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राधा का प्रेम

 

राधा का प्रेम
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             **** ज्योत्स्ना मिश्रा ‘सना’

राधा-कृष्ण की प्रेम तो एसा है जिस पर युगों से कवि..  कथाकार.. गीतकार..  अपनी कल्पना को आधारित कर जाने कितने ही रचनाएं लिख चुके हैं… .

कथा उस समय की है जब निषादराज ने हिरण समझकर श्री कृष्ण के पाँव पर तीर चला दिया था…

इस समाचार को सुनकर उनके सभी प्रियजन, उनकी पत्नियाँ, पुत्र -पुत्रवधु,  और राधा भी मिलने आए… तब श्री कृष्ण ने कहा कि उन्हें असहनीय पीड़ा हो रही है , वैद्य बुलाए गए हर प्रकार की औषधि प्रयोग की गई , मगर सब कुछ करने पर भी उनकी पीड़ा कम नहीं हो रही थी,  हारकर सबने श्री कृष्ण से पूछा कि आप ही कोई उपाय बताएं भगवान….. चिरस्मित मुख से उन्होंने कहा ,” मेरी पीड़ा का एक ही इलाज है..  कि जो मुझे सबसे अधिक प्रेम करता है.. वह अपने चरणों की धूली का लेप बना कर मेरे सीने पर लगा दे तो ही मेरी पीड़ा कम होगी… .”|

यह सुनकर सब सकते में आ गए…  यह कैसा उपाय है… प्रेम तो अनंत है मगर कृष्ण को अपने ईश्वर को चरणों की धूल लगाकर पापी कौन बने…  वर्षों की तपस्या के बाद तो श्री कृष्ण के सान्निध्य का अवसर प्राप्त हुआ है… पुनः पापी कौन बने..|

सबसे पहले रुक्मिणी कि ओर देखा श्री कृष्ण ने,  इस आशा से कि उनके पीड़ा से राहत मिलेगी, मगर रुक्मिणी जी ने अपने दोनों करों को जोड़ते हुए कहा, “ प्रभु, मुझे क्षमा करें,  पहले भी त्रेतायुग में भी जाने किन पापों के कारण जीवन भर आपसे दूर रहना पड़ा,  पुनः मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकती कि आपसे विछोह का दंड भोगुँ, “इतना कहकर उन्होंने अपना सिर झुका लिया |

उसके पश्चात श्री कृष्ण ने अपनी दूसरी पत्नी सत्यभामा की ओर देखा कि कदाचित्  उन्हें इस पीड़ा से राहत मिल जाए,  मगर सत्यभामा ने भी मस्तक नीचे करते हुए कहा, “ प्रभु,  आपके सान्निध्य का अवसर मुझे प्रथम बार प्राप्त हुआ है, मैं एसा कोई कार्य नहीं कर सकती,  जिससे आपसे दूर  जाना पड़ जाए,  आप मुझे क्षमा करें, |”

श्री कृष्ण ने इस बार भानुमती की ओर आशापूर्ण दृष्टि से देखा,  परन्तु उन्होंने बिना कुछ कहे अपना मस्तक नीचे कर लिया |

तीनों रानियों के उत्तर सुनकर वैद्य सब बहुत दुखी हुए,  परन्तु श्री कृष्ण के मुख वही स्मित हास्य बना हुआ था,  जैसे उन्हें इसी उत्तर की अपेक्षा थी | व्यथित होकर मुख्य वैद्य ने पूछा,” अब क्या करें |”

इस बार श्री कृष्ण ने बडे़ भाई की ओर देखते हुए कहा, “ बल दाऊ,  मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाओ, आप तो बड़े हैं तो आपको कोई पाप भी नहीं लगेगा |” यह सुनकर बलराम जी ने आँखों में अश्रु भरकर कहा,  “ प्रभु,  यह तो आपकी कृपा है कि मुझे आपने अग्रजन्मा होने का अवसर दिया, अन्यथा मेरा अस्तित्व ही आपकी सेवा करने के लिए है,  मैं आपका तुच्छ सेवक आपको अपनी चरण धुली देकर पापी नहीं बन सकता,  मुझे क्षमा करें ,” यह कहकर वे भी नतमस्तक हो गए |

