02 फरवरी 2020
अपनी बात
फिर दिखाई दे सकते हैं कुलांचे भरते चीते
(लिमटी खरे)
लगभग 72 साल पहले भारत से चीता विलुप्त हो गया था। देश में काफी विलंब से ही सही सरकारों के द्वारा बाघ, शेर आदि वन्य जीवों को बचाए रखने के लिए अभियानों का आगाज किया है, जिसकी वजह से बिल्ली की प्रजाति वाले ये भारी भरकम जीव बच सके हैं। देश में चीते की प्रजाति अब दिखाई नहीं देती। एक समय था जब भारतीय चीतों का पूरे विश्व में बोलबाला था। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा देश में चीतों की बसाहट के मार्ग प्रशस्त कर दिए हैं। चीते भारत में कुलांचे तो भरेंगे पर भातरीय चीतों की बात ही कुछ और हुआ करती थी। हमें यह सोचना होगा कि भारतीय चीते आखिर विलुप्त कैसे और क्यों हुए! वर्तमान में बाघ के संरक्षण की दिशा में सरकारें फिकरमंद दिख रहीं हैं, पर सरकारी उपाय नाकाफी ही माने जा सकते हैं। हर साल वनराजों की असमय मौतों पर भी शोध की जरूरत है। बाघ या तेंदुए आबादी की ओर क्यों आकर्षित हो रहे हैं इस बारे में भी विचार करने की जरूरत है।
आजादी के बाद न जाने कितने जानवर, पशु, पक्षी विलुप्तप्रायः हो चुके हैं। प्रकृति का सबसे बड़ा सफाई कर्मी माना जाने वाला गिद्ध भी अब विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंचा है। वैसे अनेक वन्य जीव जिन पर विलुप्त होने अथवा उनकी तादाद कम होने का खतरा मण्डरा रहा है उनके बारे में सरकारें चिंतित तो दिखती हैं, पर सरकारों के द्वारा किए जाने वाले प्रयास जमीनी स्तर पर पूरी ईमानदारी के साथ फलित होते नहीं दिखते।
बाघ और शेर पर भी इसी तरह का खतरा कुछ साल पहले मण्डराता दिखा। इसके बाद हुक्मरान चेते और राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए व्यापक अभियान चलाए गए, अनेक निर्माण कार्य इसके चलते प्रभावित भी हुए किन्तु सरकार अपने पथ से नहीं डिगी जिसके चलते शेर और बाघों की तादाद एक बार फिर बढ़ती दिख रही है। विडम्बना ही कही जाएगी कि इसके पहले चीतों को लेकर इस तरह की चिंता जाहिर नहीं होने से भारतीय चीते विलुप्त होते चले गए। कहा जाता है कि आजादी वाले वर्ष 1947 में देश के अंतिम चीते ने भी दम तोड़ दिया था। इसके उपरांत 1952 में चीतों को विलुप्त प्रजाति का घोषित कर दिया गया था।
देश में एक बार फिर चीतों को बसाने के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के द्वारा देश की शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया और नामीबिया से आफ्रिकन चीते देश में लाने की इजाजत चाही। एनसीटीए की स्थापना दिसंबर 2005 में की गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री के द्वारा देश में विलुप्त प्रजाति की ओर बढ़ रहे बाघ या इसी प्रजाति के अन्य वन्यजीवों के संरक्षण के लिए वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में संशोधन किया गया। इसके लिए वन एवं पर्यावरण मंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा एनटीसीए की अपील पर सकारात्मक रूख अखितार करते हुए इसकी इजाजत दे दी है। प्राधिकरण का कहना है कि यह काम अभी प्रायोगिक तौर पर किया जाएगा। नामीबिया से लाए जाने वाले चीते अगर देश की जलवायु के हिसाब से अपने आप को ढालकर यहां जीवित रह पाते हैं तो आगे इस मामले का विस्तार भी किया जा सकता है। इस लिहाज से भारत सरकार को अब फूंक फूंक कर कदम रखने की जरूरत है। कहा जाता है कि हर बीस किला मीटर पर भाषा में कुछ बदलाव तो सौ से डेढ़ सौ किलो मीटर की दूरी पर जलवायु में आंशिक बदलाव महसूस किया जाता है। इस लिहाज से नामीबिया या अक्रीका और देश की जलवायु में बहुत ज्यादा अंतर हो सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय होगा कि वन्य जीवों के संरक्षण के लिए योजनाएं तो बनती हैं, पर जब ये योजनाएं कागजों से जमीनी स्तर पर उतरती हैं तो इनमें बहुत अंतर हो जाता है। नियम कायदों को धता बताते हुए जंगलों का रकबा कम होता जा रहा है और इंसानों की रिहाईश का दायरा बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही पर्यावरण के तेजी से बदलाव के चलते पहले भी अनेक जंगली जीव असमय ही काल के गाल में समा चुके हैं।
