आत्मा के शब्द
लगता है आत्मा ही नहीं शरीर में हमारे,
वरना इतनी देर तक हम कभी सोए नहीं ।
माँ हमारी ज़ार-ज़ार क्यों रोती है 'ऐ खुदा '
हमने आज तलक उसे यूँ तो सताया नहीं।।
विदाई पर क्यों अश्कों से भिगो दिया हमें,
इस आब-ए-चश्म को यूँ करते ज़ाया नहीं।।।
कितना खुशनुमा है अपनों से यूँ घिरा रहना,
बन कर भीड़ का हिस्सा विदा हम हुए नहीं।।।।
बाबा के आँसुओं से शायद बढ़ गया है वज़न
वरना खिलती कलियाँ यूँ वजनदार होते नहीं।।।।।
अपनी बेबसी का आलम क्या कहें अब 'सना'
सिसकती 'लाचारी' यूँ काँधे पर कोई उठाते नहीं ।।।।।
*****ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'
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