हालत देखकर मेरे मन में अजीब-सी गुदगुदी होती। हृदय में विनोद जन्म लेता, होठों पर कुटिलता एवं हास्य की हल्की मुस्कराहट फैल जाती। उनका सीधापन मेरे मनोभावों को हवा देता। मैं अपने सारे साहस को बटोरता, धीरे से उन्हें ‘लुगाईलट्टू’ कहता एवं कहते ही सीढ़ियों से उतरकर भाग खड़ा होता।
केदारनाथ को जैसे ततैया काट जाता। पीछे-पीछे गालियों की बौछार आती, ‘‘फिटे मुंह तेरा!…..निखट्टू साला! खुद कुछ काम-धाम करता नहीं, दूसरों की मजाक बनाता है। अभी दूध की बू गई नहीं और सयाना बनता है। लंगूर की औलाद! तेरी जीभ में आग लगे।’’
केदारनाथजी कढ़ी के उबाल की तरह उबलते जैसे उनके फफोलों पर किसी ने नमक छिड़क दिया हो। कलेजा कबाब हो जाता। मैं उनके इन वाक्बाणों का आनन्द लेने को तैयार ही होता। मूसलों ढोल बजाता। उनकी यह गालियां मेरे अंतस्तल पर एक सुखद बौछार की तरह लगती। दुखिया का घर जले, सुखिया पीठ सेके। मुझे लगता जैसे आनन्द और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो।
नियम से मैं वर्जिश करने छत पर जाता, केदारनाथजी कपड़े सुखाने आते एवं मैं उन्हें ‘लुगाईलट्टू’ कहकर भागता। शायद इस ‘ब्रेकफास्ट’ में दोनों के अवचेतन मन को सुकून मिलता। उनकी मन की भड़ास निकलती, मेरे विनोद को फैलाव मिलता। पिताजी घर से दूर रहते। वो कहे तो किसे कहे। औरतों से बात करने में उन्हें अजीब संकोच होता। अम्मा से वह कभी नहीं कहते। एक बार हिम्मत कर उन्होंने कहा भी तो अम्मी ने मेरा ही पक्ष लिया, ‘‘क्यों दिन-रात संगीता की गुलामी करते हो। उसे ब्याह कर लाए हो या उसकी नकेल में बंधकर आए हो। मर्द हो मर्दों जैसे काम किया करो। अब औरत के पेटीकोट, चोलियाँ सुखाओगे तो दुनिया लुगाईलट्टू ही कहेगी।’’ इतना कहने पर भी वह पत्नी-भक्त स्तम्भ की तरह खड़ा रहता। दूसरे दिन फिर नकटे की तरह कपड़े सुखाते हुए नजर आता।
पिताजी एक बार अम्मा को कह रहे थे कि शादी के पहले यह केदारनाथ श्रवणकुमार की तरह मां-बाप की सेवा करता था। शादी के बाद संगीता के लिए मां-बाप, भाई-बहन सभी से बैर ले लिया। जैसे लट्टू अपनी डोरी के अधीन होता है, ठीक वैसी हालत केदारनाथ की थी।
इन दिनों केदारनाथ छत पर अक्सर अन्यमनस्क नजर आते। मैं उन्हें कुछ कह भी देता तो वो प्रतिकार नहीं करते वरन् चुपचाप चले जाते। मैंने अम्मा से पूछा तो उन्होंने बताया कि संगीता की रीढ़ की हड्डी गल गई है एवं डाॅक्टरों ने उन्हें आराम की सलाह दी है। केदारनाथ कारोबार के साथ-साथ घर के अन्य काम भी सम्भालता है। बिचारे के कोढ़ में खाज़ निकल गई। मेरा मन अनायास ही उदास हो गया, इसलिए नहीं कि अब मेरा विनोद का मार्ग बंद हो गया वरन् अब मुझे पता चला कि जिन लोगों से हम दिल्लगी करते हैं, जिनका मजाक उड़ाते हैं, कहीं गहरे वो हमारे लिए आदर का स्थान भी बना लेते हैं। हमारी कमियों की पूर्ति दूसरों में होते देख हम उनसे आकर्षित भी होते हैं एवं उनके प्रति श्रद्धा से भी भरते हैं। मुझे लगा मैं कही गहरे भीतर से पिघल रहा हूँ।
मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। मेरे अपराधी पाँव संकोच कर रहे थे पर हृदय की श्रद्धा बरबस उनकी और धकेल रही थी। मन के पाप और हृदय के आदर में रस्साकस्सी मची थी। अंत में श्रद्धा एवं आदर की जीत हुई। मैं केदारनाथजी के घर गया एवं मुख्य दरवाजे के अन्दर आकर ठिठक गया। सामने कमरे में पलंग पर लेटी संगीता कराह रही थी। केदारनाथ रसोई में खड़े खाना पका रहे थे। बीच-बीच में आकर बच्चे को भी तैयार कर रहे थे। काम में व्यस्त केदारनाथजी की मुझ पर नजर तक नहीं पड़ी। आज मैं उनमें एक ऐसे कर्मयोगी के दर्शन कर रहा था, जिसके लिए जीवन एक अनवरत संग्राम है एवं जिसने परिस्थितियों के आगे हथियार डालने से इंकार कर दिया हो।
