लिमटी की लालटेन 217
पालीथिन के घटकों के विनिष्टीकरण में लग जाता है एक हजार से ज्यादा साल का समय
अब समय आ गया है कि प्लास्टिक को कहा जाए अलविदा . . .
(लिमटी खरे)
आज दुनिया में प्लास्टिक ने एक क्रांति अवश्य लाई है पर प्लास्टिक के कारण पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है इस बारे में शायद ही कोई जानता हो। एक समय था जब लोग एक स्थान से दूसरे स्थान जाते समय सुराही, छागल अथवा कांच की बोतलों में पानी ले जाया करते थे। समय बदला आज इन सबका विकल्प बहुत ही सस्ती प्लास्टिक की बाटल्स ले चुकी हैं। प्लास्टिक रूपी कचरा आज महानगरों में सीवर का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है। मुंबई जैसे शहर में इसी प्लास्टिक के कारण हर साल बारिश में जलभराव की स्थितियां पैदा हो जाती हैं।
दरअसल, प्लास्टिक की संरचना बहुत सारे रसायनों से मिलकर होती है जो हृदय और कैंसर रोग सहित अनेक बीमारियों के जनक माने जाते हैं। प्लास्टिक का इतिहास काफी पुराना माना जा सकता है। 1856 में इंगलैण्ड के बर्मिघम निसासी एलेक्जेंडर पार्क्स के द्वारा कराया गया था। प्लास्टिक का पहला स्वरूप 1862 में दुनिया के सामने आया था। इसे एक प्रदर्शनी में रखा गया था। एलेक्जेंडर ने पार्केसाइन कंपनी बनाकर 1866 में इसका व्यवसायिक उत्पादन आरंभ किया।
बात की जाए पालीथिन की तो पालीथिन को सबसे पहले जर्मनी के हैंस वोन पैचमान के द्वारा 1898 में इसे प्रयोगशाला में एक प्रयोग के दौरान ही सफेद रंग का मोम जैसा पदार्थ बनते हुए देखा। उन्होंने इसका अध्ययन किया और इसे पालीथिन का नाम दे दिया गया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में फार्मेल्डीहाईड, फिनोल और सिंथेटिक जैसे पदार्थों का उपयोग कर प्लास्टिक बनाना आरंभ कर दिया गया।
इसके बाद शोध दर शोध के उपरांत 1907 में बेल्जियम मूल के पर अमेरिका में रहने वाले डॉ. लियो हेंड्रिक बैकलैण्ड के द्वारा इस पूरी प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन करते हुए सिंथेटिक तरीके से प्लास्टिक का निर्माण आरंभ किया गया, जिसका उपयोग कई तरह के उद्योगों में भी किया जाने लगा। इसमें एस्बेस्टॉस, स्लेट बनाने के पाऊडर और लकड़ी के बुरादे आदि को इसमें मिलाकर गर्म कर जब ठण्डा किया गया तो एक कठोर पदार्थ मिला। 1912 में बैकलैण्ड के नाम पर ही इसका नामकरण बैकलाईट रखा गया।
औद्योगिक तौर पर प्लास्टिक के उत्पादन की अगर बात की जाए तो 1933 में 27 मार्च को एक शोध के दौरान गलति से एक सफेद पदार्थ बन गया, जिसे शोधकर्ताओं ने सिरे से खारिज कर दिया किन्तु उस दौर के युवा वैज्ञानिक जार्ज फीचम के द्वारा इससे निराश न होकर इस पर और शोध किए गए और कालांतर में यह औद्योगिक तौर पर पालिथिन के रूप में स्थापित हुआ। देखा जाए तो प्लास्टिक शब्द की उत्तपत्ति ग्रीक के एक शब्द प्लास्टिकोज अथवा प्लास्टोज ही मानी जाती है, इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ होता है लचीला या मनचाहा आकार देना।
पालीथिन के कुछ फायदे हैं तो अनेक नुकसान भी हैं। 21वी सदी के अंतिम दशक के बाद प्लास्टिक ने जिस तरह से तबाही मचाना आरंभ किया है वह वास्तव में बहुत ही दर्दनाक माना जा सकता है। आज प्लास्टिक के खतरों को भांपते हुए दुनिया भर में इसे प्रतिबंधित करने की कवायद की जा रही है। अगर आप भारत के परिपेक्ष्य में बात करें तो भारत में प्लास्टिक की समस्या दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। यह प्रकृति पर यह कहर बनकर टूट रहा है तो दूसरी ओर मनुष्य और यहां रहने वाले हर जीव जंतु के लिए परेशानी का सबब ही बन चुका है। सिंगल यूज प्लास्टिक वास्तव में बहुत ही गंभीर समस्या बन चुका है। 01 जुलाई के बाद इसके कुछ निर्माण घटकों के निर्माण पर भले ही प्रतिबंध लगाया गया हो पर ये प्रतिबंध भी अन्य प्रतिबंधों की तरह ही साबित होते नजर आ सकते हैं।