इस बार वैद्य जी ने श्री कृष्ण के  पुत्रों कि ओर देखा और कहा ,” पिता, अगर पीड़ा में हो तो पुत्रों का यह कर्तव्य होता है कि वे उन्हें पीड़ा मुक्त करें,  आप स्वयं तय करें आप में से कौन अपने पिता को पीड़ामुक्त  करेंगे, “ यह सुनकर पुत्रों ने हाथ जोड़े श्री कृष्ण को और वैद्य जी को कहा, “ वैद्य जी,  हम अपने पिता श्री के लिए अपने प्राण भी त्याग सकते हैं,  परंतु अपने चरणों की धूल उन्हें लगाकर पाप कैसे करें,  आप ही कहें |”

बात फिर वहीं आकर थम गई,  श्री कृष्ण की पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी और साथ ही सबकी व्याकुलता भी, क्या करें कि श्री कृष्ण की पीड़ा कम हो, कोई भी अपनी चरण धुली देने को राज़ी नहीं थे |

दुर  राधा अश्रु बहाती खड़ी थीं… . यह सब देख-सुन रही थीं और एकटक अपने कान्हा के सुंदर मुख को देख रही थी, उन्हें कान्हा के पीड़ा का आभास हो रहा था, उन्हें भी उतनी ही पीड़ा हो रही थी, वो केवल इतना ही मना रही थी कैसे भी कान्हा की पीड़ा कम हो जाए,  मगर इसके आसार नज़र नहीं आ रहे थे

अचानक राधा ने कुछ सोचा, आगे आएं और बोले, “ कान्हा,  मैं लगाउँगीं तुम्हें  अपनी चरण धुली… चाहे इसके लिए मुझे युगों तक अपने सिर पर पाप का बोझ लेकर पापी ही कहलाना पड़े,  परंतु तुम्हारी पीड़ा मुझसे सहन नहीं हो रही है, “

यह कहकर राधा ने अपने चरणों की धूली अपने हाथों में  लेकर उसमें अपने अश्रु मिलाए, उसके लेप बनाया और उस लेप को श्री कृष्ण के सीने पर लगाया, सीने पर लेप लगते ही श्री कृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर दिए मानो उनके वक्ष पर अमृत का लेप लग रहा है,  लेप लगाते हुए राधा के नेत्र भी बंद कर लिए थे , ऐसा लग रहा था मानो दोनों ही किसी अन्य लोक में विचरण कर रहे हैं | कुछ समय के पश्चात राधा ने अपने नेत्र खोले और पूछा, “ कान्हा,  अब तुम्हारी पीड़ा कैसी है? “ हौले से अपने नेत्र खोलकर श्री कृष्ण ने कहा, “ राधा तुम्हारे स्पर्श मात्र से ही सारी पीड़ा समाप्त हो गई है,  संसार में सबके मन में यह प्रश्न रहता है, यहाँ तक की मेरी पत्नियों के मन में भी है कि मैं राधा से इतना प्रेम क्यों करता हूँ,  तो उत्तर सबके समक्ष है,  सबने अपने पाप-पुण्य का विचार कर लिया,  किसी को मेरी पीड़ा से कोई लेन-देन नहीं था,  केवल प्रेम है, श्रद्धा है कहने मात्र से नहीं होता है,  समय आने पर प्रमाणित करना पड़ता है,  जो केवल राधा ही कर पाई |”

सबने अपने सिर झुका लिए, राधा के नेत्रों में अभी तक अश्रु थे, उन्होंने श्री कृष्ण की ओर देखा, अपने कान्हा के चेहरे पर मुस्कान देखकर वहाँ  से लौट गईं |

यह है राधा-कृष्ण का प्रेम.. जो काल के, समाज के,  बंधनों के,  पाप-पुण्य से.. कहीं उपर है….

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