Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

प्रकोप प्रकृति का

 

प्रकोप प्रकृति का

जाने वो कौन सी किरण
थी सुबह के सूरज की
डूब गई हर कश्ती इस
धरा के इंसान के उम्मीदों की

सोच है अब खामोशी में
आशाएँ जल रहीं ज्यों अगन
प्रकृति के प्रकोप से महल
घरौंदे सब हो गए हैं जलमग्न

खुश हो रहा खेल कर प्रकृति से
है पा लिया आज विजय भी
भूल रहा यह मानव जाने क्यूँ
के होगी एक दिन प्रलय भी

आओ मिलकर हाथ बढाएँ है
लाना बहार उस उजड़े उपवन में
खिलाएँगें नव पल्लव, नए पौध
जल मगन हो गए इस गुलशन में

आवाज़ अंतर्मन की तुम भी सुनो
सैकड़ों दुखियारों का विश्वास हो तुम
टूटे परिंदे के आँखों में बसे सपने
के सच होने का एहसास हो तुम

सब मिलकर दुखी संसार में
जितना बने हम सुख लुटाएँगे
आँसू भरे नैनों में खिल सके जो
मृदु हास के अनमोल क्षण जुटाएँगें

सँवारना है हर घर का आँगन आँगन
बसाएँगें फिर सुख के नीलम निलय भी
एक जुट हो लड़े अगर पछताएगी
अपनी विवशता पर कुंठित हो प्रलय भी |
****ज्योत्स्ना मिश्रा ‘सना’

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