कला और हम
किसी कार्य में कौशल और निपुणता ही कला कहलाती है। कला कई प्रकार की हो सकती है, आदि काल से लेकर आज आधुनिक युग तक निरंतर कला के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है, ईसा पूर्व तीन हजार वर्ष से पैंतीस लाख वर्ष तक आदिम युग में पाषाण कला का उद्गम एवं विकास हुआ। गुफाओं में पत्थरों पर आकृतियां निर्मित की गई। देश एवं विश्व में अलग-अलग पाषाण युग के पाषाण कला का स्त्रोत मौजूद है ।
ईसा पूर्व मौर्य वंश के शासनकाल में कलाओं का विकास हुआ। गुफाओं में पाषाण में उकेरी गई कला, पशुओं का चित्र निर्मित किये गयें। चित्रकला का भी विकास हुआ। गुप्तकाल चित्रकला का स्वर्णयुग माना गया। प्राचीन काल से निरंतर कलाओं का विकास मध्यकाल तथा आज आधुनिक काल तक निरंतर जारी है। आज के दौर में दो प्रकार की कलाएं विद्यमान है। पहला उपयोगी कला दूसरा ललित कलाएँ। हम ललित कलाओं को निम्न कलाओं के रूप में समझ सकते हैं:
पहला चित्रकला, दूसरा मूर्तिकला, तीसरा वास्तुकला, चौथा संगीत नृत्य कला पाँचवा साहित्य काव्य कला उपरोक्त कलाओं के माध्यम से समस्त कलाओं को एकाग्रता अनुभूति कार्यकुशलता निपुणता भाव भंगिमा तथा वैचारिक काव्य के माध्यम से कलाओं के स्वरूपों को समझ सकते हैं।
भारतवर्ष में सामाजिक धार्मिक उत्सवों में संगीत, नृत्य का विशेष उल्लेख मिलता है। वर्तमान काल में संगीत नृत्य कला के क्षेत्र में विकास हुआ है। आज पूरे देश में नृत्य कला को शास्त्रीय गायन के साथ वैज्ञानिक ढंग से निखार आया हैं। भरतनाट्यम नृत्य कला दक्षिण की श्रेष्ठ नृत्य कला है, दक्षिण में भरतनाट्यम कला जन-जन तक लोकप्रिय है। वर्तमान समय में भारत नाट्यम नृत्य कला के भव्य आयोजन देश में बड़े-बड़े शहरों में होते हैं, इनकी लोकप्रियता से सामाजिक समरसता, एकात्मक विचारधारा को बल मिलता है। उत्तर भारत में भी कथक नृत्य लोकप्रिय है, कथक नृत्य में नृत्यांगना की भाव भंगीमा कीनिपुणता, पगो की थिरकन निपुणता मोहक होती है। इस नृत्य कला के माध्यम से उत्सवों में मनोरंजन भारतीय शास्त्रीय संगीत संस्कृति की प्रशंसा, एकाग्रता उत्साह परिलक्षित करती हैं। जैसे भारतवर्ष में नृत्य कला जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न स्वरूपों आयामों में रची हुई है। बच्चों के जन्म, संस्कार, विवाह, मांगलिक कार्यों में ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों को रीति-रिवाज संस्कारों में रची बसी है। देश के वनवासी क्षेत्रों ग्रामीण रहवासियों में उनकी अपनी संगीत नृत्य कला प्रशंसनीय होती हैं।
कलाओं का क्षेत्र भारतवर्ष में विस्तृत है कठपुतलियों का नृत्य, आदिवासियों का नृत्य विशेष कला के रूप में विद्यमान है। हमारे देश में जनमानस में चित्रकला के क्षेत्र में कार्यकुशलता की निपुणता देखी जा सकती है। अच्छे-अच्छे मनमोहक चित्र सजीव लगते हैं। चित्रकार की निपुणता की ख्याति विश्व प्रसिद्ध है। पशु-पक्षी, प्रकृति-आकृति, झील-झरनो, नदी-तालाब, सुंदर द्रश्यों, मानव भंगिमाओं रूबरू चित्रकला में निर्मित की जाती है। चित्रकला का भविष्य देश विदेश में महत्वपूर्ण है।
देश में मूर्तिकला के एक से बढ़के एक कलाकार है। पत्थरों से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, पशु-पक्षियों द्रश्यों की कलाकृतियाँ बेजोड़ है।
भारतवर्ष में वास्तुकला जिसके अंतर्गत भवननिर्माण, दुर्ग किले, धार्मिक स्थल, ऐतिहासिक मकबरे प्राचीनकाल से आज तक जग प्रसिद्ध रहे हैं। मुगल काल के स्थापत्य कला के अंतर्गत यूनस्को से मान्यता प्राप्त ताजमहल, लाल किला, कुतुब मीनार देश में विभिन्न क्षेत्रों में फैले दुर्ग किले आज हमारी स्थापत्य कला की धरोहर है। विज्ञान की तरक्की से स्थापत्य कला में जहां गगनचुंबी भवन, आकर्षक निर्माण हमारे विकास में निरंतर वृद्धि कर रहे हैं।
साहित्य काव्य कला के क्षेत्र में भारत वर्ष वैदिककाल से वर्तमान काल तक निरंतर प्रगति करता आ रहा है। साहित्य काव्य कला के क्षेत्र में साहित्यकारों, विद्वानों, शिक्षा विद्वानों, मनिषो द्वारा काव्य कला को निरंतर ऊंचाइयों मिल रही है।
भारतवर्ष प्राचीन काल से कलाओं के क्षेत्र में समग्र विकास करता रहा है। ज्ञान कला के क्षेत्र में विश्वगुरु रहा है। आज के समय में चाहे चित्रकला हो, मूर्तिकला हो, वास्तुकला हो संगीत, नृत्यकला, साहित्यिक काव्य कला हो अपनी संस्कृति को बढ़ाते हुये। हम प्रत्येक कला को विकसित करने में निरंतर प्रगति कर रहे हैं।
लेखक - लक्ष्मण प्रसाद डेहरिया "ख़ामोश"
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