यकायक उन्होंने मुझे देखा, चौंके एवं सीधे काम छोड़कर मेरे पास आए। स्नेह से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए बोले, “अरे बेटा तुम! वहां क्यों खड़े हो। अन्दर आओ।’’ मुझे संगीता के पास ले गये एवं कहा, ‘‘देखो राकेश आया है!’’ मुझे संगीता के पास बिठाकर वह फिर रसोई में काम समेटने चले गए। संगीता का पीला चेहरा, बुझी आँखें एवं दर्द भरे भाव देखकर मैं भीतर तक कांप गया। उसने बोलने का प्रयास किया पर बोल न सकी, पर उसकी मूक आँखों के संदेश को मैंने पढ़ लिया। जैसे कह रही थी, ‘‘बेटा! मैंने मेरे ही कर्मों का फल पाया। इस देवता को नहीं पहचान पाई, इसी से विधाता का कोप गिरा। अपने चाचा का ध्यान रखना। उन्हें अब न सताना।’’ संगीता की निरीह, दीन आंखों ने मेरे हृदय में हाहाकार मचा दिया। बच्चा ही तो था, बरबस फूट कर रो पड़ा। रोते-रोते मुख्य दरवाजे की तरफ जाने लगा तो केदारनाथजी ने आकर सांत्वना दी, ‘‘बेटा! घबराने से काम नहीं चलता, परिस्थितियों से युद्ध करना पड़ता है। अब तो तुम सब देख चुके हो। वक्त का कोई भरोसा नहीं। घर का हर काम आना चाहिए, न जाने कल कहाँ काम आ जाए। काम करने से आदमी छोटा नहीं होता, न करने से होता है। मैं संगीता का नहीं परिस्थितियों का गुलाम हूँ। अगर काम नहीं करूंगा तो घर का क्या होगा। नौकरों के भरोसे नाव नहीं चलती।’’ उनके एक-एक शब्द मेरे अंतस्तल को बींध रहे थे। मन कर रहा था इस देवता के चरणों में लिपट जाऊं।
काल का महानद कब रुका है। मैं अब काॅलेज जाने लगा था। संगीता साल- दर-साल क्षीण होती गई। जितने वर्ष शासन किया उससे अधिक शासित रही। आज सुबह काॅलेज जाने लगा तो केदारनाथजी के घर से तेज रोने-धोने की आवाजें सुनाई दी। मेरा कलेजा धक से रह गया। मैं एवं मां दौड़े-दौड़े उनके घर गए और देखकर अवाक् रह गए। संगीता के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। केदारनाथजी एवं उनके बच्चे की आँखों से आंसू रोके नहीं रुक रहे थे।
अब इस घटना को बीते भी पन्द्रह वर्ष होने को आए। कालांश के नये हिस्से पर मैं खड़ा था। पिताजी अब यहाँ से चार सौ किलोमीटर दूर डूंगरपुर में जिला शिक्षा अधिकारी थे। मां अब उन्हीं के साथ रहती थी। गत वर्ष केदारनाथजी का भी कैंसर से निधन हो गया। उनका बच्चा अब अपने मामा मामी के साथ रह रहा था जो केदारनाथ के निधन के बाद यहाँ आ गए थे। उन्हीं ने केदारनाथ का कारोबार सम्भाला एवं बच्चे के परवरिश की जिम्मेदारी ली। अब वह हमारे पड़ौसी थे।
मेरी शादी हुए भी दस वर्ष होने को आए। अभी छह माह पूर्व पत्नी ऐसे बुखार की चपेट में आई कि शरीर के नीचे सारे हिस्से को लकवा मार गया। घर के सारे काम एवं बच्चे की सार-सम्हाल मेरे जिम्मे आन पड़ी। अब रह-रह कर मुझे केदारनाथजी की याद आती। श्रद्धा से मेरा मन आप्लावित हो उठता। लगता जैसे उस व्यक्ति ने जीते जी मेरे जीवन में एक अज्ञात अवलम्ब की सृष्टि की, नव-दर्शन का प्रकाश दिया। विवेक का उद्भव भी समय से होता है। उच्छृंखलता एवं आत्मान्वेषण में बैर है। सूर्य की किरणें उफनती नदी के ऊपर मचलती रहती है, गहरे तल पर नहीं जाती जबकि ठहरे जलाशयों के पैंदे तक पहुंच जाती है। अनुभव-रश्मियां भी शांत एवं स्थिर मनुष्यों के ही हृदयतल तक पहुंचती हैं।
माघ की कंपकंपाने वाली ठण्ड में भी सूर्यदेव सूरमा की तरह पूर्व क्षितिज से ऐसे उदीयमान हो रहे थे जैसे कोई तेजस्वी संत हल्के केसरिया वस्त्र पहने सिमटते पेड़-पौधों एवं जनजीवन को कर्म एवं अनुशासन की महत्ता का उपदेश दे रहे हों ‘‘यूं सोते ही रहोगे तो जागोगे कब। तुम्हारी तरह मैं भी यूं अलसा रहूँ तो सृष्टि का क्या होगा।’’ छत पर पीली सुनहरी धूप पसरने लगी थी। मैं छत पर खड़ा बाल्टी में रखे कपड़े एक-एक कर सुखा रहा था कि एक आवाज ने मुझे झकझोर दिया। जैसे गहरे कुएँ के तल से किसी ने पुकारा हो, ‘‘लुगाईलट्टू!’’ मैंने मुड़कर देखा।
केदारनाथजी का लड़का तेज भागता हुआ सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था।
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