लिमटी की लालटेन 629
होलिका उत्सव का आगाज हुआ था बुंदेलखण्ड के एरच से . . .
रंगों के पर्व होली को लेकर मशहूर हैं अनेक किंवदंतियां और कहानियां . . .
(लिमटी खरे)
रंगों का पर्व कुछ जगहों पर धुरैड़ी तो कुछ स्थानों पर धुरैड़ी और रंगपंचमी तथा कुछ जगहों पर धुरैड़ी से लेकर रंगपंचमी तक चलता है। सनातन धर्म में रंग पंचमी का त्योहार होली के पांचवें दिन यानि चैत्र कृष्ण पंचमी को मनाया जाता है। इस साल रंग पंचमी का पर्व 30 मार्च को मनाया जाएगा। जैसे कार्तिक पूर्णिमा को देवताओं की दीपावली होती है उसी प्रकार रंग पंचमी का त्योहार देवी-देवताओं की होली होती है।
रंगपंचमी के दिन वातावरण में हर तरफ अबीर और गुलाल उड़ता नजर आता है। मान्यता है कि इस दिन वातावरण में उड़ने वाला गुलाल व्यक्ति के सात्विक गुणों को बढ़ाता लोगों के अंदर सकारात्मक भावों को बढ़ाता है। साथ ही तामसिक और राजसिक गुण नष्ट हो जाते हैं, इसलिए इस दिन शरीर पर रंग लगाने की बजाय वातावरण में रंग फैलाया जाता है। यह त्योहार आपसी प्रेम और सौहार्द को दर्शाता है। शास्त्रों के अनुसार इस पर्व को बुरी शक्तियों पर विजय का दिन भी कहा जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस गुलाल से देवी देवता प्रसन्न होते हैं और जब वो गुलाल वापस नीचे आकर गिरता है, तो उससे पूरा वातावरण शुद्ध हो जाता है। हर तरफ की नकारात्मक ऊर्जा और बुरी शक्तियों का नाश होता है और चारों तरफ सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है,देवी-देवताओं की कृपा मिलती है।
पौराणिक कथा के अनुसार, होलाष्टक के दिन भगवान शिव ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था, जिससे पूरी सृष्टि में शोक व्याप्त हो गया। लेकिन देवी रति और देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित करने का आश्वासन दिया। इसके बाद सभी देवी-देवता प्रसन्न हो गए और रंगोत्सव मनाने लगे, वह दिन चैत्र कृष्ण पंचमी का था। तभी से रंगपंचमी का त्योहार इस तिथि को मनाया जाने लगा।
रंगों का त्यौहार जिस दिन सभी अपने मतभेद, मनभेद भूलकर गले मिलते हैं, उसका नाम है होली। होली को लेकर तरह तरह की किंवदंतियां और कहानियां भी मशहूर हैं। इनमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय प्रहलाद और होलिका की कथाएं हैं। देश विदेश में होली का पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है पर आप शायद यह नहीं जानते हों कि आखिर होली पर्व मनाने की शुरूआत कहां से हुई। हम आपको बताते हैं कि होली उत्सव की शुरूआत बुन्देलखण्ड अंचल में स्थित झांसी से लगभग 70 किलोमीटर दूर बमौर विकासखण्ड के एरच कस्बे से हुई थी। एक समय में यह राजा हिरणकश्यप की राजधानी हुआ करती थी।
इस तरह की मान्यता है कि दैत्यराज हिरणकश्यप ने प्रहलाद को सजा सुनाई थी, अपनी बुआ होलिका की गोद में बैठे प्रहलाद तो आग से बच गए थे, किन्तु होलिका जल गईं थीं। बेतवा नदी के किनारे आज भी कुछ इस तरह के स्थान हैं, जो प्रहलाद, होलिका और हिरणकश्यप की कहानी के गवाह बतौर मौजूद हैं। मान्यता है कि इसके बाद से ही देश विदेश में होलिका दहन और रंगों को खेलने की परंपरा आरंभ हुई। बुंदेलखण्ड में होली को फाग भी कहा जाता है। यह फाल्गुन माह में आती है। होली के पहले होलाष्टक से ही होली का रंग जमना आरंभ हो जाता है। जगह जगह टोलियां बैठकर फाग गाती नजर आती हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार उत्तर प्रदेश में जिला मुख्यालय झांसी से लगभग 70 किलोमीटर दूर एरच कस्बा है और यहीं से होली की शुरुआत हुई थी। पुराणों के मुताबिक एरच कस्बा सतयुग में एरिकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था। यह एरिकच्छ दैत्यराज हिरण्यकश्यप की राजधानी हुआ करती थी। कहा जाता है कि एरच के राजा हिरण्यकश्यप ने कठोर तप किया जिसके बाद उन्हे ईश्वर से उसे अमर होने का वरदान मिला था। उसे वरदान मिला था कि न तो वह दिन में मरेगा और न ही रात में। न उसे इंसान मार पाएगा न ही उसे जानवर। इस वरदान को पाने के बाद दैत्यराज हिरणकश्यप निरंकुश और अहंकारी हो गया।
कहा जाता है कि हिरणकश्यप के घर भक्त प्रहलाद का जन्म हुआ। भक्त प्रहलाद की नारायण भक्ति से नाखुश पिता हिरणकश्यप ने प्रहलाद को मरवाने के लिए अनेक जतन किए पर वह सफल नहीं हुआ। बाद में उसने प्रहलाद को डिकोली पर्वत से नीचे फिकवा दिया। जिस स्थान पर प्रहलाद गिरे थे वह स्थान आज भी वहां मौजूद है। इसका वर्णन श्रीमद भगवतगीता में भी मिलता है।
