‘हृ’ – स्पर्शराग-रंजित भूषित – भव
नीत-सकल सम्यक न
समतामूलक – प्रमाण ‘स्पर्श’
हस्तगत प्रेक्षा का ऊष्मीयमान।
शैथिल्य _आश्लथ, प्रगाढ़ चुम्बन
अहा! अरी, अहो ;
उच्छृंखल, उच्छवसित _स्वरैक्य – स्वन।
अयी, मेदिनी
प्रीतिपात का मूल्य फिर?
“संदर्भ-वैशिष्ट” तुम
किन्तु शीर्षक भिन्न-भिन्न,
संकेन्द्रित सुसूक्त यह
” कर अर्पित यौवनोपहार
क्षम्य नहीं कौमार्य”।
अट्टहास मादन वक्ष पर के
मधुमत्त कटि, विहंसित – कुसुमित नितम्ब
औ’ कच-कुन्तल
स्यात_ पृष्ठ अनेक एक ही पुस्तक के
विशिष्ट वस्ति-प्रदेश एक।
तृषा स्तर-स्तर
तीव्र-तीव्र – मदिर – मधुरिम
आवृत्त निरन्तर।
मैं अल्कावलि!
उदग्र विकारों की महौषधि
रक्तचाप केवल
बाह्य – आंतरिक द्विपात – निपात।
समाविष्ट रक्त – वीचियों में
समस्त केलि,
मैं केलिकला!
आकृतियों पर उल्लिखित ‘रोष ‘
उद्वेग – उद्द्वेप।
भिन्न_ समस्टिकुल से
प्रगाढ़ आलिंगन, द्रवण, संघनन
निरन्तर अवतरित हृ-पृष्ठों पर।
परिपक्व विचार श्रेष्ठतम
आदर्शों पर
पृष्ठ_दीर्घ न लघुव्याल।
“क्लांत वह्नियों का न कोई अर्थ
व्यर्थ है यह मूर्च्छा, अवसन्नता “।
( कहफ रहमानी)
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