प्लास्टिक के कम समय में लोकप्रिय होने के पीछे मुख्य वजह यही मानी जा सकती है कि इससे बनी वस्तुएं जल्द खराब नहीं होती, ना ही जल्द टूटती हैं और न ही पानी आदि के प्रभाव के कारण सड़ती ही हैं, सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इसमें लोहे की तरह जंग नहीं लगती और यह बहुत ही हल्की व एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने में बहुत ही सुलभ एवं दामों में बेहद सस्ती होती हैं। यह बिजली का कुचालक होने के कारण बिजली के उपकरणों को बनाने में इसका उपयोग बहुत ज्यादा होने लगा है। यही कारण है कि अस्सी के दशक के बाद भारत में भी प्लास्टिक का चलन बहुत तेजी से बढ़ चुका है।
अगर आपकी आयु 50 वर्ष से ज्यादा है तो आप याद कीजिए कि बचपन में जब आप एक स्थान से दूसरे स्थान जाया करते थे तब पानी ले जाने के लिए या तो सुराही, या छागल अथवा कांच की बोतलों का उपयोग होता था। छागल को छोड़कर बाकी सब के टूटने का खतरा बना रहता था। अस्सी के दशक में प्लास्टिक की बोतल में पानी मिलना आरंभ हुआ और इसके बाद पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक सुगमता से ले जाने के मार्ग भी प्रशस्त हो गए। प्लास्टिक की एक खूबी है कि इसे अपने मनचाहे आकार में मनचाहा पदार्थ मिलकर ढाला जा सकता है।
प्लास्टिक आज हम सबकी जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन गया है, यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। यह सही है कि जब प्लास्टिक का अविष्कार हुआ था तब इसे एक बहुत बड़ी सफलता के रूप में देखा जा रहा था, किन्तु अब प्लास्टिक ही प्रथ्वी पर पर्यावरण और अन्य कारणों से बहुत ज्यादा हानिकारक भी माना जा रहा है। आज प्लास्टिक जिस तरह मिट्टी में दबाया जा रहा है, वह आने वाले कल में मिट्टी की उत्पादकता को पूरी तरह प्रभावित कर देगा, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
आज के समय में शहरों में प्लास्टिक का कचरा फैला दिख रहा है। शहरों का कचरा जहां संग्रहित किया जाता है वहां प्लास्टिक के पहाड़ दिखाई देने लगे हैं। अनेक शहरों में प्लास्टिक के कचरे में आग लगाई जाती है और उससे उठने वाली असहनीय दुर्गंध के पीछे केमिकल्स ही होते हैं। अनेक शहरों के ड्रेनेज सिस्टम को यह पालीथिन अब तक ठप्प कर चुकी है। पालीथिन के घटकों को विघटित होकर नष्ट होने में एक हजार से अधिक का लंबा समय लगता है।
आज हम अपनी सुविधाओं के लिए आपेक्षाकृत सस्ती पालीथिन का उपयोग कर उसे बिना सुरक्षित तरीके से विनिष्ट किए हुए ही फेंक रहे हैं जो आने वाले समय में पर्यावरण के लिए नुकसान बन जाएगी, इसलिए विश्व भर में प्लास्टिक के विभन्न स्वरूपों पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग के लिए संयुक्त अभियान चलाए जाने की जरूरत महसूस होने लगी है।
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(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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