वहीं दूसरी ओर एक अन्य कथा के अनुसार दैत्यराज हिरणकश्यप की बहन होलिका के पास एक जादुई चुनरी थी, जिसे पहनने या ओढ़ने से आग की लपटों का असर नहीं होता था। दैत्यराज ने अपनी बहन को चुनरी ओढ़ा कर अपने पुत्र प्रहलाद को उसकी गोद में बिठाकर लकड़ियों में आग लगा दी ताकि प्रहलाद जल जाएं और होलिका बच जाएं। यह तो नारायण का चमत्कार था कि हवा चली और ओढ़नी होलिका के शरीर से उड़कर प्रहलाद के शरीर पर चली गई। एक बार फिर प्रहलाद बच गए किन्तु होलिका जल गईं।
मान्यता है कि इसके बाद भगवान विष्णु ने न मनुष्य न ही जानवर वरन, नरसिंह का अवतार लिया और न दिन न ही रात अर्थात गोधूली की बेला में डिकौली स्थित मंदिर की दहलीज पर दैत्यराज हिरणकश्यप का वध अपने नखूनों से कर दिया। इसके बाद से ही एरच नगर में होली का त्यौहार सर्वप्रथम मनाया जाता है, उसके बाद ही देश भर में होली मनाई जाती है। होली के पर्व पर लोग नकारात्मकता के दहन पर जोर दिया करते हैं।
इस आलेख को वीडियो में देखने के लिए क्लिक कीजिए . . .
https://www.youtube.com/watch?
होली पर्व से जुड़ी एक अन्य कहानी भगवान श्रीकृष्ण और राधा के संबंध में है। कथाओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का स्वभाव बहुत ही चंचल था। वे अपनी माता से राधा के सुंदर रंग और स्वयं के श्याम वर्ण की शिकायत करते हैं। इस पर भगवान श्रीकृष्ण की माता उनसे कहती हैं कि वे राधा के चेहरे को अपने श्याम रंग से मेल खाते हुए रंग से रंग दें। कहा जाता है कि राधा के चेहरे को रंगने की इस कवायद के बाद ही पानी और रंग से खेलने की परंपरा भी बन गई।
होली के रंगों को खेलने के एक दिन पहले रात में होलिका दहन की परंपरा है। इस दिन लोग लकड़ी, घास, गाय के गोबर से बने ढेर को जलाकर अपने बुरे कर्मों को जलाते हैं। होली का त्यौहार अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं के कारण बहुत प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। होली के इस अनुष्ठान पर, लोग सड़कों, पार्कों, सामुदायिक केंद्रों और मंदिरों के आसपास के क्षेत्रों में होलिका दहन अनुष्ठान के लिए लकड़ी और अन्य ज्वलनशील सामग्रियों के ढेर बनाना शुरू कर देते हैं।
होली पर परंपराएं भी देश में अलग अलग जगहों पर अलग अलग ही दिखाई देती हैं। बरसाना की लट्ठमार होली सभी जगह प्रसिद्ध है। यहां गांव की महिलाएं वहां के पुरूषों को लाठियों से पीटती हैं। इसके अलावा होली पर स्वादिष्ट व्यंजन, पकवान भी बनाए जाते हैं। इस दिन भांग अथवा ठण्डाई पीने पिलाने की परंपरा भी बहुत पुरानी ही है। होली पर रंग बनाने के लिए पहले प्राकृतिक रंग और जड़ी बूटियों का उपयोग किया जाता था, यह रंग बहुत ही पक्का हुआ करता था। कालांतर में जहरीले रसायनों का उपयोग रंग बनाने के लिए किया जाने लगा जो काफी हानिकारक ही माना जा सकता है।
होली का वर्तमान स्वरूप बहुत ही घिनौना माना जा सकता है। दो तीन दशकों से होली के पर्व पर नशा करके लोग आपस में विवाद करते दिखते हैं। एक दूसरे से सौहाद्रपूर्ण वातावरण में होली मिलन के बजाए अब इसमें बहुत ज्यादा गंदगी का समावेश होने लगा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि आने वाले समय में होली का पर्व अपने प्राचीन स्वरूप में लौटेगा ताकि इस दिन लोग गिले शिकवे भूलकर एक दूसरे के गले लगकर नए सवेरे का आगाज करेंगे . . .
लिमटी की लालटेन के 629वें एपीसोड में फिलहाल इतना ही। समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया की साई न्यूज में लिमटी की लालटेन अब हर रोज सुबह 07 बजे प्रसारित की जा रही है। आप समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया की वेब साईट या साई न्यूज के चेनल पर जाकर इसे रोजाना सुबह 07 बजे देख सकते हैं। अगर आपको लिमटी की लालटेन पसंद आ रही हो तो आप इसे लाईक, शेयर व सब्सक्राईब अवश्य करें। हम लिमटी की लालटेन का 630वां एपीसोड लेकर जल्द हाजिर होंगे, तब तक के लिए इजाजत दीजिए . . .
(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
--Attachments area
Preview YouTube video होलिका उत्सव का आगाज हुआ था बुंदेलखण्ड के एरच से . . .
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY