प्रकोप प्रकृति का
जाने वो कौन सी किरण
थी सुबह के सूरज की
डूब गई हर कश्ती इस
धरा के इंसान के उम्मीदों की
सोच है अब खामोशी में
आशाएँ जल रहीं ज्यों अगन
प्रकृति के प्रकोप से महल
घरौंदे सब हो गए हैं जलमग्न
खुश हो रहा खेल कर प्रकृति से
है पा लिया आज विजय भी
भूल रहा यह मानव जाने क्यूँ
के होगी एक दिन प्रलय भी
आओ मिलकर हाथ बढाएँ है
लाना बहार उस उजड़े उपवन में
खिलाएँगें नव पल्लव, नए पौध
जल मगन हो गए इस गुलशन में
आवाज़ अंतर्मन की तुम भी सुनो
सैकड़ों दुखियारों का विश्वास हो तुम
टूटे परिंदे के आँखों में बसे सपने
के सच होने का एहसास हो तुम
सब मिलकर दुखी संसार में
जितना बने हम सुख लुटाएँगे
आँसू भरे नैनों में खिल सके जो
मृदु हास के अनमोल क्षण जुटाएँगें
सँवारना है हर घर का आँगन आँगन
बसाएँगें फिर सुख के नीलम निलय भी
एक जुट हो लड़े अगर पछताएगी
अपनी विवशता पर कुंठित हो प्रलय भी |
****ज्योत्स्ना मिश्रा ‘सना’
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