एनटीसीए का कहना है कि नामीबिया से लाए जाने वाले चीतों को देश के हृदय प्रदेश के नौरादेही अभ्यारण में रखा जाएगा। नौरादेही अभ्यरण मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर, दमोह, सागर और रायसेन जिलों की सीमाओं को स्पर्श करता है। इसका विस्तार 5500 वर्ग किलो मीटर में है। इस अभ्यरण में चीतों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार की देखरेख में मध्य प्रदेश का वन अमला काम कर रहा है। यहां से इंसानी बहासट को हटाए जाने की कवायद की जा रही है।
एक शोध में यह भी कहा गया है कि पिछली शताब्दी अर्थात बीसवीं सदी की शुरूआत में विश्व भर में चीतों की तादाद एक लाख से ज्यादा थी। वर्तमान में चीतों की संख्या घटकर महज सात हजार के आसपास पहुंच चुकी है। दक्षिण अफ्रीका के केन्या देश के मासीमारा को चीतों की रिहाईश के लिए बेहद अनुकूल माना जाता है। इसे चीतों का गढ़ भी कहा जाता है पर यहां भी चीतों की तादाद बहुत ही कम हो चुकी है।
सबसे बड़ी विडंबना की बात तो यह है कि जब भी कोई बात या समस्या अपने अंतिम दौर तक नहीं पहुंच जाती तब तक इंसान उस बारे में चेतता ही नहीं है। दुनिया भर में हर मामलों के लिए अलग अलग सरकारी विभाग बने हुए हैं, इसके बाद भी सरकारी अमलों के अधिकारियों की तंद्रा समय रहते क्यों नहीं टूट पाती यह शोध का ही विषय माना जा सकता है। पर्यावरणविदों के द्वारा ग्लोबल वार्मिंग, पर्यवरण असंतुलन, ग्रीन हाऊस गैसेज़ आदि के बारे में समय समय पर चेतावनी देने के बाद भी किसी की तंद्रा न टूट पाना आश्चर्य का ही विषय है।
आईए जानते हैं चीतों के बारे में कुछ रोचक जानकारियां : चीते को विश्व में सबसे तेज रफ्तार से दौड़ने वाला जानवर माना जाता है। माना जाता है कि चीता सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से भी दौड़ सकता है। कहा जाता है कि चीता जब फर्राटा भरता है तब वह सात मीटर तक लंबी छलांग भी लगा सकता है। चीते का पिकप बहुत ही अच्छा होता है, यह महज तीन सेकण्ड्स में ही पूरी गति से दौड़ने लगता है। इसके साथ ही यह बात भी सामने आई है कि चीते ज्यादा देर तक दौड़ नहंी पाते हैं।
चीते भारत में तो विलुप्त हो चुके हैं, इसलिए आज युवा हुई पीढ़ी इनके बारे में शायद ही विस्तार से जानते हों। चीता दहाड़ नहीं सकता है। यह बिल्ली की प्रजाति का है इसलिए यह महज गुर्रा ही सकता है। मादा चीते को बच्चों को लगभग नो माह तक अकेले ही उनकी परवरिश करना पड़ता है। प्रजनन के लिए ही मादा चीता प्रजनन काल में नर चीते से मिलती है, इसके बाद दोनों अलग अलग हो जाते हैं।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भारत, पाकिस्तान, रूस के अलावा मध्य पूर्व देशों मे ंभी चीते पाए जाते थे। दक्षिण अफ्रीका के अलावा ईरान में भी चीते पाए जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार ईरान में लगभग एक सैकड़ा चीते आज भी जीवित अवस्था में हैं। अरब देशों में चीतों को घरों में श्वानों की तरह पालने का शौक भी है।
जानकारों का कहना है कि चूंकि चीते के ज्यादातर शावक जीवित नहीं रह पाते हैं, जिसके चलते चीतों की तादाद तेजी से कम होती गई। चीते के पांच फीसदी बच्चे ही व्यस्क हो पाते हैं। इसके पीछे किए गए शोधों में यह बात भी निकलकर सामने आई है कि चीतों के जीवित न रहने का कारण इनके जंगली शिकारी अर्थात शेर, लकड़बघ्घा यहां तक कि कुछ शिकारी परिंदे भी माने जाते हैं। (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)
(साई फीचर्स)
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