इंसान हो तुम
खींचता रिक्शे को पसीने से लथपथ रिक्शेवाले का
भूख से खिचती अंतड़ियों के बल सब्जी तौलने वाले का
फाका रहकर भी ऊर्जावान गिलहरी की तरह अपने काम को अंजाम दे रहे दिहाड़ी मजदूरों का
चिलचिलाती धूप में हल चला रहे किसान का
स्वयं बिना चाय पिए हजारों को चाय पिलाने वाले का
खुद से पहले औरों की रसोई रोशन करने वाले लकड़हारे का
सबल समाज के आगे हारी बेबस अबला नारी का
या किसी भाग्य विहीन मासूम लड़की का
दर्द …..
कर लेते हो महसूस तुम
यकीन मानो इंसान की चादर ओढ़े इंसान ही हो तुम
आधुनिकता की आपाधापी में संवेदना रहित रोबोट नहीं
आशाओं का विशद आकाश हो तुम
सौ फीसदी खरे उतरते हो इंसानियत के पैमाने पर तुम…
आशीष “मोहन”
9406706752
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